सेक्स का विषय बहुत सूक्ष्म
और नाजुक है, क्योंकि
सदियों से किए जाने वाला शोषण, भ्रष्टाचार, सदियों से चले आ रहे विकृत विचार, धर्म और समाज द्वारा
दिया अनुशासन और आदतें इन सभी को जोड़कर ही जो शब्द बनता है वह है सेक्स। यह शब्द बहुत
वजनी है। यह अस्तित्व में सबसे अधिक वजनी शब्दों में से एक है। तुम कहो परमात्मा लेकिन यह शब्द ही खाली खाली सा ही लगता है। तुम कहो सेक्स—तो यह शब्द अधिक वजनी लगता है। इस शब्द को सुनते ही मन में भय, विकारग्रस्तता, आकर्षण, तीव्र कामना
और अकाम आदि एक हजार एक चीजों का जन्म होता है।
ये सभी भाव एक साथ उठते हैं। सेक्स यह अकेला एक शब्द ही अत्यधिक
अव्यवस्था और भ्रम उत्पन्न करता है। यह ऐसा है जैसे मानो किसी व्यक्ति ने शांत तालाब
में एक चट्टान फेंक दी हो, ओर उससे लाखों लहरें उत्पन्न हो गई हों। बस केवल एक शब्द सेक्स मनुष्यता अभी तक बहुत ही गलत विचारों के तले जीती रही है।
इसलिए पहली चीज है तुम यह क्यों पूछ रहे हो कि सेक्स का अतिक्रमण कैसे करें? पहली बात तो यह कि तुम सेक्स का अतिक्रमण क्यों करना चाहते हो? तुम एक बहुत सुंदर शब्द 'अतिक्रमण' का प्रयोग कर रहे हो, अर्थात् सभी सीमाओं को पार चले
जाना, लेकिन सौ में से निन्यानवे संभावनाएं यही हैं, कि तुम्हारा वास्तविक प्रश्न है कि कैसे सेक्स का दमन किया जाए?
.....क्योंकि एक व्यक्ति जिसने यह समझ लिया हो कि सेक्स का अतिक्रमण किया जाना है
वह उसके अतिक्रमण करने के बारे में चिंतित होगा ही नहीं, क्योंकि
कोई भी व्यक्ति सभी सीमाओं के पार अनुभव के द्वारा ही जाता है। तुम उसकी व्यवस्था नहीं
कर सकते। वह कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हें उसे करना ही है। तुम साधारण रूप से बहुत से
अनुभवों के द्वारा होकर गुजरते हो, और वे अनुभव तुम्हें अधिक
से अधिक परिपक्व बनाते हैं।
क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है कि एक विशिष्ट आयु में आकर सेक्स
अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। ऐसा नहीं कि तुम उसे महत्त्वपूर्ण बनाते हो। यह कोई
ऐसी चीज नहीं है कि तुम उसे बनाते हो,
वह तो स्वयं घटती है। चौदह वर्ष की आयु अथवा उसके निकट की आयु में अचानक
सेक्स के साथ ऊर्जा की बाढ़ सी आती है। ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे अंदर मानो ऊर्जा की
आई बाढ़ को रोकने वाले दरवाजे खोल दिए गए हों। ऊर्जा के सूक्ष्म स्रोत जो अभी तक खुले
नहीं थे, एक साथ खुल जाते हैं, और तुम्हारी
पूरी ऊर्जा सेक्स के साथ कामवासना बन जाती है। तुम सेक्स के बारे में ही सोचते हो,
तुम सेक्स के बारे में ही गुनगुनाते हो, तुम चलते
हुए भी सेक्स के बारे में ही सोचते हो, और प्रत्येक चीज कामुक
हो उठती है। प्रत्येक कृत्य जैसे उसी के रंग में रंग जाता है। ऐसा स्वयं घटता है। तुम
