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Friday, August 31, 2018

मैं मनुष्य को यंत्र क्यों कह रहा हूं?




एक छोटी सी कहानी से आपको यह समझाना चाहूंगा।


एक सुबह एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। उन्होंने उस गांव के लोगों को समझाना शुरू किया; सामने ही एक व्यक्ति बैठ कर अपने पैर का अंगूठा हिलाए जा रहा था, बुद्ध ने बोलना बंद करके उस व्यक्ति को कहाः मेरे मित्र, तुम्हारा अंगूठा क्यों हिलता है? तुम्हारा यह पैर क्यों हिलता है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, यह पूछा कि तुम्हारा पैर क्यों हिलता है, उसके पैर का हिलना बंद हो गया। और उस व्यक्ति ने कहा, जहां तक मेरा सवाल है, मुझे इसका स्मरण भी नहीं था कि मेरा पैर हिल रहा है! आपने कहा, मुझे स्मरण आया और मेरा पैर रुक गया।


मुझे खयाल भी नहीं था, बोध भी नहीं था कि मेरा पैर हिल रहा है। बुद्ध ने कहा, तुम्हारा पैर है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं? तो तुम आदमी हो या यंत्र हो?


यंत्र हम उसे कहते हैं, जिसे अपनी गति का कोई बोध नहीं है। यंत्र हम उसे कहते हैं, जिसे अपनी गति का कोई बोध नहीं है। उसमें गति हो रही है, लेकिन उसे कुछ पता नहीं है। उसे कोई होश नहीं है, उस गति का। मनुष्य को मैंने यंत्र कहा इसलिए कि जो कुछ हममें हो रहा है न तो हमें उसका पता है कि वह क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है, और न ही हम उसके मालिक हैं कि हम चाहें तो वह हो, और हम चाहें तो वह न हो। कोई भी यंत्र अपना मालिक नहीं होता। आदमी भी अपना मालिक नहीं है। इसलिए उसे मैंने यंत्र कहा। आपके भीतर जब भय पैदा होता है, फीयर पैदा होता है, तब आप उसे पैदा करते हैं? या कि आप उसके मालिक होते हैं? या कि आप चाहें तो उसे पैदा न होने दें? या जब आप चाहें तब भय को पैदा कर लें? कुछ भी आपके हाथ में नहीं है। आप अपने ही हाथ में नहीं हैं। कितनी बार नहीं ऐसा मौका आता है कि हम कहते हैं, मेरे बावजूद यह हो गया, इंस्पाइट ऑफ मी। कितनी बार नहीं हम यह कहते हैं कि मैं तो नहीं चाहता था, फिर भी यह हो गया। अगर आप ही नहीं चाहते थे और आपके भीतर कुछ हो जाता है, इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ आप अपने मालिक नहीं हैं। 


कोई यंत्र अपना मालिक नहीं होता। लेकिन मनुष्य तो अपना मालिक होगा। उसके जीवन में, उसके विचार में, उसके भाव में, वह स्वामी होगा, उसका अधिकार होगा। और यह स्वामित्व, यह मालकियत तभी उपलब्ध हो सकती है, जब उसे अपने जीवन की सारी क्रियाओं का बोध हो, अवेयरनेस हो। वह उसे जानता हो, पहचानता हो। न तो हम पहचानते हैं और न हम मालिक हैं।


जीवन में हमारे भय, क्रोध, घृणा, हिंसा, प्रेम वे सब घटित हो रहे हैं, उन पर हमारा कोई काबू नहीं है। उनके प्रति काबू होना दूर हमें कोई होश भी नहीं है कि क्या हो रहा है? इसलिए मैंने कहा कि मनुष्य एक यंत्र है। लेकिन यह इसलिए नहीं कहा कि मनुष्य एक यंत्र है, तो बात समाप्त हो जाए, यहां बात समाप्त नहीं होती, यहीं बात शुरू होती है।

मनुष्य यंत्र है, यह इसीलिए कह रहा हूं आपसे, किसी मशीन से जाकर यह नहीं कहता हूं कि मशीन! तुम मशीन हो। किसी यंत्र से भी जाकर नहीं कहता हूं कि यंत्र! तुम यंत्र हो। मनुष्य से यह कहा जा सकता है कि तुम यंत्र हो। क्योंकि मनुष्य यदि इस सत्य को समझ ले, तो यंत्र होने के ऊपर भी उठ सकता है। मनुष्य के भीतर यह संभावना है कि वह एक सचेतन आत्मा और व्यक्तित्व बन जाए। लेकिन यह एक संभावना है, यह एक सच्चाई नहीं है। यह हो सकता है, लेकिन यह है नहीं। एक बीज की यह संभावना होती है कि वह वृक्ष बन जाए, लेकिन बीज वृक्ष नहीं है। और अगर कोई बीज भूल से यह समझ ले कि मैं वृक्ष हूं तो फिर वह कभी वृक्ष नहीं बन सकेगा, उसकी संभावना भी समाप्त हो जाएगी। एक बीज को यह जानना ही चाहिए कि मैं बीज हूं, और वृक्ष नहीं। और इस बात को जानने के साथ ही, इस संभावना के द्वार भी खुल सकते हैं कि वह वृक्ष हो जाए।

क्या मनुष्य यंत्र है?

ओशो

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