यह जो अनंत अनंत कर्म इकट्ठे कर लिए जाते हैं, इस समाधि
के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।
यह थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि अनेक लोग सोचते हैं कि अगर
कर्म बुरे इकट्ठे हो गए हैं तो अच्छे कर्म करके उनको नष्ट कर दें, वे गलती में हैं। बुरे
कर्मों को अच्छे कर्म करके नष्ट नहीं किया जा सकता। बुरे कर्म बने रहेंगे और अच्छे
कर्म और इकट्ठे हो जाएंगे, बस इतना ही होगा। वे काटते नहीं
हैं एक दूसरे को। काटने का कोई उपाय नहीं है। एक आदमी ने
चोरी की, फिर वह पछताया और साधु हो गया। तो साधु होने से वह
चोरी का कर्म और उसके जो संस्कार उसके भीतर पड़े थे, वे कटते
नहीं हैं। कटने का कोई उपाय नहीं है। साधु होने का अलग कर्म बनता है, अलग रेखा बनती है। चोर की रेखा पर से साधु की रेखा गुजरती ही नहीं है। चोर
से साधु का क्या लेना देना!
आप चोर थे, आपने एक तरह की रेखाएं खींची थीं, आप साधु हुए,
ये रेखाएं उसी स्थान पर नहीं खिंचती हैं जहां चोर की रेखाएं खिंची
थीं। क्योंकि साधु होना मन के दूसरे कोने से होता है, चोर
होना मन के दूसरे कोने से होता है। तो होता क्या है, आपके
चोर होने की रेखा पर साधु होने की रेखाएं और आच्छादित हो जाती हैं, कुछ कटता नहीं। तो चोर के ऊपर साधु सवार हो जाता है, बस। उसका मतलब? चोर साधु,
ऐसा आदमी पैदा होता है। साधुता चोरी को नहीं काट सकती। चोर तो बना
ही रहता है भीतर। इम्पोजीशन हो जाता है। एक और सवारी उसके ऊपर हो गई।
तो चोर भी ठीक था एक लिहाज से और साधु भी ठीक था एक लिहाज से, यह जो चोर और साधु की
खिचड़ी निर्मित होती है, यह भारी उपद्रव है। यह एक सतत आंतरिक
कलह है। क्योंकि वह चोर अपनी कोशिश जारी रखता है, और यह साधु
अपनी कोशिश जारी रखता है।
और हम इस तरह न मालूम कितने कितने रूप अपने भीतर इकट्ठे कर लेते हैं,
जो एक—दूसरे को काटते नहीं, जो पृथक ही निर्मित होते हैं।
इसलिए यह सूत्र कहता है कि समाधि के द्वारा वे सब कट जाते हैं।
कर्म से कर्म नहीं कटता,
अकर्म से कर्म कटता है। इसको ठीक से समझ लें। कर्म से कर्म नहीं
कटता, कर्म से कर्म और भी सघन हो जाता है, अकर्म से कर्म कटता है। और अकर्म समाधि में उपलब्ध होता है, जब कि कर्ता रह ही नहीं जाता। जब हम उस चेतना की स्थिति में पहुंचते हैं
जहां सिर्फ होना ही है, जहां करना बिलकुल नहीं है, जहा करने की कोई लहर भी नहीं उठी है कभी; जहा मात्र
होना, अस्तित्व ही रहा है सदा, जहां
बीइंग है, डूइंग नहीं उस होने के क्षण
में अचानक हमें पता चलता है कि कर्म जो हमने किए थे, वे हमने
किए ही नहीं थे। कुछ कर्म थे जो शरीर ने किए थे शरीर जाने।
कुछ कर्म थे जो मन ने किए थे मन जाने। और हमने कोई कर्म किए
ही नहीं थे।
इस बोध के साथ ही समस्त कर्मों का जाल कट जाता है। आत्मभाव
समस्त कर्मों का कट जाना है। आत्मभाव के खो जाने से ही वहम होता है कि मैंने किया।
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
No comments:
Post a Comment