यह तो बड़ी पहेली है। क्योंकि लाओत्से बोलता है। उपनिषद भी यही
कहते हैं कि जो जानता है वह बोलता नहीं,
जो बोलता है वह जानता नहीं। और उपनिषद भी बोलते हैं।
सुकरात भी यही कहता है। मैं भी यही कहता हूं, और रोज बोले चला जाता हूं।
इस पहेली को ठीक से समझ लें, अन्यथा भूल होनी आसान है।
इसका क्या अर्थ है?
क्या गूंगे जानते हैं, क्योंकि वे बोलते नहीं?
और क्या बोलने वाले नहीं जानते, क्योंकि बुद्ध
बोलते हैं, कृष्ण बोलते हैं, मोहम्मद
बोलते हैं, जीसस बोलते हैं? तब तो
गूंगे उनसे आगे पहुंच गए होंगे। और मजा यह है कि ये सब बोलने वाले यही कहते हैं कि
वह गूंगे का गुड़ है, गूंगे केरी सरकरा! उसे जो खाता है वह
चुप होता है, मुस्कुराता है, बोलता
नहीं। फिर ये सारे लोग क्यों बोले चले जाते हैं?
यह बात तो बड़ी अतक्र्य मालूम होती है। अगर ये सही कहते हैं तो
ये सही नहीं हो सकते। अगर ये सही हैं तो ये जो कहते हैं वह सही नहीं हो सकता। अगर
लाओत्से को हम समझें कि इसने पा लिया है तो इसे चुप हो जाना चाहिए। और अगर हम
समझें कि यह बोल रहा है तो जाहिर है कि इसने पाया नहीं है। अगर हम लाओत्से की ही
मानें तो लाओत्से गलत हो जाता है। हम करें क्या?
नहीं, बोलने और न बोलने का जो अर्थ लाओत्से, उपनिषद और
सुकरात का है वह हम समझ नहीं पाए। हमें उस न बोलने का पता ही नहीं है, जिसकी तरफ वे इशारा कर रहे हैं। हम तो जिस बोलने को और न बोलने को जानते
हैं उसी को समझ रहे हैं। तुम बोलते हो दूसरे से। वहां तक तो ठीक है, क्योंकि दूसरे से बोले बिना कोई उपाय नहीं। शब्द दूसरे से जुड़ने का सेतु
है, संवाद का मार्ग है। स्वाभाविक है। अगर यह भी लाओत्से को
कहना हो कि जानने वाला नहीं बोलता तो भी शब्द में ही कहना पड़ेगा, बोल कर ही कहना पड़ेगा। असंगत होना पड़ेगा, क्योंकि
कुछ भी नहीं कहा जा सकता बिना बोले। बोलने के विपरीत भी बोलना हो तो बोलना ही एक
उपाय है।
लेकिन तुम जब अकेले हो तब तुम क्यों बोलते हो? दूसरे से जुड़ने का उपाय है
शब्द, अपने से जुड़ने का नहीं। जब तुम अकेले बैठे हो तब भी
तुम्हारे भीतर बोलना क्यों चलता रहता है?
वही बोलना रुक जाता है जानने वाले का। जो जान लेता है उसके भीतर
बोली रुक जाती है--भीतर, याद रखना। वह भीतर नहीं बोलता। वह अपने से नहीं बोलता। अपने से बोलने का
क्या अर्थ है? दूसरे से बोलने की तो सार्थकता है, अपने से बोलना तो विक्षिप्तता है। वह तो पागलपन का लक्षण है। लेकिन तुम
खाली बैठे हो और अपने से बोले चले जाते हो; भीतर ही बात करते
हो। अपने को ही दो हिस्सों में तोड़ लेते हो; एक बोलता है,
एक जवाब देता है, एक पूछता है। सारा विचार
विक्षिप्तता है।
जो जान लेता है वह नहीं बोलता, इसका अर्थ है कि वह विचार नहीं करता। जब वह
अकेला है तो निश्चित ही बिलकुल अकेला है। उसका एकांत परिशुद्ध एकांत है। उस एकांत
में कोई भी नहीं है; वही है। शब्द भी नहीं है; वहां परम मौन है। जब दूसरे के साथ है तो जरूरत हो तो बोलता है। जब अपने
साथ है तो बोलना तो बिलकुल ही गैर-जरूरी है। अपने साथ तो बोलने की कभी कोई जरूरत
नहीं पड़ती। अपने साथ क्या बोलना है? कौन बोलेगा? कौन सुनेगा? वहां तो द्वैत नहीं है, वहां तो तुम अकेले हो।
ताओ उपनिषद
ओशो
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