मेरे एक संन्यासी हैं,
ईरानी हैं--डाक्टर हमीद। दिव्या से उनका प्रेम था। फिर थक गए,
ऊब गए। हर चीज उबा देती है। हर चीज थका देती है। मन का यह नियम है।
जब तक तुम मन के पार नहीं हो, ऐसी कोई चीज नहीं जो तुम्हें
उबा न दे। और ये सब खेल, प्रेम हो कि घृणा हो, सब मन के ही खेल हैं। कभी एक ही सब्जी रोज-रोज खाओगे--भिंडी, भिंडी, भिंडी--एकदम घबड़ा ही जाओगे! एक दिन थाली फेंक
कर खड़े हो जाओगे। मन घबड़ाएगा ही। फिर चाहे यह प्रेम हो तुम्हारे मन का और चाहे
घृणा हो तुम्हारे मन की, मन जो भी करता है, उसमें जल्दी ही ऊब जाता है। ऊबना मन का स्वभाव है। वह जल्दी ही नये की
मांग करने लगता है। वह कहता है, कुछ और। अब कुछ बदलाहट
चाहिए। कुछ न कुछ बदलाहट।
डाक्टर ने एक अभिनेत्री को सलाह दी, आपके लिए वातावरण-परिवर्तन
बहुत आवश्यक है।
अभिनेत्री ने कहा,
वातावरण परिवर्तन! मैं पिछले चार वर्षों में दो पति, चार नौकर, तीन सेक्रेटरी और पांच प्रेमी बदल चुकी
हूं, अब और क्या परिवर्तन करना पड़ेगा?
सो हमीद थके,
बहुत थके। दिव्या भी थक गई। दोनों थक गए। बार-बार मुझे लिखने लगे कि
हम दोनों को अलग करवा दें। जब मैंने देख लिया कि अब थकान बिलकुल सौ डिग्री पर आ गई,
तो उन दोनों को अलग करवा दिया। थोड़े ही दिनों में फिर दोनों
एक-दूसरे की आकांक्षा करने लगे। मन तो पागल है! फिर मुझे पत्र लिखने लगे कि हमें
तो फिर साथ रहना है। महीने दो महीने मैंने टाला। जब फिर देखा कि अब बात सौ डिग्री
पर पहुंची जा रही है, अब बिलकुल दीवाने ही हुए जा रहे हैं,
तो दोनों को फिर साथ कर दिया।
दूसरे दिन सुबह ही हमीद ने मुझे एक पत्र लिखा और कहा कि सूफियों
की एक कहावत जो मैं बचपन से सुनता रहा था,
कभी मेरे समझ में न आई; आज आपने अवसर दे दिया
कि समझ में आ गई। कहावत यह है कि आदमी ही एकमात्र गधा है, जो
एक ही गङ्ढे में दोबारा गिरता है। कोई गधा नहीं गिरता। एक गङ्ढे में एक दफा गिर
गया तो उस गङ्ढे में फिर न गिरेगा। तुम गधे को धकाओ तो भी इनकार करेगा, कि अब नहीं! अब गिरना ही है तो किसी और गङ्ढे में गिरेंगे!
यह तुम्हारा जो मन है,
इस मन से तो जो भी हो रहा है, वह मूढ़तापूर्ण
है। एक ही गङ्ढे में आदमी दोबारा नहीं, हजार बार गिरता है और
जानता है कि यह गङ्ढा है और जानता है कि इसमें गिरने से चोट लगती है। और कितनी ही
बार तय कर चुका कि अब नहीं गिरेंगे, मगर कुछ बात है। जैसे
खाज को कोई खुजलाता है; जानता है, भलीभांति
जानता है कि अभी खुजलाएगा, फिर अभी परेशान होगा, जलन उठेगी, लहू निकल जाएगा। मगर जब खुजलाहट उठती है
तो ऐसी मिठास पकड़ती है।
तो तुम अपने ही बिछाए केले के पत्तों पर गिरते हो। अगर जिंदगी
को जरा गौर से देखो तो यहां हंसने ही हंसने जैसा है। चारों तरफ घटनाएं ही घटनाएं
बिखरी पड़ी हैं। चुटकुलों से पटी हुई पड़ी है पृथ्वी--पत्थरों से नहीं, चुटकुलों से। जरा देखो,
जरा खोजो।
मुल्ला नसरुद्दीन शिकार को गया। बैठा था बंदूक वगैरह लेकर एक
झाड़ के पास, उसका
संगी-साथी एक भागा हुआ आया और उसने कहा कि नसरुद्दीन, क्या
कर रहे हो! अरे जल्दी आओ! जिस तंबू में तुम ठहरे हो, तुम्हारी
पत्नी अकेली है और एक चीता अंदर घुस गया है।
नसरुद्दीन खिलखिला कर हंसा। उसने कहा, अब कमबख्त को पता चलेगा। अब
करे अपनी आत्मरक्षा खुद ही! हम क्यों आएं! गया ही क्यों अंदर? हमारी कौन आत्मरक्षा करता है? हम अपने को बचाते हैं।
अब बचाए अपने को! चीता हो कि कोई हो। वैसे भी हमें चीतों से कुछ लेना-देना नहीं
है। अब बच्चे को छठी का दूध याद आएगा, कि कहां पर घुस गए!
मैंने यह भी सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक बार
सरकस आया, उसमें
से चीता छूट भाग निकला। पूरे गांव में डुंडी पीटी, पुलिस
सतर्क की गई, भोंपू बजाया गया कि सब लोग सावधान रहें। मुल्ला
तो जल्दी से सीढ़ी लगा कर अपने छप्पर पर चढ़ गया और सीढ़ी भी खींच ली। उसकी पत्नी
मोटी भी बहुत है, ऊंची भी बहुत है। वह चिल्लाई कि अरे,
यह क्या करते हो? उसने कहा कि तू चढ़ेगी तो
सीढ़ी तोड़ देगी।
और उसने कहा कि और चीता आ गया, फिर?
