श्री राजशेखर नंबियार ने पूछा है,
अब इनको शाकाहार में अड़चन मालूम हो रही है! क्योंकि ये कहते हैं, "शास्त्र कहते हैं कि
जीव ही जीव का आहार है।'
शास्त्र जरूर मगरमच्छों ने लिखे होंगे। छोटी मछलियों से तो पूछो
कि छोटी मछलियां क्या कहती हैं! ये बड़े मच्छों ने लिखे होंगे। मगरमच्छ! ऋषि-मुनि!
क्या-क्या गजब की बातें कह गए! मगर बेचारी छोटी मछली से तो पूछो।
आदमी अजीब है। अगर तुम शेर को मारो तो इसको कहते हैं--शिकार, क्रीड़ा, खेल। अरे लीला कर रहे हैं! और शेर तुम्हें खा जाए तो दुर्घटना। क्यों भाई,
क्या गड़बड़ हो गई? अरे जीव तो जीव का आहार है।
शेरों से तो पूछो, सिंहों से पूछो। अगर जीव जीव का आहार है
तो आदमी को खाने दो, मजे से खाने दो, बेचारे
कोई बुरा नहीं कर रहे हैं। और अगर जीव जीव का आहार है तो आदमी आदमी को खाए,
इसमें अड़चन क्या है? फिर तो जो आदमखोर हैं वे
सच्चे पवित्र लोग हैं। जब जीव जीव का आहार है और मछली मछली को खा रही है, तो आदमी आदमी को खा रहा है। अरे बड़ा आदमी छोटे को खा जाए, और क्या? बूढ़ा बच्चे को खा जाए, और क्या करोगे! कि बड़ा नेता है तो चमचे को ही खा जाए। जो मिल जाए उसको खा
जाए, जो जिसके कब्जे में आ जाए।
मैं शाकाहार को तरजीह देता हूं, निश्चित ही तरजीह देता हूं। क्योंकि जो शास्त्र
कहते हैं कि जीव जीव का आहार है वे शास्त्र गलत लोगों ने लिखे होंगे। वे शास्त्र
बेईमानों ने लिखे होंगे। वे उन्होंने लिखे होंगे जो हिंसा को तरजीह देना चाहते थे,
जो मांस की लोलुपता नहीं छोड़ पाते थे। और यह सच है कि मांस
स्वादिष्ट होता है, ऐसा मांसाहारियों का कहना है। श्रुति है,
मैंने चखा नहीं। मगर श्रुति प्रमाण है! और श्रुति के विपरीत जो है
वह तो प्रमाण है ही नहीं! ऐसा मैंने सुना। मेरे पास बहुत-से मांसाहारी हैं। मेरे
पास तो नब्बे प्रतिशत मांसाहारी हैं। मेरे भोजन ही जो बनाते हैं वे भी मांसाहारी
हैं।
विवेक मुझसे कहती है कि मांसाहार स्वादिष्ट होता है, लेकिन अब मैं कल्पना भी
नहीं कर सकती कि कैसे इतने दिन तक मांसाहार करती रही! कभी सोचा ही नहीं, कभी विचार ही न उठा। पश्चिम में मांसाहारी घर में कोई पैदा होता है,
बचपन से ही मांसाहार शुरू कर देता है; जैसे हम
शाकाहार शुरू करते हैं, वह मांसाहार शुरू करता है। सवाल ही
नहीं उठता। यह तो उसे यहां आकर...अब वह कहती है कि मुझे अगर मांसाहार करना पड़े तो
असंभव। वमन हो जाएगा। देखते ही से वमन हो जाएगा। क्योंकि यह बात ही सोचने जैसी
नहीं है कि आदमी और जीवन को नष्ट करे, अपने स्वाद के लिए।
और अगर स्वाद की ही बात हो तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। ईदी
अमीन बच्चों का मांस खाता रहा,
क्योंकि जब ईदी अमीन भागा अपनी राजधानी को छोड़ कर तो उसके फ्रीज में
छोटे बच्चों का मांस पाया गया। और उसकी राजधानी में रोज बच्चे चुराए जाते थे और
ईदी अमीन की पुलिस जांच-पड़ताल करती थी कि बच्चे कहां गए। और बच्चे जाते थे ईदी
अमीन के फ्रीज में। तो पकड़ें उनको कैसे? पकड़े कैसे जा सकते
थे? राष्ट्रपति। लेकिन ईदी अमीन ने बाद में स्वीकार किया कि
कोई कुछ भी कहे, लेकिन छोटे बच्चों का मांस जितना स्वादिष्ट
होता है इतनी स्वादिष्ट चीज दुनिया में कोई और होती ही नहीं।
श्रुति है तो ठीक ही होगी। अनुभवी आदमी है वह, वह ठीक कह रहा है। उसको मैं
गलत भी नहीं कह सकता। स्वाद के लिहाज से वह ठीक ही कह रहा होगा। स्वाद के संबंध में
मुझे एतराज भी नहीं है। मगर स्वाद के लिए क्या बच्चों को काटोगे? स्वाद के लिए क्या जानवरों को काटोगे? स्वाद का
