कृष्ण मोहम्मद! ऐसे व्यक्ति दया के पात्र हैं। उन्होंने जाना ही
नहीं प्रेम क्या है। और प्रेम को बिना जाने कोई समर्पण नहीं है। और जो समर्पित नहीं
है, वह शिष्य नहीं है। शिष्य होने का ढोंग एक बात है,
शिष्य होना बड़ी दूसरी बात।
शिष्य तो वही होता है, जो अपने सिर को काट कर जमीन पर रख दे; जो अपने को पोंछ ले, मिटा ले। अहंकार जरा सा भी बचा हो तो शिष्यत्व कहां! जो ऐसा झुके कि उठे नहीं, वही शिष्य है। शिष्य को कहां फुरसत! शिष्य को अपने गुरु में सब मिल गया। शिष्य को अपने गुरु में सारे बुद्धपुरुष मिल गए--अतीत के, वर्तमान के, भविष्य के। उसने सार-संपदा पा ली। अब कहां जाना? अब क्यों जाना? अब किसलिए जाना?
तुम्हारी प्यास बुझ गई हो तो तुम झरने नहीं खोजते फिरोगे, कुएं नहीं खोदते फिरोगे। प्यास न बुझी हो तो अनिवार्यतया झरने खोजने पड़ेंगे, कुएं खोदने पड़ेंगे।
शिष्य और विद्यार्थी का यही फर्क है। विद्यार्थी का अर्थ हैः जो ज्ञान बटोर रहा है। जहां से मिल जाए! कहीं से भी मिल जाए! विद्यार्थी अपने अहंकार को ज्ञान से भर लेने में उत्सुक है। जितना ज्यादा जान लेगा, उतना ज्यादा होगा। जानकारी उसका लक्ष्य है।...तो ऐसा ही नहीं है कि बुद्धपुरुषों को सुनने जाएगा; जो बुद्धपुरुष नहीं हैं, उनको भी सुनने चला जाएगा। कहीं भी कुछ हो, विद्यार्थी तो सिर्फ ज्ञान बटोर रहा है। अज्ञानी से भी मिलता हो तो उसको भी बटोर लेना है ज्ञानी से ही थोड़े! ज्ञान और अज्ञान का विद्यार्थी को क्या प्रयोजन! कहीं से कुछ सूचनाएं मिल जाएं, कुछ तथ्य मिल जाएं, थोड़ी संपत्ति ज्ञान की और बढ़ जाए...।
उस ज्ञान की संपदा की तलाश में लोग खोजते हैं, भटकते हैं।
और मजा ऐसा है कि ज्ञान बटोरने से नहीं मिलता। ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा यही जानकारी है।
शिष्य वह है, जो अपनी जानकारी छोड़ देता है; जो कहता हैः अब मुझे जानना ही नहीं--अब मुझे होना है। होने के लिए एक काफी है। जानने के लिए अनेक भी काफी नहीं हैं!
बुद्ध और महावीर एक साथ हुए; एक ही समय में हुए; एक ही प्रदेश में हुए। कभी-कभी ऐसा हुआ कि एक गांव में बुद्ध गुजरे, दूसरे दिन महावीर गुजरे। कभी ऐसा हुआ कि एक ही गांव में दोनों ठहरे भी; चैमासा एक ही गांव में हुआ। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे, आधे में महावीर ठहरे।
यह सवाल तब भी उठता था। यह सवाल पुराना है। यह कृष्ण मोहम्मद का नया सवाल नहीं है। बुद्ध का कोई शिष्य महावीर को सुनने गया कि महावीर का कोई शिष्य बुद्ध को सुनने गया, तो दूसरे शिष्यों के मन में स्वभावतः प्रश्न उठा कि बुद्ध का जो शिष्य महावीर को सुनने गया है, क्या उसे बुद्ध से नहीं मिल रहा है? बुद्ध तो बरसा रहे हैं। औरों को मिल रहा है; उसे नहीं मिल रहा है? कहीं चूक उससे हो रही है। जो महावीर का शिष्य है, उसे महावीर से नहीं मिल रहा है। महावीर तो बरसा रहे हैं। लेकिन उसके पात्र में नहीं समाता, नहीं आता। उसके द्वार बंद हैं। तो बजाय द्वार खोलने के, वह यही सोचता है कि शायद महावीर के पास नहीं है, बुद्ध के पास मिल जाए; बुद्ध के पास नहीं है, मक्खली गोशाल के पास मिल जाए; मक्खली गोशाल के पास नहीं है, अजित केशकंबल के पास मिल जाए! यहां जाऊं, वहां जाऊं--कहीं से बटोर लूं!
और मजा यह है कि उसे पाने की कला नहीं आती। तो बुद्ध के पास भी चूकेगा और महावीर के पास भी चूकेगा और अजित केशकंबल के पास भी चूकेगा। सदियों-सदियों तक चूकेगा। क्योंकि पाने का बहुत संबंध बुद्ध और महावीर से नहीं है।
ऐसा समझो कि एक अंधा आदमी है। उसे दिखाई नहीं पड़ता, तो वह कहता है; यह दीया रोशनी नहीं देता, मैं दूसरा दीया तलाशूंगा। मैं और अच्छा दीया खरीदूंगा। मैं ऐसा दीया लाऊंगा, जिसमें मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाए।
वह दूसरा दीया ले आता है। लेकिन अंधे आदमी को क्या फर्क पड़ता है! यह दीया हो कि वह दीया हो--सब दीये बराबर हैं! अंधा आदमी अंधेरे में रहता है। फिर इस दीये से भी थक जाता है तो और दीया खोजता है। मगर एक बात उसे खयाल नहीं आती कि मैं अपनी आंख का इलाज करूं, उपचार करूं।
बुद्ध में भी मिल जाएगा, महावीर में भी मिल जाएगा, कृष्ण में भी मिल जाएगा, क्राइस्ट में भी मिल जाएगा। हजारों दीये जले हैं। सभी दीयों में एक ही रोशनी है। मगर अंधे को किसी में न मिलेगा। पर अंधे का अहंकार यह भी मानने के लिए राजी नहीं होता कि मेरी आंखों की कोई खराबी है, इसलिए नहीं दिखाई पड़ता। अंधे का अहंकार यही कहता है, इस दीये में रोशनी न होगी, कोई और दीया तलाशूं; इस कुएं में पानी नहीं है, किसी और कुएं को खोजूं। और मेरे कंठ को पीना नहीं आता, यह बात अहंकार स्वीकार नहीं करता। अहंकार दोष अपने पर नहीं लेता।
तो कृष्ण मोहम्मद, वे दया के पात्र हैं! जो इस तरह भटकते हैं, उन्हें भटकने से कुछ भी न मिलेगा। भटकने से हो सकता है, कुछ कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लें, कुछ जानकारियां इकट्ठी कर लें। वे जानकारियां ज्ञान के मार्ग में और बाधा बन जाएंगी।
जिस पनिहार धरे सिर गागर
ओशो
No comments:
Post a Comment