तुम स्वप्न की चिंता न करो, तुम जाग्रत में ही साध लो। जाग्रत में जो सध
जाएगा, वह स्वप्न में अपने आप उतरने लगता है। क्योंकि
तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे जाग्रत की प्रतिध्वनियां हैं। तुमने जाग्रत में जो किया
है, वही स्वप्न में तुम फिर-फिर अनुगूंज सुन लेते हो उसकी।
उसी की प्रतिध्वनि है। स्वप्न कुछ नया तो देता नहीं। स्वप्न भी क्या नया देगा?
दिन भर धन इकट्ठा करते हो,
तो रात रुपये गिनते रहते हो। दिन भर मन में कामवासना तिरती है,
तो रात काम के स्वप्न चलते हैं। जिनके जीवन में भजन है, उनकी निद्रा में भी भजन प्रविष्ट हो जाता है; और
जिनका दिन शांत और शून्य है, उनकी रात भी शांत और शून्य हो
जाती है। रात तो पीछा करती है दिन का; वह दिन की छाया है।
रात को बदलने की फिक्र ही मत करो।
अगर रात के स्वप्नों में कामवासना परेशान करती है, तो यही समझो कि जाग्रत में
कहीं धोखा हो रहा है। इशारा समझो। स्वप्न तो इंगित करते हैं--दिन में भी तुम
जिन्हें समझने से चूक जाते हो, स्वप्न उन्हें स्पष्ट इशारा
कर देते हैं। हो सकता है कि दिन में तुम बड़े साधु बने बैठे होओ। लेकिन वह साधुता
बगुले जैसी है। एक टांग पर खड़ा है! उसको देख कर तो ऐसा ही लगेगा कि कोई तपस्वी है।
और कितना शुभ्र है! अब बगुले से ज्यादा और सफेदी कहां खोजोगे? और कैसा खड़ा है! कौन योगी खड़ा होगा! हिलता भी नहीं! ऐसा बाहर को देख कर मत
भूल में पड़ जाना। भीतर वह मछलियों का चिंतन कर रहा है, भीतर
वह मछलियों की राह देख रहा है। यह सब आसन, यह सब सिद्धासन,
मछलियों की आकांक्षा में साधा है।
खैर बगुला दूसरे को धोखा दे दे, अपने को कैसे धोखा देगा? खुद
तो जानता है कि किसलिए खड़ा है। यह श्वास साधे किसलिए खड़ा है उसे पता है।
लेकिन आदमी बगुले से भी ज्यादा बेईमान है। वह दूसरों को ही धोखा
नहीं देता, दूसरों
को धोखा देते-देते अपने को भी धोखा दे लेता है। जब दूसरे मानने लगते हैं उसकी बात,
तो धीरे-धीरे खुद भी अपनी बात मानने लगता है। तब तुम्हें पता लगेगा
कि तुम्हारे जाग्रत और स्वप्न में विरोध हो गया। तब तुम्हें जाग्रत में तो कोई
कामवासना की तरंग उठती नहीं मालूम होती। क्योंकि तुमने बहुत बुरी तरह दबाया है;
तुम उसकी छाती पर चढ़ बैठे हो; तुम उसे उठने
नहीं देते। नहीं कि वह समाप्त हो गई है; बस तुम उठने नहीं
देते। नहीं कि वह मिट गई है; तुम सिर्फ उसे प्रकट नहीं होने
देते। उसे तुम दबाए हो छाती के कोनों में। रात जब तुम शिथिल हो जाते हो, दबाने वाला सो जाता है, तब जो लहर दिन भर दबाई थी,
वह मुक्त होकर विचरण करने लगती है; वही
तुम्हारे स्वप्न में कामवासना बन जाती है। जिन्होंने दमन किया है, स्वप्न में उसे पाएंगे।
स्वप्न को इशारा समझो;
स्वप्न तुम्हारा मित्र है। वह यही कह रहा है कि दबाने से कुछ भी न
होगा, रात हम प्रकट हो जाएंगे। दिन भर दबाओगे, रात हम फिर मौजूद हो जाएंगे। किसी तरह दूसरों को धोखा दे लोगे, अपने को भी धोखा दे लोगे, लेकिन हमसे छुटकारा ऐसे
नहीं होगा।
अब तुम पूछते हो कि स्वप्न में भी कामवासना से मुक्त होने के
लिए क्या करें?
इससे ऐसा लगता है कि जाग्रत में तो तुम मुक्त हो ही गए हो, अब रह गई है स्वप्न से
मुक्त होने की बात। यहीं भ्रांति है। स्वप्न इतना ही कह रहा है कि जाग्रत में भी
तुम मुक्त नहीं हुए हो। क्योंकि जिस दिन जाग्रत में मुक्त हो जाओगे, उस दिन स्वप्न में कुछ बचता ही नहीं। स्वप्न तो तुम्हारी ही सूक्ष्म कथा
है।
तुम मुझसे यह पूछ रहे हो कि जैसे हमने जाग्रत में दबा लिया, ऐसी कोई तरकीब हमें बता दें
कि स्वप्न में भी दबा लें। फिर तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय न रह जाएगा।
क्योंकि जो दबा है, वह सदा मौजूद रहेगा और कभी न कभी प्रकट
होगा। वह तो धधकता हुआ ज्वालामुखी है। बाहर लपटें न आएं, इससे
क्या होता है! भीतर तो तुम जलोगे और सड़ोगे; भीतर तो तुम
गलोगे। कैंसर की तरह बढ़ेगा रोग; तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल
जाएगा।
नहीं, स्वप्न को समझो। स्वप्न की समझ इतना ही कह रही है कि दिन में तुमने कुछ
चालबाजी की है, दिन में तुमने कुछ धोखा किया है। अब दिन को
अपने समझने की कोशिश करो कि कहां तुम धोखा किए हो? कहां
तुमने दबाया है? और जहां तुमने दबाया हो, वहां उसे उघाड़ो।
मन का एक गहरा सूत्र समझ लो कि जैसे वृक्षों की जड़ें अगर अंधेरी
भूमि में दबी रहें, तो ही अंकुरण जारी रहता है--पत्ते आते हैं, फूल लगते
हैं, फल लगते हैं। अगर तुम वृक्ष की जड़ों को उखाड़ लो भूमि के
बाहर--अंधेरे गर्त के बाहर निकाल लो, रोशनी में रख लो--वृक्ष
मर जाता है। ठीक यही मन का सूत्र है: मन में जो भी रोग हों, उन्हें
निकालो बाहर, रोशनी में लाओ। रोशनी मौत है रोग की।
तुम उलटा करते रहे हो;
और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें उलटा ही समझाते रहे हैं। वे
कहते रहे हैं: और दबा दो! बिलकुल दबा दो; जड़ का पता ही न
चले!
लेकिन जड़ जितनी गहरी जम जाएगी, जितनी गहरी दबा दी जाएगी, उतना ही खतरा हो रहा है; उतना ही तुम्हारे जीवन में
विष फैल जाएगा।
उघाड़ो! अपने को अपनी आंखों के सामने लाओ! छिपो मत, भागो मत जागो! तो दिन में
भी खोदो अपनी जड़ों को। लाओ रोशनी में, देखो।
इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान कोई विधि थोड़े ही है कि तुमने
कर ली और छुटकारा हुआ। ध्यान एक सतत प्रक्रिया है होश की। चौबीस घंटे, उठते, बैठते ध्यान रखो।
भज गोविन्दम मूढ़मते
ओशो
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