यात्रा का प्रारंभ तो पहले ही से हो चुका है, तुम्हें वह शुरू नहीं करना है।
प्रत्येक व्यक्ति पहले से यात्रा में ही है। हमने अपने आपको यात्रा पथ के मध्य में
ही पाया है। इसकी न तो कोई शुरुआत है और न कोई अंत। यह जीवन ही एक यात्रा है। जो पहली
बात समझ लेने जैसी है वह यह है कि इसे प्रारंभ नहीं करना है, यह हमेशा से ही चली जा रही है। तुम यात्रा ही कर रहे हो। इसे केवल पहचानना
है।
अचेतन रूप से तुम यात्रा में ही हो, इसलिए यह महसूस होता है कि जैसे
मानो तुम्हें उसका प्रारंभ करना है। इसे पहचानो, इसके बारे में
सचेत हो जाओ केवल पहचान ही शुरुआत बन जाती है। जिस क्षण यह पहचान लेते हो, कि तुम हमेशा से ही गतिशील हो, और कहीं जा रहे हो,
जाने— अनजाने इच्छापूर्वक या अनिच्छापूर्वक लेकिन
तुम चले जा रहे हो. कोई महान शक्ति तुम्हारे अंदर निरंतर कार्य कर रही है परमात्मा
ही तुममें खिल रहा है। वह निरंतर तुम्हारे अंदर कुछ न कुछ सृजन कर रहा है, इसलिए ऐसी बात नहीं, कि इसे कैसे शुरू करें। ठीक प्रश्न
तो यह होगा। इसे कैसे पहचानें 7 वह तो यहां है, लेकिन वहां उसकी पहचान न हो सकी है।
उदाहरण के लिए वृक्ष मर जाते हैं लेकिन वे इसे नहीं जानते, पक्षी और पशु मरते हैं,
लेकिन वे यह नहीं जानते। केवल मनुष्य जानता है कि उसे मरना है। यह जानकारी
भी बहुत धुंधली है। साफ नहीं है। और ऐसा ही जीवन के भी साथ है। पक्षी जीवित हैं लेकिन
वे नहीं जानते कि वे जीवित हैं क्योंकि तुम जीवन को कैसे जान सकते हो, जब तक तुम मृत्यु को ही नहीं जानते। तुम कैसे जान सकते हो कि तुम जीवित हो,
यदि तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि तुम मरने जा रहे हो? दोनों पहचानें साथ साथ आती हैं। वे जीवित हैं,
लेकिन उन्हें यह पहचान नहीं है अपने जीवित होने की। मनुष्य को थोड़ी सी
पहचान है कि वह मरने जा रहा है, लेकिन यह पहचान बहुत धुंधली गहरे
धुंवे के पीछे छिपी रहती है। और इसी तरह जीवन के बारे में यह जानने कि जीवित रहने का
अर्थ क्या होता है। यह भी बहुत धुंधला सा है, और स्पष्ट नहीं
है।
जब मैं कहता हूं पहचान,
तो मेरे कहने का अर्थ है ''सजग हो जाना जीवन ऊर्जा के प्रति, कि वह है क्या,
जो इस पथ पर पहले ही से है।’’
अपने स्वयं के अस्तित्व के प्रति सजग होना ही, इस यात्रा का प्रारंभ है और
उस बिंदु पर आना, जहां आकर तुम पूरी तरह होशपूर्ण और सजग हो जाओ,
जहां तुम्हारे चारों ओर अंधकार का कोई छोटा सा टुकड़ा भी न हो,
और यही तुम्हारी यात्रा का अंत है। लेकिन वास्तव में यात्रा न तो कभी
शुरू होती है और न कभी खत्म। तुम्हें उसके बाद भी यात्रा जारी रखनी होगी लेकिन तब यात्रा
का पूरी तरह भिन्न एक अलग अर्थ होगा, पूरी तरह आपके भिन्न गुण
होंगे, वह मात्र एक आनंद होगी, ठीक अभी
तो वह एक पीड़ा के समान है।
इस यात्रा का प्रारंभ कैसे किया जाए? अपने कार्यों के प्रति अधिक
सजग होकर और अपने सम्बन्धों तथा गतिविधियों के बारे में होशपूर्ण होकर। जो कुछ भी तुम
करो यहां तक कि सड़क पर चलने जैसा एक साधारण कार्य भी उसके प्रति भी सजग होने की कोशिश
करो, पूरे होश के साथ अपना एक एक कदम उठाओ।
यात्रा का शुभारंभ कैसे हो? अधिक से अधिक साक्षी बनो, जो कुछ भी तुम करो, उसे गहरी गहरी सजगता के साथ करो तब
छोटीसी चीजें भी पावन बन जाएंगी। तब खाना बनाना और सफाई करना
भी धार्मिक कृत्य बन जायेगा वह तुम्हारा पूजा हो जाएगी। तुम क्या कर रहे हो,
फिर यह प्रश्न न रह कर, प्रश्न यह रह जायेगा कि
तुम कैसे कर रहे हो? तुम एक रोबो की भांति यांत्रिक रूप से भी
फर्श साफ कर सकते हो, तुम्हें उसे साफ करना ही होता है,
इसीलिए तुमने उसे साफ किया। तब तुम किसी सुंदर चीज से चूक गए। तब तुमने
फर्श साफ करने में वे क्षण व्यर्थ गंवाए। फर्श को साफ करना भी एक महान अनुभव बन सकता
था, लेकिन तुम उसे चूक गए। फर्श तो साफ हो गया, लेकिन कुछ चीज जो तुम्हारे अंदर घट सकती थी, नहीं घटी।
यदि तुम होशपूर्ण थे, तो न केवल फर्श की बल्कि तुमने अपने अंदर
गहरे में भी एक निर्मलता और शुचिता का अनुभव किया होगा। फर्श को पूरे होश से भरकर साफ
करो, होश के साथ लेकिन एक चीज धागे से निरंतर जुड़े रहो,
तुम्हारे जीवन के अधिक से अधिक क्षण होश और समझ से भरे हों। प्रत्येक
कृत्य में प्रत्येक क्षण होश की शमा जलती ही रहे।
इन सभी बातों का लगातार बढता संचयी प्रभाव और उनका जोड़ ही बुद्धत्व
है। सभी का प्रभाव, जहां सभी क्षण साथ साथ होते हैं, सभी छोटी छोटी मोमबत्तियां एक साथ जलकर प्रकाश का एक
महान स्रोत बन जाती है।
प्रेम योग
ओशो
No comments:
Post a Comment