विचार की प्रक्रिया प्रभु मंदिर के मार्ग पर एक सीमा तक लाकर
छोड़ देती है। और जो विचार में ही रुक जाता है वह दर्शन में भटक जाता है--फिलासफी
में--लेकिन धर्म तक नहीं पहुंच पाता है। जो विश्वास पर रुकता है वह अंधविश्वासों
में भटक जाता है--सुपरस्टीशन में। जो विचार पर रुकता है वह फिलासफीज
में--विचारधाराओं में, भटक जाता है। लेकिन जो विचार से भी आगे चलता है वह वहां पहुंचता है जहां
धर्म का मंदिर है। विचार के संबंध में थोड़ी और बात समझ लेनी उचित है ताकि हम विचार
से ऊपर उठने की बात समझ सकें।
पहली बात तो यह है कि कोई भी विचार कभी मौलिक नहीं होता है।
ओरिजनल विचार जैसी कोई चीज नहीं होती। सब विचार बासे, सांयोगिक होते हैं। विचार
भी सीखे हुए होते हैं। इसलिए विचार के द्वारा हम वही जान सकते हैं जो हम जानते ही
हों। जो हम नहीं जानते हो--जो अननोन हों--अज्ञात हों, वह
विचार के द्वारा नहीं जाना जा सकता। सच तो यह है जो ज्ञात नहीं है, उसका विचार भी नहीं किया जा सकता। हम उसका विचार भी कैसे करेंगे जो ज्ञात
नहीं। जो हम ज्ञात है, हम उसका विचार कर सकते हैं--पक्ष
में--विपक्ष में सोच सकते हैं, लेकिन जो हमें ज्ञात ही नहीं
है वह हमारे विचार का विषय कैसे बनेगा? हम उसे सोचेंगे कैसे?
हम उसका चिंतन कैसे करेंगे, उसका मनन कैसे
करेंगे? आता विचार के बाहर है और परमात्मा अज्ञात है--अननोन
है। इसलिए विचार कोई परमात्मा को कभी नहीं जान सकता है।
दूसरी बात मैंने कही, विचार भी उधार है, वह भी बारोड है। हजार तरफ से विचार की धाराएं हमारे मस्तिष्क की तरफ दौड़ती
है। उन विचारों का एक मेल--ताल-मेल भीतर बैठ जाता है। हो सकता है, ताल-मेल बिलकुल नया मालूम पड़े। लेकिन फिर भी, बहुत
से विचारों का संकट ही होगा। जैसे एक आदमी कहे कि मैंने एक नया विचार किया है,
मैंने एक ऐसे सोने के घोड़े को सोचा है जिसके पंख हैं, और वह आकाश में उड़ता है। निश्चित ही, सोने का घोड़ा
पंखों वाला, आकाश में उड़ता हुआ कभी नहीं हुआ है। यह विचार
बड़ा मौलिक मालूम होता है। लेकिन यह जरा भी मौलिक नहीं है। घोड़े हम जानते हैं। सोना
हम जानते हैं। पंख हम जानते हैं। उड़ना हमने देखा है। इन चार को जोड़ ?कर हम एक सोने का उड़नेवाला घोड़ा बना लेते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है।
इसमें चार पुरानी चीजों को तोड़-मरोड़कर इकट्ठा कर लिया गया है। नए विचार दिखाई ही
पड़ते हैं कि नए हैं। नया विचार नहीं होता है। नया तो निर्विकार ही होता है। मौलिक
विचार नहीं होता है। ओरिजनल विचार नहीं होता। ओरिजनल मौलिक अनुभूति तो निर्विचार
ही होती है। विचार बासा है। उधार है। दूसरों से आया हुआ है। फिर विचार की सामर्थ्य
स्मृति से ज्यादा गहरी नहीं है। वह हमारे प्राणों तक प्रवेश नहीं करता है। हमारी
मेमोरी के पर्दे तक जाता है। आगे नहीं जाता।
मेरे एक मित्र डाक्टर है। ट्रेन से गिर पड़े। चोट खा गयी स्मृति
उनकी। वह सब भूल गए जो जानते थे। डाक्टरी सीखी थी वह सब भूल गए। डाक्टरी तो दूर की
बात हैं, अपना
नाम भूल गए। अपने पिता को भूल गए। दो ही दिन बाद, मैं उन्हें
देखने गया। बचपन से मेरे साथ पढ़े थे--खेले थे--लड़े थे--झगड़े थे। वे मुझे भी भूल
गए। वह मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे किसी अजनबी और अपरिचित ने भी कभी नहीं देखा
होगा। और वह कहने लगे--कौन है आप--और कैसे आए है? और अपने
आसपास के लोगों से पूछने लगे, ये कौन हैं? और उनकी आंखों में कोई स्मरण नहीं है। वह जो स्मृति थी वह खो गयी--वह टूट
गयी। वह जो टेपरेकाडिंग थी स्मृति की वह एकदम से टूट गयी। वह विस्मरण हो गया और
उससे संबंध टूट गया।
वह तो हैं। उनकी चेतना है। उनका प्राण है। उसका सब कुछ है।
लेकिन स्मृति नहीं है। तो विचार गए। स्मृति की गहराई ही हमारे विचार की गहराई है।
विचार प्राणों तक प्रवेश नहीं करता। विचार अस्तित्व तक नहीं जाता। विचार
एक्जिस्टेंस तक, बीइंग तक नहीं पहुंचता। विचार सत्य तक नहीं पहुंचता। हमारे प्राणों से
आस-पास जो स्मृति का, मेमोरी का यंत्र है, उस तक पहुंचता है। बस उससे गहरी उसकी कोई पहुंच नहीं है। हम कितना ही
विचारे, विचार स्मृति से गहरे नहीं जाता।
गुरु प्रताप साध की संगती
ओशो
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