उस बारे में करते कुछ भी नहीं। यह सभी स्वाभाविक है।
उसका अतिक्रमण भी स्वाभाविक है। यदि बिना उसकी निंदा किए हुए सेक्स
को समग्रता से जिया जाए बिना इस विचार के साथ कि उससे पीछा छुड़ाना है, तो बयालीस वर्ष की आयु में......जैसे
चौदह वर्ष की अवस्था में सेक्स का द्वार खुला था और पूरी ऊर्जा कामवासना बन गई थी,
उसी तरह बयालीस वर्ष की अवस्था में अथवा उनके आसपास काम ऊर्जा की बाढ़
के द्वार फिर से बंद हो जाते
हैं और ऐसा होना भी स्वाभाविक है। जैसे सेक्स जीवंत होता है, वैसे ही वह विलुप्त होना शुरू
हो जाता है।
सेक्स का अतिक्रमण बिना किसी प्रयास के होता है। तुम्हारा उसमें
कोई पार्ट नहीं होता। यदि तुम कोई प्रयास करोगे तो वह दमन होगा क्योंकि उसका तुम्हारे
साथ कोई लेना देना नहीं। वह तुम्हारे शरीर में जीवविज्ञान के अनुसार जन्मजात है। तुम
कामुक अस्तित्व से ही उत्पन्न होते हो,
उसने कुछ भी गलत नहीं है। जन्म लेने का केवल यही एक तरीका है। मनुष्य
होना ही कामुक होना है।
जब तुम गर्भ में आये तुम्हारे माता और पिता प्रार्थना नहीं कर रहे
थे, वे लोग किसी
पादरी का उपदेश नहीं सुन रहे थे। वे किसी चर्च में नहीं बैठे थे, वे आपस में प्रेमालाप कर रहे थे। यह सोचना ही कि जब तुम गर्भ में आये,
तो तुम्हारे माता और पिता प्रेम कर रहे थे, बहुत
कठिन लगता है। वे आपस में प्रेम कर रहे थे, उनकी काम ऊर्जाएं
एक दूसरे से मिलकर एक दूसरे में समाहित हो रही थीं। एक गहरे कामुक कृत्य के बाद ही
तुम गर्भ में आए। पहला कोष ही सेक्स कोष था, लेकिन आधारभूत रूप
से प्रत्येक कोष में कामवासना होती है। तुम्हारा पूरा शरीर सेक्स के कोषों से ही बना
हुआ है, जिसमें लाखों कोष हैं, और जिसमें
विरोधी सेक्स के प्रति मौन आकर्षण होता है।
स्मरण रहे यौन सम्बन्धों के कारण ही तुम अस्तित्व में हो। एक बार
तुम इसे स्वीकार लो, तो सदियों से उत्पन्न हुआ संघर्ष समाप्त हो जाता है, एक बार तुम उसे गहराई से स्वीकार कर लो, और बीच में कोई
दूसरे विचार न हों. जब सेक्स के बारे में तुम उसे स्वाभाविक मानकर जीते हो,
तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि खाने का कैसे अतिक्रमण किया जाये,
तुम मुझसे यह नहीं पूछते कि सांस का कैसे अतिक्रमण किया जाए क्योंकि
किसी भी धर्म ने तुम्हें सांस का अतिक्रमण करना नहीं सिखाया है, अन्यथा तुम पूछते सांस का अतिक्रमण कैसे किया जाए?'' तुम सांस लेते हो, तुम सांस लेने वाले प्राणी या एक जानवर
हो, तुम साथ ही सेक्स अंगों वाले भी एक जानवर हो। लेकिन इसमें
एक अंतर है। तुम्हारे जीवन के चौदह वर्ष जो शुरू के होते हैं, लगभग बिना सेक्स के होते हैं, अधिकतर केवल प्राथमिक पैमाने
के यौन अंगों के खेल जैसे ही होते हैं, जिनमें वास्तव में कामवासना
नहीं होती। केवल तैयारी होती है, पूर्वाभ्यास होता है,
