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Friday, August 31, 2018

कई मित्रों ने पूछा है कि हम क्या करें, थोड़ी-बहुत देर के लिए समय निकाल सकते हैं, समय ज्यादा हमारे पास नहीं है, तो हम क्या करें--मंत्र-जाप करें, नाप जपें, पूजा करें, थोड़ा-बहुत समय दे सकते हैं उसमें हम क्या करें?




मैं निवेदन करना चाहूंगा, धर्म कोई ऐसी बात नहीं कि आप थोड़े से समय में कर लें और उससे निपट जाएं। धर्म चैबीस घंटे की साधना है। और इस बात से बहुत भ्रांति दुनिया में पैदा हुई है कि कोई सोचे कि हम थोड़ी देर को धार्मिक हो जाएं। धार्मिक होना चैबीस घंटे चलने वाली श्वासों की तरह है। ऐसा नहीं कि आप आधा घंटा श्वास ले लें, फिर साढ़े तेईस घंटा श्वास लेने की कोई जरूरत न रह जाए। धर्म एक अखंड चित्त की दशा है। खंडित नहीं। कोई कंपार्टमेंट नहीं बनाए जा सकते कि आधा घंटे को मंदिर में जाकर मैं धार्मिक हो जाऊंगा। यह असंभव है, यह बिलकुल इंपासिबल है। जो आदमी मंदिर के बाहर अधार्मिक था और मंदिर के बाहर फिर अधार्मिक हो जाएगा। आधा घंटे को मंदिर के भीतर धार्मिक हो सकता है?


चित्त एक अविच्छिन्न प्रवाह है, एक कंटीन्युटी है। कहीं ऐसा हो सकता है क्या कि गंगा काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाए, पहले अपवित्र रही हो? फिर काशी का घाट निकल जाए, फिर आगे अपवित्र हो जाए। सिर्फ बीच में पवित्र हो जाए? गंगा एक सातत्य, कंटीन्युटी है। अगर गंगा काशी के घाट पर पवित्र होगी तो तभी होगी जब पहले भी पवित्र हो। अगर गंगा काशी के घाट पर पवित्र हो गई, तो आगे भी पवित्र रहेगी।


मैंने सुना है, एक आदमी अपनी मृत्युशय्या पर था। अंतिम घड़ी थी उसकी। परिवार के मित्र, परिवार के लोग, पुत्र, पुत्रवधुएं, उसकी पत्नी, सब इकट्ठे थे। संध्या के करीब उसने आंख खोली, सूरज ढल गया था और अभी घर के दीये न जले थे, अंधेरा था, उसने आंख खोली और अपनी पत्नी से पूछाः मेरा बड़ा लड़का कहां है? उसकी पत्नी को बड़ा आनंद हुआ। जीवन में उसने कभी किसी को नहीं पूछा था। जीवन में पैसा और पैसा और पैसा। प्रेम की कभी कोई बात उससे न उठी थी। शायद मृत्यु के क्षण में प्रेम का स्मरण आया है। पत्नी बहुत प्रसन्न थी, उसने कहाः निशिं्चत रहें, आपका बड़ा लड़का बगल में बैठा हुआ है, अंधेरे में आपको दिखता नहीं, बड़ा लड़का मौजूद है, आप निशिं्चत आराम से लेटे रहें। लेकिन उसने पूछा, और उससे छोटा लड़का? पत्नी तो बहुत अनुगृहीत हो आई। कभी उसने पूछा नहीं था। जो पैसे के पीछे है, जो महत्वाकांक्षी है उसके जीवन में प्रेम की कभी भी कोई सुगंध नहीं होती, हो भी नहीं सकती। उसने कभी न पूछा था, कौन कहां है! उसे फुर्सत कहां थी! पत्नी ने कहाः छोटा लड़का भी मौजूद है। उसने पूछाः और उससे छोटा? पांच उसके लड़के थे। अंतिम पांचवां? उसकी पत्नी ने कहाः वह भी आपके पैरों के पास बैठा है। सब मौजूद हैं, आप निश्चिंत सो रहें। वह आदमी उठ कर बैठ गया, उसने कहाः इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?


वह पांच लड़कों की फिकर में नहीं था। पत्नी भूल में थी। जीवन भर जिसके मन में पैसा रहा हो, अंतिम क्षण में प्रेम आ सकता है? पत्नी गलत थी, भूल हो गई थी। वह इस चिंता में था कि दुकान पर कोई मौजूद है या कि सब यहीं बैठे हुए हैं? यह मरते क्षण में भी उसके चित्त में वही धारा चल रही थी जो जीवन भर चली थी। यह स्वाभाविक है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जीवन भर जो चला है वही तो चलेगा। तो इस भूल में कोई न रहे कि मैं थोड़ी देर मंदिर हो आता हूं तो धार्मिक हो जाऊंगा। जिसे धार्मिक होना है उसे अपने चित्त की पूरी धारा को बदलने के लिए तैयार होना होगा। ये धोखा देने के ढंग हैं, ये सब सेल्फ-डिसेप्शन हैं कि हम मंदिर हो आते हैं इसलिए धार्मिक हो गए, अपने को धोखा देने की तरकीबों से यह ज्यादा नहीं है। कि हम चंदन लगाते हैं तो धार्मिक हो गए। कि हम यज्ञोपवीत पहनते हैं तो हम धार्मिक हो गए। हद्द बेवकूफियां हैं। इस तरह कोई धार्मिक हो सकता तो हमने दुनिया को कभी का धार्मिक बना लिया होता। इस तरह कोई न कभी धार्मिक हुआ है और न हो सकता है। लेकिन जो अपने को धार्मिक होने का धोखा देना चाहता हो, इन तरकीबों से बड़ी आसानी से धोखा पैदा हो जाता है।


धार्मिक होना एक अखंड क्रांति है। पूरे जीवन को, चित्त को, टोटल माइंड को, समग्र मन को बदलना होगा। और उस बदलने के सूत्र समझने होंगे। एक-एक क्षण, एक-एक घड़ी सजग होकर मन को बदलने में संलग्न होना होगा। और इसके लिए अलग से समय की कोई भी जरूरत नहीं है।

 
आप जो भी करते हैं--उठते हैं, बैठते हैं, भोजन करते हैं, नौकरी करते हैं, रास्ते पर चलते हैं, रात सोते हैं, आप जो भी करते हैं, आपका जो भी व्यवहार है, आपका जो भी संबंध है, सारा जीवन एक इंटररिलेशनशिप, एक अंतर्संबंध है। चैबीस घंटे हम कुछ न कुछ कर रहे हैं--धर्म के लिए अलग से समय खोजने की जरूरत नहीं है। यह जो भी आप कर रहे हैं, अगर शांत, जागरूक चित्त से करने लगें तो आपके जीवन में धर्म का आगमन हो जाएगा। आप जो भी कर रहे हैं, अगर शांत, जागरूक हो कर करने लगें तो।



जीवन दर्शन 


ओशो

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