ध्यान का अर्थ होता है अखंड हो जाओ; एक चैतन्य हो जाओ। और उस एक
चैतन्य के लिए जरूरी है कि तुम अपने जीवन से यांत्रिकता छोड़ो। यंत्र तो नहीं छोड़े
जा सकते, यह पक्का है। अब कोई उपाय नहीं है। अब लौटने की कोई
जगह नहीं है। अब तुम चाहो लाख कि हवाई जहाज न हो, लोग फिर
बैलगाड़ी में चलें—यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि रेडियो न
हो, यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि बिजली न हो, यह नहीं होगा। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन मनुष्य यांत्रिक न हो, यह हो सकता है।
और अब तक तो खतरा न था,
अब खतरा पैदा हुआ है। यंत्रों से बुद्ध के जमाने का आदमी नहीं घिरा
था, तो भी बुद्ध ने अमूर्च्छा सिखायी है, विवेक सिखाया है, जागृति सिखायी है, होश सिखाया है। और आज तो और अड़चन बहुत हो गई है। आज तो एक ही बात सिखाई
जानी चाहिए—मूर्च्छा छोड़ो, होशपूर्वक
जियो। जो भी करो, इतनी सजगता से करो कि तुम्हारा कृत्य मशीन
का कृत्य न हो। तुम में और मशीन में इतना ही फर्क है अब कि तुम होशपूर्वक करोगे,
मशीन का किसी होश की जरूरत नहीं है। अगर तुम में भी होश नहीं है तो
तुम भी मशीन हो।
पुराने समय के ज्ञानियों ने मनुष्य को चौंकाया था, बार—बार
एक बात कही थी, कल दरिया ने भी कही—कि
देखो, आदमी रहना, पशु मत हो जाना! आज
खतरा और बड़ा हो गया है। आज खतरा है कि देखो, देखा आदमी रहना,
यंत्र मत हो जाना। यह पशुओं से भी ज्यादा बड़ा पतन है। क्योंकि पशु
फिर भी जीवंत हैं। पशु फिर भी यंत्र नहीं हैं। बुद्धों ने नहीं कहा है कि यंत्र मत
हो जाना, क्योंकि यंत्र नहीं थे।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि खतरा बहुत बढ़ गया है। खाई और
गहरी हो गई है। पहले पुराने जमाने में गिरते तुम तो बहुत से बहुत पशु हो जाते, लेकिन अब गिरोगे तो यंत्र
हो जाओगे। और यंत्र से नीचे गिरने का और कोई उपाय नहीं है। और यंत्र से बचने की ही
औषधि है: जागे हुए जीयो। चलो तो होशपूर्वक बैठो तो होशपूर्वक, सुनो तो होशपूर्वक, बोलो तो होशपूर्वक। चौबीस घंट
जितना बन सके उतना होश साधो। हर काम होशपूर्वक करो। छोटे—छोटे
काम, क्योंकि सवाल काम का नहीं है। सवाल तो होश के लिए नए—नए अवसर खोजने का है। स्नान कर रहे हो, और तो कुछ
काम नहीं है, होशपूर्वक ही करो। फव्वारे के नीचे बैठे हो,
होशपूर्वक, जागे हुए, एक—एक बूंद को अनुभव करते हुए बैठा। भोजन कर रहे हो, जागे
हुए।
लोग कहां भोजन कर रहे हैं जागे हुए! गटके जाते हैं। न स्वाद का
पता है, न चबाने
का पता है, न पचाने का पता है—गटके
जाते हैं। पानी भी पीते हैं तो गटक गए। उसकी शीतलता भी अनुभव करो। तृप्त होती हुई
प्यास भी अनुभव करो। तो तुम्हारे भीतर यह अनुभव करने वाला धीरे—धीरे सघन होगा, केंद्रीभूत होगा। और तुम जागकर जीने
लगो, तो फिर हो जाए जगत, यंत्र से भरा
जाए कितना ही, तुम्हारा परमात्मा से संबंध नहीं टूटेगा।
जागरण या ध्यान परमात्मा और तुम्हारे बीच सेतु है। और जितना
तुम्हारे जीवन में ध्यान होगा,
उतना ही तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा। क्योंकि प्रेम ध्यान का
परिणाम है। या इससे इल्टा भी हो सकता है: जितना तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा;
उतना ध्यान होगा।
यंत्र दो काम नहीं कर सकते—ध्यान नहीं कर सकते और प्रेम नहीं कर सकते। बस
इन दो बातों मग ही मनुष्य की गरिमा है, महिमा है, महत्ता है, उसकी भगवत्ता है। इन दो को साध लो,
सब सध जाएगा। और दोनों को इकट्ठा साधने की भी जरूरत नहीं है;
इनमें से एक साध, लो दूसरे अपने—आप सध जाएगा।
अमी झरत बिसगत कँवल
ओशो
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