जागेश्वर,
जब ईश्वर
को देखा ही नहीं तो पूजा करना ही क्यों?
क्यों यह प्रश्न उठता है कि पूजा किसकी, कैसे
और कहां करूं? यह तो अजीब बात हुई। यह तो वैसी बात हुई कि
नंगा पूछे कि अगर नहाऊं तो फिर कपड़े कहां निचोडूं! और निचोड़ भी लूं तो फिर कपड़े
सुखाऊं कहां!
जब
तुम्हें ईश्वर का कोई बोध ही नहीं है,
तो फिर पूजा कैसे करोगे? ईश्वर का बोध नहीं और
आगे चले! यह तो शेखचिल्लीपन हुआ। लेकिन अक्सर शेखचिल्लीपन की बातें तत्वज्ञान मालूम
होती हैं। तुमने जब पूछा होगा यह प्रश्न हो सोचा होगा तत्वज्ञान की बात पूछ रहे हो,
बड़ी धार्मिक बात पूछ रहे हो! तुम बिलकुल ही व्यर्थ की बात पूछ रहे
हो!
यह तो ऐसे
ही जैसे कि मकान कभी बना ही नहीं,
तो छप्पर पर क्या लगाना है--खपड़े लगाना कि एस्बेस्टस शीट चढ़ानी?
और मकान बना ही नहीं, नींव भी रखी नहीं गई--और
छप्पर का विचार कर रहे हो!
पूजा तो
पीछे आएगी, पहले
ईश्वर का बोध आना चाहिए। यह पूछो कि ईश्वर का बोध कैसे हो! अभी पूजा की बात ही
क्यों उठाते हो? ईश्वर का बोध हो तो पूजा अपने आप आ जाती है,
बच ही नहीं सकते। झुकना ही पड़ेगा।
मेरी
उत्सुकता यहां तुम्हें पूजा सिखाने में नहीं है और न मैं कहता हूं--कैसे करो और
कहां करो। कहां करोगे? जो भी करोगे, झूठ होगा। मंदिर जाओगे, झूठ; मस्जिद जाओगे, झूठ;
गुरुद्वारा जाओगे, झूठ। ईश्वर का बोध पहले
होना चाहिए, फिर मंदिर जाओ कि न जाओ, फिर
जहां झुक जाओगे वहीं मंदिर है। फिर जहां मौन होकर उस परमात्मा का स्मरण करोगे,
गदगद होओगे, भीगोगे--वहीं गुरुद्वारा! नहीं तो
अभी तो सब गड़बड़ हो जाएगी।
कल मैं एक
कविता पढ़ रहा था। तुमने कबीर का प्रसिद्ध सूत्र तो सुना ही है--गुरु गोविंद दोई
खड़े, काके लागू
पांव। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताए। इसको लोग दोहराते हैं। यह लोगों को
कंठस्थ हो गया है। सूत्र प्यारा है। मगर यह मौका तुम्हें आता कहां कि गुरु गोविंद
दोनों खड़े हों। पहले तो तुम किसी को गुरु ही स्वीकार नहीं करते, तो गोविंद के खड़े होने की तो बात ही दूर। मगर कल मैंने एक कविता पढ़ी,
वह मुझे लगा कि ज्यादा समझदारी की है--
पत्नी
प्रेयसी दोई खड़े काके लागूं पांव
बलिहारी
गुरु आपकी दोइन दिए बताए।
यह मुझे
ज्यादा जंचा कि यह बात ठीक है। यह जरा अनुभव की है। यह करीब-करीब सभी के अनुभव की
है। कौन होगा अभागा, जिसको ऐसा अनुभव न हो, कि पति-पत्नी...सभी को यह
अनुभव है। और फिर कोई मिल गए होंगे गुरुघंटाल, जिन्होंने कहा
कि भैया दोनों ही के लग ले, जिसमें सार।
एक दिन
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत उदास बैठा था। मैंने पूछा, मामला क्या है? बड़े मियां,
इतने उदास! क्या पत्नी ने फिर नौकरानी के साथ पकड़ लिया?
उसने कहा
कि आज हद हो गई, आज बात और उलटी हो गई। मैंने कहा, क्या हुआ, इससे और क्या बुरा हो गया?
उसने कहा, आज नौकरानी ने पत्नी के साथ
पकड़ लिया। और पत्नी तो फिर भी थोड़ी सुसंस्कृत है, नौकरानी तो
नौकरानी है। उसने तो इतना हंगामा मचाया कि मुहल्ले भर को इकट्ठा कर दिया।
तुम पूछते
हो जागेश्वर: "ईश्वर को देखे बिना मैं पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं?'
करो ही मत
पूजा। अभी करोगे भी कैसे? और जो भी करोगे झूठी होगी। इस पंचायत में पड़ना क्यों? अभी पूछो कि ईश्वर को कैसे जानो।
इसलिए
मेरा जोर ध्यान पर है, पूजा पर नहीं। क्योंकि ध्यान से ईश्वर जाना जाता है। फिर ईश्वर की जरा भी
पहचान हो जाए तो पूजा तो अपने आप आती है। आती है। न सीखनी पड़ती है, न सिखानी पड़ती है। जैसे बच्चा पैदा होता है तो जानता है कैसे दूध पीए मां
का। कोई सिखाना पड़ता है? अगर छोटे-छोटे बच्चों को मां के पेट
से पैदा हुए, पहले उनको सिखाओ कि बेटा ऐसे-ऐसे दूध पीना,
ऐसे पीओगे तो ही बच पाओगे--तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए। उनको समझाने
में ही महीनों लग जाएं। उस बीच में उनका खात्मा ही हो जाए। वे तो जन्म के साथ ही
दूध पीने की कला लेकर पैदा होते हैं। ऐसे ही ईश्वर के बोध के साथ पूजा अपने आप आती
है। अनुग्रह का भाव आता है।
प्रीतम छवि नैन बसी
ओशो
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