जीवन में न तो उदासी है और न निराशा है। उदासी और निराशा
होगी--तुममें। जीवन तो बड़ा उत्फुल्ल है। जीवन तो बड़ा उत्सव से भरा है। जीवन जीवन
तो सब जगह--नृत्यमय है; नाच रहा है। उदास...?
तुमने किसी वृक्ष को उदास देखा? और तुमने किसी पक्षी को निराश देखा? चांदत्तारों में तुमने उदासी देखी? और अगर कभी देखी
भी हो, तो खयाल रखना: तुम अपनी ही उदासी को उनके ऊपर आरोपित
करते हो।
तुम उदास हो,
तो रात चांद भी उदास मालूम पड़ता है। तुम्हारा पड़ोसी उदास नहीं है,
तो उस को उदास नहीं मालूम पड़ता। उस के लिए चांद नाचता हुआ मालूम
पड़ता है। पड़ोसी को प्रियतमा आ गई है, तो चांद प्रफुल्ल मालूम
होता है। तुम्हारी प्रियतमा चल बसी है, मर गई है, तो चांद रोता मालूम पड़ता है। यह तो तुम्हारी ही धारणा तुम चांद पर थोप रहे
हो। जिस दिन तुम कोई धारणा न रखोगे, तुम पाओगे--सब तरफ उत्सव
है।
देखते नहीं: ये गुलमोहर के फूल, ये वृक्ष, यह हरियाली,
यह पक्षियों के गीत--चारों तरफ जीवन अपूर्व उत्सव में लीन है। सिर्फ
मनुष्य उदास मालूम होता है। क्या हो गया है? कौन सी दुर्घटना
मनुष्य के जीवन में हो गई है?
जो पहली दुर्घटना समझने जैसी है, जिसके कारण मनुष्य उदास हो गया है: वह है कि
मनुष्य अकेला है, जिसने अपने को विराट से तोड़ लिया है। जो
सोचता है: मैं अलग-थलग। जिसने एक अस्मिता और अहंकार निर्मित कर लिया है।
इस अस्तित्व में कहीं भी अहंकार नहीं है--सिर्फ आदमी को छोड़कर।
पशु-पक्षी हैं, पौधे
हैं, पहाड़ हैं, चांदत्तारे हैं,
लेकिन कोई अहंकार नहीं है। वे सब परमात्मा में जी रहे हैं; विराट के साथ एक हैं--तल्लीन हैं। सिर्फ आदमी टूट गया है--संगीत से। सिर्फ
आदमी के सुरत्ताल बेसुरे हो गये हैं।
यह जो विराट संगीत का उत्सव चल रहा है, इसमें मनुष्य अकेला है,
जो अपनी ढपली अलग बजाता है; जो कोशिश करता है
कि मैं अपनी ढपली से ही आनंदित हो जाऊं--इसलिए उदासी है।
अहंकार है कारण--उदासी और निराशा का।
निराशा का क्या अर्थ होता है? निराशा का अर्थ होता है: तुमने आशा बांधी होगी,
वह टूट गई। अगर आशा न बांधते, तो निराशा न
होती। निराशा आशा छी छाया है।
आदमी भर आया बांधता है;
और तो कोई आशा बांधता ही नहीं। आदमी ही कल की सोचता है, परसों की सोचता है, भविष्य को सोचता है। सोचता है,
आयोजन करता है बड़े कि कैसे विजय करूं, कैसे
जीतूं? कैसे दुनिया की दिखा दूं कि मैं कुछ हूं? कैसे सिकंदर बन जाऊं? फिर नहीं होती जीत, तो निराशा हाथ आती है। सिकंदर भी निराश होकर मरता है; रोता हुआ मरता है।
जो भी आदमी आशा से जीएगा,
वह निराश होगा। आशा का मतलब है: भविष्य में जीना; अहंकार की योजनाएं बनाना; और अहंकार को स्थापित करने
के विचार करना। फिर वे विचार असफल होए। अहंकार जीत नहीं सकता। उसकी जीत संभव नहीं
है। उसकी जीत ऐसे ही असंभव है, जैसे सागर की एक लहर सागर के
खिलाफ जीतना चाहे। जीतेगी? सागर की लहर सागर का हिस्सा है।
मेरा एक हाथ मेरे खिलाफ जीतना चाहे, कैसे जीतेगा? वह तो बात ही पागलपन की है। मेरे हाथ मेरी ऊर्जा है। हम लहरें हैं--एक ही
परमात्मा की। जीत और हार का कहां सवाल है? या तो परमात्मा
जीतता है, या परमात्मा हारता है। हमारी तो न कोई जीत है,
न कोई हार है। चूंकि हम जीत के लिए उत्सुक हैं, इसलिए हार निराश करती है।
भक्त का इतना ही अर्थ है;
भक्त कहता है: तू चाहे-जीत; तू चाहे--हार;
और तुझे जो मेरा उपयोग करना है--कर ले। हम तो उपकरण हैं। हम तो बांस
की पोंगरी हैं, तुझे जो गीत गाना हो--गा ले। गीत हमारा नहीं
है। हम तो खाली पोंगरी हैं। गाना हो, तो ले। न गाना हो--तो न
गा। तेरी मर्जी। न गा, तो सब ठीक; गा--तो
सब ठीक।
ऐसी दशा में निराशा कैसे बनेगी? भक्त निराश नहीं होता। निराश हो ही नहीं सकता।
उसने निराशा का सार इंतजाम तोड़ दिया। आशा ही न रखी, तो निराशा
कैसे होगी?
अब तुम कहते हो: मन उदास क्यों होता है? जीवन में उदासी क्यों है?
उदासी का अर्थ ही यही होता है कि तुम जो करना चाहते हो, नहीं कर पाते। जगह-जगह पड़ गया हूं। और मैं पागल हुआ जा रहा हूं कि यह सब
तो मैं इकट्ठे तो बन नहीं सकता! और इस सब ऊहापोह में मुझे यह भी समझ में नहीं आता
कि मैं क्या बनना चाहता हूं!
मनुष्य के जीवन की अधिकतम उदासी का कारण यही है कि तुम सहज नहीं
जी रहे हो। तुम्हारा हृदय जहां स्वभावतः जाता है, वहां नहीं जा रहे हो। तुमसे कुछ इतर लक्ष्य बना
लिए हैं।
कण थोड़े कांकर घने
ओशो
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