उसने कहा, तू क्यों घबड़ाती है? अरे चीता कोई क्रेन लेकर थोड़े
ही आएगा! तेरा क्या बिगाड़ लेगा? ये भोंपू वगैरह तो हम जैसे
गरीबों के लिए बज रहे हैं, तू बेफिक्री से रह। चीता आएगा तो
खुद अपना बचाव करेगा।
जिंदगी पटी पड़ी है,
अगर तुम गौर से देखो। यहां हंसने को बहुत है। लेकिन चूंकि तुम्हारे
भीतर की क्षमता खो गई है, इसलिए बाहर देखने का भी मौका नहीं
मिलता; दृष्टि भी खो गई है।
एक मुकदमे में मुल्ला नसरुद्दीन पर भी गवाही देने का काम था।
गवाही देते वक्त उसने बार-बार सिद्ध करने का प्रयास किया कि अमुक-अमुक होटल में
बदमाशी का अड्डा है। बचाव-पक्ष का वकील बराबर विरोध करता रहा।
उस होटल में बदमाशी का अड्डा है, यह सिद्ध करने के लिए तुमने जो दलीलें पेश की
हैं, उनमें दम नहीं है। ऐसी कोई ठोस वजह बता दो जिससे
तुम्हारी बात पर विश्वास किया जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा,
मानते नहीं तो फिर मैं बताए देता हूं। फिर मत कहना।
वकील भी थोड़ा डर कि क्या बताएगा! उसने कहा, हां बताओ, क्या डराते हो!
तो उसने कहा कि एक बार मैंने आपको भी वहां बैठे देखा था। और
क्या ठोस प्रमाण चाहिए?
रंजन, हंसो, जी भर कर हंसो। हर बहाने हंसो। न बहाने मिलें
तो बिन बहाने हंसो।
मुल्ला नसरुद्दीन बैठा था एक स्टेशन पर। ट्रेन लेट थी। जैसा कि
नियम है। दो-चार बार उठ कर भी गया,
स्टेशन मास्टर को पूछा भी; मगर जब जाए तभी और
लेट होती जाए। आखिर उसने कहा कि मामला क्या है, क्या ट्रेन
पीछे की तरफ सरक रही है? लेट होना भी समझ में आता है,
मगर और-और लेट होता जाना....क्या ट्रेन उस तरफ जा रही है? फिर आएगी कैसे? और जब हर गाड़ी को लेट ही होना है तो
टाइम-टेबल किसलिए छापते हो?
उस स्टेशन मास्टर ने कहा,
टाइम-टेबल नहीं छापेंगे तो पता कैसे चलेगा कि कौन सी गाड़ी कितने लेट
है?
नसरुद्दीन ने कहा,
यह बात जंचती है। यह बात पते की कही!
फिर उसने कहा,
अब कोई फिक्र नहीं। अब मैं बैठ कर राह देखता हूं।
बैठ कर वह राह देखने लगा। बीच-बीच में हंसे। कभी-कभी ऐसा झिड़क
दे कोई चीज हाथ से। कभी-कभी कहे--छिः छिः! वह स्टेशन-मास्टर थोड़ी देर देखता रहा कि
यह कर क्या रहा है! बार-बार आता था,
वही अच्छा था पूछने, अब यह और उत्सुकता जगा
रहा है। किसी चीज को हाथ से सरकाता है, किसी चीज को छिः छिः
कहता है, कभी कुछ। और फिर बीच-बीच में हंसता है, ऐसा खिलखिला कर हंसता है! आखिर वह आया, उसने कहा कि
भाईजान, बड़े मियां! आप मुझे काम ही नहीं करने दे रहे हैं।
मेरा दिल यहीं लगा है। इसमें कुछ गड़बड़ हो जाए, ट्रेन पटरी से
उतर जाए कि दूसरी पटरी पर चढ़ जाए, कि दो ट्रेनें टकरा जाएं,
जब तक मैं आपसे पूछ न लूं, मुझे चैन नहीं है।
या तो आप जरा दूर जाकर बैठो। आप कर क्या रहे हो? आप हंसते
क्यों हो बीच-बीच में? कुछ भी तो नहीं हो रहा है यहां। गाड़ी
लेट है। सब सन्नाटा छाया हुआ है। रात आधी हो गई है। सब यात्री बैठे-बैठे सो गए हैं।
कुली-कबाड़ी भी विश्राम कर रहे हैं। तुम हंसते किसलिए हो बीच-बीच में?
उसने कहा कि अब मैं बैठे-बैठे क्या करूं? अपने को कुछ चुटकुले सुना
रहा हूं।
उसने कहा, चलो, यह भी समझ में आ गया कि चुटकुले। ये बीच-बीच
में छिः छिः और यह हाथ से हटाना, यह क्या करते हो?
तो उसने कहा कि जो चुटकुले मैं पहले सुन चुका हूं, उन्हें कहता हूं...अरे हटो,
रास्ते पर लगो! उनको ऐसा हटा देता हूं। बीच-बीच में घुस आते हैं।
हंसो--बहाने मिलें तो ठीक,
न बहाने मिलें तो कुछ खोजो! मगर जिंदगी तुम्हारी एक हंसी का सिलसिला
हो। हंसी तुम्हारी सहज अभिव्यक्ति बन जानी चाहिए।
प्रीतम छवि नैन बसी
ओशो
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