भारत कभी अमीर था तो अध्यात्मवादी था। पूरा देश नहीं सही, तो जो भी अमीर थे, वे अध्यात्मवादी थे। फिर अब देश गरीब है तो भौतिकवादी होगा। अमेरिका में
अब धन इतना बढ़ गया, उस अति पर पहुंच गया कि अब त्याग का
विचार करना जरूरी हो गया। अब वे त्याग का विचार कर रहे हैं। अब धर्म की बड़ी
प्रभावना है, धर्म पर बड़ा चिंतन है। यह भी पूरब-पश्चिम
अतियां डोलती रहती हैं।
और साधारणतया व्यक्ति भी कभी मध्य में नहीं ठहरता। और जो
व्यक्ति मध्य में नहीं ठहरता, उसको कभी भी समझ पैदा नहीं होगी। और जिसको समझ पैदा नहीं होगी, वह व्यक्ति सब तरह की अराजकताओं, दुखों, कठोरताओं, क्रूरताओं को जन्म देने वाला होगा।
क्योंकि उसकी नासमझी और कुछ कर ही नहीं सकती। और नासमझी में जो भी किया जाएगा,
चाहे वह किसी के हित के खयाल से ही क्यों न किया जाए, वह भी अहित ही करने वाला होगा। मैं हित में करता हूं या अहित में, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। मैं समझ में करता हूं, या
नासमझी में, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नासमझी में किया गया हित
भी अहित लाता है। और समझपूर्वक तो अहित किया नहीं जा सकता। इसलिए जो भी किया जाता
है, वह हितपूर्ण हो जाता है।
यह भी ठीक है कि मनुष्य के जीवन में जितनी क्रूरताएं, जितनी कठोरताएं, जितनी हिंसा दिखाई पड़ती है, वह उसकी समझ के अभाव का
ही परिणाम है। और इसीलिए हम किसी आदमी की कठोरता को नहीं बदल सकते हैं। अगर उसको
हम समझ ला सकें तो उसकी कठोरता विदा हो जाएगी। इसलिए किसी कठोर आदमी को अहिंसा का
उपदेश देने से वह आदमी अहिंसक नहीं हो सकता। हां, हो सकता है
कि वह कठोर आदमी अहिंसक हो जाए, दिखाई पड़ने लगे; लेकिन अब सिर्फ इतना ही फर्क पड़ेगा कि जो हिंसा वह दूसरों के साथ कर रहा
था, वह हिंसा वह अपने साथ शुरू कर देगा। वह एक अति दूसरे को
दुख देने से दूसरी अति पर आ जाएगा, अपने को दुख देना शुरू कर
देगा। कल वह दूसरे के शरीरों को काट रहा था, अब वह अपने शरीर
को काटेगा और मारेगा। लेकिन अहिंसक वह नहीं हो पाएगा। इसीलिए मेरा कहना है कि
हिंसक को अहिंसा के उपदेश की जरूरत नहीं है। हिंसक को ऐसे चित्त की जरूरत है कि वह
मध्य में खड़े होकर देख सके; तब वह अपने आप अहिंसक हो जाएगा।
जितने विरोध हैं जगत में,
जितने संप्रदाय हैं, जितने पंथ हैं--ये सब
अतियों से पैदा हुए हैं। अगर मनुष्य में समझ गहरी हो, साफ हो
तो दुनिया में कोई पंथ नहीं होगा, क्योंकि कोई अति नहीं
होगी।
शिक्षा में क्रांति
ओशो
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