एक आदमी परदेस गया,
एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता है और न उसकी भाषा ही दूसरे
लोग समझते हैं। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी
से पूछा, यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा,
कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेसी
ने समझा कि किसी 'कैवत्सन' नाम के आदमी
का यह मकान है। उसके मन में बड़ीर् ईष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन था।
इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था!
उसके मन में बड़ीर् ईष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी
ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं।
फिर वह आदमी घूमता हुआ बंदरगाह पर पहुंचा। एक बड़े जहाज से बहुमूल्य
सामान उतारा जा रहा था, कारें उतारी जा रही थीं। उसने पूछा, यह सामान किसका उतर
रहा है? एक आदमी ने कहा, कैवत्सन। उस आदमी
ने कहा, मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं।
उस परदेसी कीर् ईष्या और भी बढ़ गई। जिसका वह भवन था, उसी आदमी की ये बहुमूल्य कारें
भी उतारी जा रही थीं! और वह आदमी था ही नहीं! उसका मन आग से जलने लगा। काश,
वह भी इतना धनी होता! और जब वह रास्ते पर लौटता था--उदास, चिंतित, दुखी,र् ईष्या से भरा हुआ--तो
उसने देखा कि किसी की अरथी जा रही है और हजारों लोग उस अरथी के पीछे हैं। निश्चित ही,
जो आदमी मर गया है वह बड़ा आदमी होगा! उसके मन में अचानक खयाल आया,
कहीं कैवत्सन मर तो नहीं गया है! उसने राह चलते एक आदमी से पूछा कि कौन
मर गया है? उस आदमी ने कहा, कैवत्सन। मैं
समझा नहीं।
उस आदमी ने अपनी छाती पीट ली। निश्चितर् ईष्या हुई थी उस आदमी से।
लेकिन बेचारा मर गया! इतना बड़ा महल! इतनी बढ़िया कारें! इतनी धन-दौलत! वह सब व्यर्थ
पड़ी रह गई! वह आदमी मर गया जो आदमी था ही नहीं!
बहुत बार ऐसी ही हालत मुझे अपने संबंध में मालूम पड़ती है। ऐसा लगता
है कि किसी परदेस में हूं। न आप मेरी भाषा समझते हैं, न मैं आपकी भाषा समझता हूं।
जो कहता हूं, जब आपमें उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है तो बहुत
हैरान हो जाता हूं, क्योंकि वह तो मैंने कभी कहा ही नहीं था!
जब आप कुछ पूछते हैं तो जो मैं समझता हूं कि आपने पूछा है, जब
मैं उत्तर देता हूं और आपकी आंखों में झांकता हूं तो पता चलता है, यह तो आपने पूछा ही नहीं था! एक अजनबी, एक आउटसाइडर,
एक परदेसी की तरह मेरी हालत है।
लेकिन फिर भी कोशिश करता हूं समझाने की वह जो मुझे दिखाई पड़ता है।
नहीं मेरी इच्छा है कि जो मुझे दिखाई पड़ता है उसे आप मान लें; क्योंकि जो आदमी भी किसी से
कहता है कि मेरी बात मान लो, वह आदमी मनुष्य-जाति का दुश्मन है;
क्योंकि जब भी मैं यह कहता हूं कि मेरी बात मान लो तब मैं यह कहता हूं,
मुझे मान लो और अपने को छोड़ दो। और जो भी आदमी किसी से यह कहता है कि
खुद को छोड़ दो और किसी दूसरे को मान लो, वह आदमी लोगों की आत्माओं
की हत्या करता है। जितने लोग दूसरों को मनाने के लिए आतुर हैं वे सारे लोग मनुष्य-जाति
के लिए खतरनाक सिद्ध होते हैं।
मैं नहीं कहता हूं कि मेरी बात मान लो; मानने का कोई सवाल नहीं है।
मैं इतनी ही कोशिश करता हूं कि मेरी बात समझ लो। और समझने के लिए मानना जरूरी नहीं
है। बल्कि जो लोग मान लेते हैं वे समझ नहीं पाते हैं। जो नहीं मानते हैं वे भी नहीं
समझ पाते हैं। क्योंकि मानने और न मानने की जल्दी में समझने की फुर्सत नहीं मिलती है।
जिस आदमी को समझना है उसे मानने और न मानने की आतुरता नहीं दिखानी चाहिए; उसे समझने की ही आतुरता दिखानी चाहिए।
एक एक कदम
ओशो
No comments:
Post a Comment