दो कारण हैं, एक तो कारण यह है जो मैंने सुबह आपसे कहा, सत्य कोई एक व्यक्ति दूसरे को दे नहीं सकता। इसलिए जिसे उपलब्ध होता है, उसके साथ ही समाप्त हो जाता है। बुद्ध को मिलेगा, बुद्ध के साथ विलीन हो जाएगा। बांटा नहीं जा सकता। दूसरे आदमी को दिया नहीं जा सकता कि मैं मर रहा हूं इस संपत्ति को तुम सम्हालो। उसकी कोई वसीयत नहीं हो सकती। सत्य की कोई वसीयत नहीं हो सकती। इसलिए यह भी हो सकता है कि एक जमाने में सारे लागों को सत्य उपलब्ध हो जाए, तो भी उनके बच्चे असत्य में ही पैदा होंगे। उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह हो सकता है कि एक जमाने में सारे लोगों को सत्य उपलब्ध हो जाए, तो भी बच्चों की पैदाइश से उनके खून में सत्य नहीं होगा। क्योंकि सत्य निजी उपलब्धि है, उसकी वसीयत से कोई संबंध नहीं है। वह कोई मिलता नहीं, वंशाधिकार में नहीं मिलता, एक बात। दूसरी बात, यह खयाल करना कि उनका कोई प्रभाव नहीं है, गलत होगा, उनका बहुत प्रभाव है। सत्य तो उनके कारण आपको नहीं मिलता, लेकिन उनका प्रभाव बहुत है। अगर दस-पांच इतिहास से ऐसे नाम अलग कर दिए जाएं--महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण और क्राइस्ट के तो आप हैरान होंगे, आप कोई दस या पंद्रह या बीस हजार वर्ष पहले जैसा मनुष्य था, वैसे मनुष्य हो जाएंगे।
आपके भीतर बहुत से विकास हुए हैं, जो आपको परिलक्षित नहीं होते। अभी मैं जो बातें कह रहा हूं, क्राइस्ट ने करीब-करीब इस तरह की बातें ढाई से दो हजार वर्ष पहले कहीं थीं। अगर जो बातें मैंने आज आपसे कहीं हैं, वह दो हजार वर्ष पहले कहता तो इसका फल फांसी हो सकती थी। लेकिन आप मुझे फांसी नहीं दे रहे हैं, दो हजार वर्ष पहले इनका फल फांसी के सिवाय कुछ भी नहीं हो सकता था। क्यों? दो हजार साल में ईसा के मरने से कुछ फर्क पड़ा है? कुछ फर्क पड़ा है। लोगों के विचार और समझ ज्यादा उदार हुए हैं। ज्यादा सोचने समझने की और अपनी ही बात को सत्य कहने का आग्रह कम हुआ है। कुछ और बातें विकसित हुई हैं। दुनिया में हमेशा युद्ध होते रहे, यह पहला मौका है कि जमीन पर हजारों ऐसे विचारशील लोग हैं जो सब तरह के युद्धों के खिलाफ हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ था। दुनिया के बड़े-बड़े पुरुष भी पिछले जमानों के युद्धों के खिलाफ नहीं थे। जमाने में बड़ा फर्क आया है, लोगों में समझ बड़ी गहरी हुई है इस अर्थों में। आज जमीन पर जितने समझदार लोग हैं, वे किसी तरह के युद्ध के पक्ष में नही हैं। वे कहते हैं युद्ध मूढ़तापूर्ण है। कैसे ही नारे युद्ध के लिए दिए जाएं, कैसी ही वजह बतलाई जाएं, युद्ध मूर्खतापूर्ण है, लेकिन यह बात आज संभव है, यह बात कभी खयाल में नहीं थी।
आज सारी जमीन पर अनेक-अनेक नये विचारों का क्रमशः मनुष्य की चेतना में प्रवेश हुआ है। दुनिया में किसी भी धर्मग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि संपत्ति इकट्ठी करना पाप है। दुनिया के सारे धर्मग्रंथों में लिखा हैः चोरी करना पाप है। लेकिन किसी ने यह नहीं लिखा कि संपत्ति इकट्ठी करना पाप है। जब कि ऐसे ही समाज में चोरी होती है जिस समाज में संपत्ति इकट्ठी की जाती है। चोरी बाई-प्राॅडक्ट है। जहां लोग संपत्ति इकट्ठी करते हैं उसके परिणाम में चोरी होती है।