कितना मूल्य है? स्वाद है ही क्या? तुम्हारी
जीभ पर थोड़े-से दाने हैं जो स्वाद को अनुभव करते हैं, जरा-सी
सर्जरी से उनको अलग किया जा सकता है। एक जीभ की छोटी-सी पर्त चमड़ी की अलग कर दी
जाए और सब स्वाद समाप्त हो जाएगा।
दूसरे महायुद्ध में यूं हुआ कि एक आदमी के इस तरह के घाव पहुंचे
युद्ध में कि उसके गले और शरीर का संबंध टूट गया, भीतर से संबंध टूट गया। तो वह भोजन न कर सके।
क्योंकि जो भोजन को ले जाने वाली शृंखला है वही टूट गई। तो पहली दफे यह प्रयोग
किया गया कि उसके पेट में सीधी ही आपरेशन करके एक नली जोड़ दी गई--रबर की एक नली
जोड़ दी गई। वह उसी में चाय डाल दे; कोकाकोला पिला दे। उसी
नली में डाल दे, वह सीधा पेट में पहुंच जाए। मगर उसे मजा न
आए। क्योंकि मजा कैसे आए? कोकाकोला तो पिला दे, मगर स्वाद तो मिले नहीं। उसने डाक्टरों से कहा कि इसमें कुछ मजा ही नहीं
आता। मतलब स्वाद तो मुझे मिलता ही नहीं। तब एक तरकीब खोजी गई कि पहले वह कोकाकोला
मुंह में ले, थोड़ा बुलबुलाए, फिर नली
में बुलक दे, तो स्वाद भी ले ले और पेट में भी चला जाए। वह
यही करता रहा जिंदगी भर, जब तक जिंदा रहा। उन्नीस सौ साठ तक
वह आदमी जिंदा था। युद्ध के बाद कोई पंद्रह साल जिंदा रहा। वह यही करता रहा। पहले
मुंह में बुलबुलाए।
अब तुमको लगेगी बड़ी हैरानी की बात कि यह भी क्या गधा-पच्चीसी
है। मगर यही तुम कर रहे हो; नली भीतर है, उसकी बाहर थी। बस इतना ही फर्क है।
आइसक्रीम पहले मुंह में ले, पहले मुंह में मजा ले ले स्वाद
का और फिर अपनी नली में बुलक दे।
तुम भी यही कर रहे हो;
गले के नीचे उतरने के बाद स्वाद का तुम्हें कुछ पता चलता है?
जरा-सी जीभ पर स्वाद है। और जीभ भी पूरी हर चीज का स्वाद नहीं लेती,
जीभ के भी अलग-अलग हिस्से हैं। कोई हिस्सा कड़वेपन का स्वाद लेता है,
कोई हिस्सा मीठेपन का स्वाद लेता है, कोई
हिस्सा नमकीन का स्वाद लेता है। अलग-अलग हिस्से हैं। इसलिए तुमने अगर खयाल किया हो,
जब तुम कड़वी दवा लेते हो, तो तुम उसे
हमेशा--जानते होओ या न जानते होओ--हमेशा जीभ के मध्य में रखते हो। और एकदम से पानी
पीकर उसको गटक जाते हो, क्योंकि जीभ का आखिरी हिस्सा कड़वेपन
का स्वाद लेता है; वहां अगर छू गई वह गोली तो कड़वेपन का पता
चलेगा, नहीं तो पता ही नहीं चलेगा। जहर पी जाओ, पता न चलेगा।
इतने-से स्वाद के लिए जीवन को नष्ट करोगे? और शास्त्रों की सहायता तो
हर चीज में ली जा सकती है। अब पुराने शास्त्र कहते हैं कि जीव ही जीव का आधार है,
वही उनका आहार है। तो ऐसे शास्त्र शास्त्र नहीं हैं। ऐसे शास्त्र
बेईमानों ने लिखे हैं। ऐसे शास्त्र उन्होंने लिखे हैं जो जीव का आहार करना चाहते
हैं।
अगर ईदी अमीन शास्त्र लिखें तो वे लिखेंगे छोटे बच्चों का आहार, इसके बिना तो जीवन में
स्वाद ही नहीं है, आनंद ही नहीं है। अरे जब स्वाद ही नहीं है
तो क्या जीवन में आनंद? तो क्या इनकी मान कर चलोगे, छोटे बच्चों की हत्या करोगे, क्या करोगे?
मगर जैसा जीवन तुम्हें प्यारा है, और पशुओं को भी प्यारा है। न तुम चाहोगे कि
तुम्हारे ऊपर कोई भेड़िया हमला कर दे और खा जाए। तो तुम भी थोड़ा जो अपने साथ नहीं
चाहते हो कि हो, वह दूसरों के साथ भी न करो।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: जो तुम नहीं चाहते कि दूसरे तुम्हारे
साथ करें वह तुम उनके साथ भी न करो।
बस इतनी-सी ही तो बात है शाकाहार के पीछे, इतनी ही। मगर इतनी बात जीवन
में क्रांति ले आती है।
सहज आसिकी नाहीं
ओशो
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