जब किसी को हम सोते से जगाते हैं तो उसे पीड़ा होती है, पीछे चाहे धन्यवाद दे कि
धन्यवाद, आभारी हूं कि मुझे जगा दिया। लेकिन जब हम जगाते हैं
तो उसे पीड़ा होती है क्योंकि वह मीठे सपने देख रहा है। पता नहीं सपने में सम्राट
हो। पता नहीं सपने में सुंदर रानियां हों। पता नहीं सपने में सोने के महल हों। पता
नहीं सपनों में स्वर्ग पहुंच गया हो, कल्पवृक्षों के नीचे
बैठा हो। पता नहीं सपनों में कहां की यात्राएं कर रहा हो।...
सपने प्रीतिकर हो सकते हैं। और नींद सुखद हो सकती है। और सुबह—सुबह की नींद तो बड़ी सुखद
होती है। और एक करवट लेकर आदमी सो जाना चाहता है। एक झपकी और। और जब तुम किसी को
जगाते हो सुबह—सुबह तो उसे नाराजगी पैदा होती है। यह भी हो
सकता है कि सांझ तुमसे कहा हो कि सुबह मुझे उठा देना, लेकिन
सुबह जब तुम उठाओगे तो वह कुछ प्रसन्न नहीं होने वाला है, नाराज
ही होगा।
जर्मनी का प्रसिद्ध विचारक हुआ इमेनुअल कांट। वह बड़ा नियमबद्ध
आदमी था, घड़ी के
कांटे की तरह चलता था। कहते हैं लोग उसे जब विश्वविद्यालय जाते देखते थे—विश्वविद्यालय में शिक्षक था—तो लोग अपनी घड़ियां ठीक
कर लेते थे। तीस साल तक निरंतर उसका विश्वविद्यालय जाना ठीक एक—एक क्षण के हिसाब से बंधा हुआ था, लोग उसे देखते और
घड़ी मिला लेते। उसने कभी देर की ही नहीं। वह कभी एक गांव को छोड़कर दूसरे गांव नहीं
गया। एक बार तो विश्वविद्यालय जाते हुए—कीचड़ थी रास्ते में—एक जूता उसका कीचड़ में फंस गया तो उसने उसे निकाला नहीं क्योंकि निकाले तो
मिनट आधा मिनट देर हो जाए; उसे वहीं छोड़ दिया, एक ही जूता पहने हुए विश्वविद्यालय पहुंचा।
पूछा उससे कि दूसरे जूते का क्या हुआ?
तो उसने कहा: वह कीचड़ में उलझ गया; वह लौटते वक्त अगर बचा रहा,
कोई न ले गया तो कोशिश करूंगा, लेकिन अभी देर
हो जाती। आधा मिनट की शायद देर हो जाती।
वह बिलकुल लकीर का फकीर आदमी था। दस बजे सोना तो दस बजे सोता
था। फिर दस बजे अगर मेहमान भी बैठे हों तो उनसे यह भी नहीं कहता था कि भाई, अब मैं सोता हूं। इतनी देर
भी नहीं कर सकता था। मेहमान बैठे रहें वह जल्दी से उचकर अपने बिस्तर में होकर कंबल
ओढ़ ले। लोग जानते थे उसकी आदतें। नौकर आकर कहता था कि अब आप जाइए; वे तो सो गये।
सुबह चार बजे उठता था। एक तो जर्मनी और सुबह चार बजे उठना—भारत हो तो चले—बड़ा मुश्किल काम था। लेकिन नौकर से उसने कह दिया था चाहे मार—पीट भला हो जाए, मैं चाहे गाली दूं, चाहे मारूं, मगर उठाना है चार बजे सो चार बजे उठाना
है। उसके पास नौकर नहीं टिकते थे। सिर्फ एक ही नौकर था मजबूत जो उसके पास टिका। वह
उसके ऊपर निर्भर हो गया था, बिलकुल निर्भर हो गया था।
क्योंकि दूसरा नौकर कौन टिके! एक तो चार बजे नौकर को उठाना तो उसको साढ़े तीन बजे,
तीन बजे उठना पड़े, तैयार होना पड़े, फिर इसको उठाना। और उठाना बड़ी जद्दोजहद की बात क्योंकि वह मारे और
चिल्लाये और उपद्रव करे। और उसी ने कहा है कि उठाना और यह भी कह दिया है कि मारूंगा
भी, चिल्लाऊंगा भी। और अगर तुम्हें भी मुझे मारना पड़े तो
मारना मगर छोड़ना मत, उठाना तो है चार बजे तो चार बजे।
लोग इतनी बड़ी मात्रा में तो लकीर के फकीर नहीं हैं मगर छोटी
मात्राओं में सब लकीर के फकीर हैं। आदतें बना ली हैं। परमात्मा को स्मरण करना भी
तुम्हारी आदत हो सकती है। सत्य के संबंध में प्रश्न पूछना भी आदत हो सकती है।
शास्त्र को पढ़ लेना भी आदत हो सकती है। पूजा,
प्रार्थना, ध्यान कर लेना भी आदत हो सकती है।
और आदत से कोई सत्य तक नहीं पहुंचता। आदत तो यांत्रिकता है। फिर
किसी को शराब पीने की तलब लगती है,
और किसी को सिगरेट पीने की तलब लगती है, और
किसी को भजन करने की तलब लगती है, मगर तलब तो तलब है,
अच्छी और बुरी से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम अगर रोज सुबह उठकर भजन कर
लेते हो और एक दिन न करोगे तो दिन—भर कुछ खाली—खाली लगेगा। उस खाली—खाली लगने को तुम यह मत समझना
कि तुम्हारे जीवन में भजन फलित हो गया है इसलिए खाली—खाली लग
रहा है। वह तो किसी को भी लगता है। तुम कोई भी उपद्रव पकड़ लो—सुबह उठकर कुर्सी को सात दफे बायें से दायें रखना, दायें
से बायें रखाना, यह भी अगर तुम रोज करो और एक दिन न करो तो दिन—भर याद आएगी कि आज कुर्सी को सात दफे उठाया नहीं, रखा
नहीं। फिर चाहे माला फेरो, चाहे मंत्र पढ़ो, कोई अंतर नहीं है।
गुरु प्रताप साध की संगती
ओशो
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