सब कुछ बस इतना ही होता है। अचानक चौदह वर्ष की अवस्था में ही सेक्स
ऊर्जा परिपक्व होती है।
जरा निरीक्षण करें। एक बच्चा जन्म लेता है.. तुरंत तीन सेकिंड में
ही बच्चे को सांस लेनी होती है। अन्यथा वह मर जाएगा। तब सांस लेना पूरे जीवन भर होता
रहता है, क्योंकि
वह जीवन के प्रथम कदम पर आया है। उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। यह हो सकता है कि
मरने के केवल तीन सेकिंड पहले वह रुक जायेगा, लेकिन इससे पहले
नहीं। हमेशा याद रहे, जीवन के दोनों छोर, प्रारंभ और अंत ठीक एक जैसे है संगतिपूर्ण है। बच्चा जन्म लेता है और सांस
लेना तीन सेकिंड के अंदर शुरू कर देता है। जब बच्चा बूढ़ा होकर मर रहा है, उसी क्षण वह सांस लेना बंद करता है और तीन सेकिंड के अंदर मर जाता है।
बच्चा चौदह वर्ष की आयु तक बिना सेक्स के रहता है और सेक्स का प्रवेश
काफी देर से होता है। और यदि समाज बहुत अधिक दमन करने वाला नहीं है, और कामवासना ने मन को पूरी तरह
आवेशित ही नहीं कर दिया तो बच्चा इस तथ्य के प्रति पूरी तरह भूल जाता है कि सेक्स या
उस तरह की कोई चीज अस्तित्व में भी है। बच्चा पूरी तरह निर्दोष बना रह सकता है। यह
निर्दोषिता भी उनके लिए सम्भव नहीं है। जो लोग बहुत अधिक दमित हैं। जब दमन होता है
तब उसके साथ ही साथ पहले से ही मन में जड़ जमाये अनेक भ्रम भी होते हैं।
इसलिए पुरोहित दमन कराये चले जाते हैं। और वहां पुरोहितों के विरोधी
हेफनर्स और अन्य लोग भी हैं जो अधिक से अधिक अश्लील साहित्य सृजित किये चले जाते हैं।
इसलिए एक ओर तो वहां पुरोहित हैं जो दमन किए चले जा रहे हैं और तभी पुरोहितों के विरोधी
तथा दूसरे लोग भी हैं, जो कामुकता और अश्लीलता को अधिक से अधिक आकर्षक बना कर प्रस्तुत कर रहे हैं।
ये दोनों लोग एक साथ ही, एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह मौजूद
हैं। जब चर्च मिट जाएंगे केवल तभी प्लेबॉय अश्लील मैगजीन भी गायब हो जाएगी,
लेकिन उससे पहले नहीं। वे धंधे में साझीदार की भांति हैं। वे यों तो
दुश्मन दिखाई देते हैं। लेकिन इससे धोखे में मत पड़ो। वे दोनों एक दूसरे के विरुद्ध
बातें करते हैं, लेकिन इसी तरह से ही तो चीजें कार्य करती हैं।
मैंने दो मनुष्यों के बारे
में सुना है, जिनका
धंधा चौपट हो गया था, इसलिए उन दोनों ने एक बहुत सरल सा धंधा
शुरू करने का निश्चय किया। उन दोनों ने एक शहर से दूसरे शहर में टुअर करने वाली यात्राएं
करना शुरू किया। पहले उनमें से एक शहर में प्रवेश करता है और रात में लोगों की खिड़कियों
और दरवाजों पर तारकोल फेंक देता। इसके दो या तीन दिनों बाद दूसरा उनको साफ करने के
लिए आता। वह लोगों को सलाह देता हुआ बताता कि वह किसी भी चीज पर पड़े हुए तारकोल को
हटा सकता है। और फिर खिड़कियों को साफ करता। उसी समय पहला व्यक्ति दूसरे शहर में अपना