लेकिन दुनिया के सारे धर्मग्रंथ कहते हैंः चोरी पाप है, क्योंकि चोरों का कोई मास्टर थीफ, चोरों का कोई पंडित, संन्यासी नहीं हुआ। सब धनिकों के संन्यासी और उनके सब मास्टर थीफ थे। इसलिए संपत्ति को संग्रह करना तो पुण्य का फल है और चोरी करना किसी की सम्पत्ति ले आना पाप है। लेकिन इस जमाने में यह बात समझ में आ गई है कि यह धोखा है। अगर चोरी पाप है तो उससे बड़ा पाप संपत्ति को इकट्ठा करना है। यह क्रमशः दो हजार वर्ष...इसके पीछे महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट का हाथ है। धीरे-धीरे जो चेतना प्रज्वलित हुई है--विचार, चिंतन और विवेक जाग्रत हुआ, उसके परिणाम हुए। आज कोई आदमी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता जोर से कि मुझे जो संपत्ति मिली है, वह मेरे पुण्य का फल है। हालांकि आज से हमेशा पिछले दिनों में यही कहा जाता रहा। जो दरिद्र है वह अपने पाप की वजह से दरिद्र है, और जिसके पास धन है वह अपने पुण्य की वजह से है। आज तो हम समझते हैं बात उलटी है। जो जितना पाप करता है, उतना उसके पास धन है, और जो जितना पुण्य के साथ खड़ा होगा, उतना दरिद्र हो जाएगा।
लोगों के मस्तिष्क खुले हैं। उनके खुलने में उनकी हथौड़ियां, उनकी चोटें हैं। और काफी उन्होंने चोटें की हैं। अपनी-अपनी हैसियत से संतों ने सत्पुरुषों ने बड़ी चोटें की हैं मनुष्य के मस्तिष्क पर। और कुछ परिणाम हुए हैं। हम आज किसी भी स्थिति में जो भी दिखाई पड़ते हैं, उसमें उनका हाथ है। हां, लेकिन कोई सत्य कोई किसी को नहीं दे सकता। चेतना का परिष्कार, बौद्धिक विकास, बोध ये सारे के सारे फलित होते हैं क्रमशः, लेकिन सत्य को कोई सीधा किसी को नहीं दे सकता। वह तो स्वयं को ही अपनी ही साधना से पाना होता है। इसलिए सत्य तो भला न हो, लेकिन सत्य को पाने के लिए जो बौद्धिक क्षमता चाहिए वह आपकी विकसित हुई है। आप आगे गए हैं, आज एक झाड़ के पास खड़े होकर आपको नमस्कार करते हुए थोड़ा संकोच होता है। आज एक नदी में जाकर प्रणाम करके कुछ पैसा चढ़ाने में संकोच होता है। जो और थोड़े विचारशील हैं, पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुकाने में उन्हें थोड़ी सी झिझक होती है। यह हम क्या कर रहे हैं? इसमें चोटें हैं इन लोगों की। इन्होंने आपको मुक्त करने की कोशिश की है।
मैं सुबह ही आज कह रहा था, नानक वहां काबा गए। और रात जब वह सोए तो काबा का जो पुरोहित था, उसने आकर कहा कि महानुभव अपने पैर उस तरफ कर लें, यहां काबा का पवित्र पत्थर है, परमात्मा की तरफ पैर किए हुए हैं। नानक ने कहाः मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। ये चोटें हैं। ये चोट है इस बात की जब आप एक मंदिर की मूर्ति के सामने सिर झुका रहे हैं, तो स्मरण रखें कि अगर परमात्मा को उस मूर्ति में समझ लिया तो आप गलती में हैं। अगर परमात्मा का बोध होगा तो वह सब तरफ व्याप्त है। तो अगर प्रणाम करना है तो कोई एक दिशा में करना गलती होगी। और अगर प्रणाम करना है तो किसी एक को करना गलत होगा। अगर प्रणाम करना है तो वह केवल एक भाव की अवस्था हो सकती है जो समस्त के प्रति समर्पित हो। क्रमशः चोटें की गईं। अब यह नानक की चोट इसके पीछे है। यह इसके पीछे है। सारी इस भांति क्रमशः मनुष्य की चेतना पर जो-जो प्रहार हुए हैं, उनसे विकास हुआ है। विकास को झुठलाया नहीं जा सकता है।
लेकिन सत्य की उपलब्धि निजी बात है, विकास सामूहिक घटना है। लेकिन सत्य को प्रत्येक व्यक्ति अपने ही श्रम से पाता है। इसलिए कोई वसीयत में सत्य नहीं मिल सकता है। कोई यह नहीं कह सकता है कि हम महावीर और बुद्ध, और राम और कृष्ण के वंशज हैं इसलिए हमको तो सत्य मिला ही हुआ है। और यह भ्रम है, यह भूल है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह समझते हैं कि हम तो राम-कृष्ण के वंशज हैं, हम को तो सत्य मिला ही हुआ है। किसी को नहीं मिलता, और सत्य अगर इतनी क्षुद्र चीज हो, जो पैदाइश से और वंशज होने से मिलती हो तो उसका कोई मूल्य भी नहीं रह जाएगा। फिर कोई सामथ्र्यवान, कोई अपनी व्यक्तित्व की गरिमा को मानने वाला व्यक्ति ऐसे सत्य की तलाश भी नहीं करेगा। सत्य की तलाश एकदम निजी खोज है। निजी उपलब्धि है।
जीवन की कला
ओशो
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