आधा व्यापार कर रहा होता। इस तरह उन दोनों ने काफी धन कमाना शुरू कर दिया।
सब कुछ ऐसा ही चर्च और झूजफनसे और उनके लोगों के बीच घट रहा है, जो निरंतर अश्लील साहित्य और
चित्र बनाए चले जा रहे हैं।
वे साथ—साथ हैं। वे इस षडयंत्र में साझीदार
हैं। जब कभी तुम अत्यधिक कामवासना का दमन करते हो, तुम विकारग्रस्त
दिलचस्पी से खोजना शुरू कर देते हो। एक विकारग्रस्त दिलचस्पी ही वास्तविक समस्या है
सेक्स नहीं। अब यह पादरी मानसिक रोगी है। सेक्स कोई समस्या नहीं, लेकिन विकृत चिंतन से यह मनुष्य परेशान है।
ऐसा होना ही था। इसलिए अपने मन में सेक्स के विरुद्ध एक भी विचार
लेकर मत चलो, अन्यथा
तुम कभी भी उसके पार न जा सकोगे। वे लोग जो सेक्स का अतिक्रमण कर गए ये वही लोग थे
जिन्होंने उसे सहज स्वाभाविक रूप में स्वीकार किया। यह बहुत कठिन है। मैं जानता हूं
क्योंकि तुमने जिस समाज में जन्म लिया है। वह सेक्स के बारे में इस तरह या उस तरह से
मानसिक रूप से विकारग्रस्त है। लेकिन यह मानसिक विक्षिप्तता सभी जगह एक ही सी है। इस
मानसिक दशा से बाहर निकलना बहुत कठिन है, लेकिन यदि तुम थोड़े
से सजग हो, तो तुम उससे बाहर आ सकते हो। इसलिए असली चीज यह नहीं
है कि कैसे सेक्स का अतिक्रमण किया जाए लेकिन असली समस्या है कि कैसे समाज की इस विकारग्रस्त
विचारधारा के, इस सेक्स के भय से, इसके
दमन और मन पर निरंतर उसके अधिकार से मुक्त हुआ जा सके।
सेक्स सुंदर है। सेक्स अपने आप में एक स्वाभाविक लयबद्ध घटना है।
यह तब घटती है, जब
शिशुगर्भ में आने के लिए तैयार होता है और यह अच्छा है कि ऐसा होता है, अन्यथा जीवन का अस्तित्व ही न होता। जीवन का अस्तित्व सेक्स के ही द्वारा है,
सेक्स उसका माध्यम है। यदि तुम जीवन को समझते हो, यदि तुम जीवन को प्रेम करते हो, तो तुम उसमें प्रसन्नता
का अनुभव करोगे, और जितने स्वाभाविक रूप से वह आता है,
वैसे ही स्वयं अपने आप ही विदा हो जाता है। बयालीस वर्ष अथवा उसके आसपास
की आयु में सेक्स उसी तरह स्वाभाविक रूप से विसर्जित होना शुरू हो जाता है,
जैसे वह अस्तित्व में आया था। लेकिन वह उस तरह से नहीं जाता।
जब मैं कहता हूं लगभग बयालीस वर्ष के आसपास, तो यह सुनकर तुम आश्चर्य करोगे।
तुम जानते हो कि जो लोग सत्तर या अस्सी वर्ष के भी हैं, वे भी
सेक्स के पार अभी नहीं जा सके हैं। तुम ऐसे गंदे के लोगों को जानते हो। वे लोग समाज
के ही शिकार हैं। क्योंकि वे सहज स्वाभाविक होकर न रह सके। जब उन्हें आनंद लेते हुए
प्रसन्न रहना चाहिए था, तब उन्होंने दमन किया और उसी का वे आज
भी परिणाम भुगत रहे हैं। आनंद के उन क्षणों को उन्होंने समग्रता से नहीं भोगा। वे कभी
भी संभोग के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे ही नहीं, उन्होंने आधा अधूरा
संभोग ही किया।
इसलिए जब कभी भी तुम किसी भी कार्य को आधे— अधूरे हृदय से करते हो,
तो वह लम्बे समय तक कहीं अटका रहता है। यदि तुम मेज पर बैठे हुए आधे— अधूरे हृदय से भोजन कर रहे हो, और तुम्हारी भूख बनी
ही रहती है तो तुम पूरे ही दिन भोजन के ही बारे में सोचते रहोगे। तुम उपवास करने की
कोशिश कर सकते हो और सोचते रहोगे। तुम उपवास रखने की कोशिश कर सकते हो और तुम देखोगे
कि तुम निरंतर भोजन के बारे में ही सोचते रहोगे। लेकिन तुमने भरपेट तृप्ति से भोजन
किया है, और जब मैं कहता हूं भरपेट तृप्ति से तो मेरा अर्थ नहीं
है कि तुमने डूंस— ठूंस कर भोजन किया है, सम्यक भोजन करना एक
कला है।
तंत्र कहता है—कि किसी भी स्त्री या किसी भी पुरुष से प्रेम करने के पूर्व पहले प्रार्थना
करो क्योंकि वहां दो ऊर्जाओं का दिव्य मिलन होने जा रहा है। परमात्मा तुम्हारे चारों
ओर ही होगा। जहां भी दो प्रेमी होते हैं, वहां परमात्मा होता
ही है। जहां कहीं भी दो प्रेमियों की ऊर्जाएं मिल रही हैं। एक दूसरे में समाहित हो
रही हैं, वहां जीवन और जीवंतता अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में है और
परमात्मा चारों ओर से घेरे हुए है। चर्च खाली पडे हैं और जिन कक्षों में प्रेम किया
जा रहा है, वे सभी परमात्मा से भरे हुए हैं। यदि तुमने प्रेम
का स्वाद उस तरह से लिया है जिस तरह से उसका स्वाद लेने को तंत्र कहता है यदि तुम प्रेम
करने की वह विधि जानते हो जिसे जानने की बात ताओ कहता है तो बयालिस वर्ष की आयु तक
पहुंचने पर प्रेम स्वयं ही अपने आप तिरोहित होना शुरू हो जाता है। और तुम उसे गुडबाई
कह देते हो, क्योंकि तुम अहोभाव और उसके प्रति कृतज्ञता से भरे
हुए हो। वह तुम्हारे लिए परम प्रसन्नता और परमानंद बन कर रहा है, इसीलिए तुम उसे गुडबाई कहते हो।
और बयालीस वर्ष की आयु ध्यान के लिए बिलकुल ठीक आयु है। सेक्स विसर्जित
हो जाता है, वह अतिरेक
से बहती हुई ऊर्जा अब वहां नहीं है। कोई भी ऐसा व्यक्ति कहीं अधिक शांत हो जाता है।
वासना चली जाती है, करुणा का जन्म होता है। अब वहां वह ज्वर और
ज्वार नहीं अब कोई भी किसी दूसरे में रुचि नहीं ले रहा है। सेक्स के विलुप्त होने के
साथ ही दूसरा व्यक्ति अब केंद्र में रहा ही नहीं। अब वह अपने स्वयं के स्रोत की ओर
वापस आना शुरू कर देता है। वापस लौटने की यात्रा का शुभारंभ हो जाता है।
सेक्स का अतिक्रमण तुम्हारे किन्हीं प्रयासों के द्वारा नहीं होता।
वह तभी घटता है यदि तुम समग्रता से जिये हो। इसलिए मेरा सुझाव है कि सभी जीवन— विरोधी व्यवहार छोड़ कर वास्तविक
सच्चाई को स्वीकार करो। सेक्स है, इसलिए तुम उसे छोड़ने वाले होते
कौन हो? और है कौन, जो उसे छोड़ने का प्रयास
कर रहा है? वह केवल अहंकार है। स्मरण रहे सेक्स ही अहंकार के
लिए सबसे बड़ी समस्या उत्पन्न करता है।
प्रेमयोग
ओशो
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