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Monday, August 27, 2018

पूछा है संसार को त्याग कर, जंगल में बैठ कर तप करना, या संसार के प्रति अलिप्त होकर स्वार्थ-भाव के बन कर साधना करना यह केवल क्या व्यक्ति का स्वार्थ नहीं? सभी के कल्याण का मार्ग देख कर कत्र्तव्य की बाजी लगा कर, सभी के साथ अपना कल्याण प्राप्त करने की भावना क्या योग्य नहीं?



ठीक पूछा है, हम सभी के मनों में यह बात उठती है कि क्या जो अपनी ही आत्मा साधना में लगे हैं, वे स्वार्थ में नहीं लगे हैं। क्या उचित न हो कि वे सबके कल्याण के काम में लगें? सेवा में लगें, सहयोग में लगें, समाज विकसित हो ऐसे कामों में लगें, अकेले में एकांत में बैठ कर वे जो कुछ भी कर रहे हों, अगर उसमें आनंद और शांति भी मिलती है, तो भी यह निपट स्वार्थ मालूम होता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है सबके मन में उठे, लेकिन मैं आपको कहूं क्या आपको पता है कि अगर आपके भीतर का दीया न जल रहा हो तो आप दूसरे का दीया जला सकते हैं? क्या आपको पता है, अगर आपके भीतर शांति न हो, तो आप दूसरे के लिए मंगलदायी हो सकते हैं? क्या आपको पता है, अगर आपके भीतर प्रेम न हो, तो आप सेवा कर सकते हैं? जो आपके भीतर नहीं है, उसे देने की सामथ्र्य आपमें कैसे हो सकती है? और जो आपके भीतर नहीं है उसे आप कैसे बांट सकेंगे?


इसलिए स्मरण रखें, आत्म-साधना अगर स्वार्थ की तरह मालूम भी होती हो, तो भी आत्म-साधना ही एकमात्र परार्थ है और परोपकार है। क्योंकि उसके बाद ही केवल उसके बाद ही कोई व्यक्ति दूसरे की सेवा कर सकता है। अन्यथा उसके अभाव में सेवा केवल दंभ होगी, अहंकार होगा। सेवा झूठी होगी, पीछे कोई और मतलब और अर्थ होंगे। और जो खुद ही शांत नहीं है वे दूसरों को शांत करने निकल पड़े, और जिसके जीवन में खुद ही मंगल की वर्षा नहीं हुई, वे दूसरों के कल्याण की बात सोचने लगे; यह सब धोखा है, आत्म-प्रवंचना है। अपने भीतर जो अंधेरा है उसको भुलाने के ये सब उपाय हैं। ये तो स्मरणीय ही है कि इसके पूर्व कि आप किसी के भी कुछ काम के हो सकें, आपको अपने लिए काम का हो जाना चाहिए। इसके पहले कि आपका जीवन किसी के लिए भी कल्याणकारी हो सके, आपका जीवन आपके लिए तो कल्याणकारी हो जाना चाहिए।


धर्म स्वार्थ को और परार्थ को विरोध में नहीं देखता। जो ठीक-ठीक स्वार्थ है वही ठीक-ठीक परार्थ भी है। मैं तो ऐसे ही देखता हूं। अगर आप ठीक-ठीक अपने स्वार्थ को सिद्ध कर लें, तो आपके जीवन से ज्यादा परोपकारी जीवन और कोई भी नहीं होगा, क्यों? क्योंकि जो आपके आत्यंतिक रूप से स्वार्थ में है, वह किसी के भी स्वार्थ के विरोध में नहीं हो सकता। और स्मरण रखें, आपके भीतर जो भी दूसरे के विरोध में है, आज नहीं कल आपको पता चलेगा वह अपने ही पैर पर मारी गई कुल्हाड़ी थी। जो-जो आपको दिखता है कि दूसरे का स्वार्थ है मेरा नहीं तो आप समझ लेना कि अगर आपको जो दूसरे का स्वार्थ दिख रहा है अपने स्वार्थ के विरोध में तो आप समझना अभी आपको पता भी नहीं कि स्वार्थ क्या है? अभी आपको पता भी नहीं कि मेरा हित क्या है? क्योंकि जो मेरा हित है, वह इस जगत में प्रत्येक प्राणी का हित होना ही चाहिए। क्योंकि सबके भीतर एक सी आत्मा, एक सी चेतना, एक सी कामना और एक सी आकांक्षाओं का वास है। सारे लोग दुश्मन की तरह जमीन पर नहीं खड़े हैं, बल्कि एक ही नियम की अभिव्यक्तियों की भांति हैं। 


इन सबके भीतर एक से नियम हैं। क्या एक से नियम हैं? मैं अगर थोड़ा समझूं, तो नियम दिखाई पड़ना मुझे शुरू हो जाते हैं। मुझे दिखाई पड़ता है कि अगर मेरा कोई अपमान करे तो मुझे बुरा लगता है। अगर मैं थोड़ा समझ का आदमी हूं तो मुझे यह भी दिखाई पड़ जाना चाहिए कि इस जमीन पर किसी का भी अपमान किया जाए, उसे बुरा लगेगा।


नियम तो एक है। मुझे कोई प्रेम करे तो अच्छा लगता है और कोई घृृणा करे तो बुरा लगता है। तो मैं जानता हूं इस जमीन पर ऐसा प्राणी खोजना कठिन है, जिसे घृणा किया जाना अच्छा लगता हो, और प्रेम किया जाना बुरा लगता हो। सारे लोगों के भीतर एक सी चेतनाएं हैं और उनके एक से नियम हैं, एक सी आकांक्षाएं हैं। इसलिए जो आत्यंतिक रूप से मेरा हित है, वह आपका अहित कैसे हो सकता है? यह मेरा हित है कि सारे लोग मुझे प्रेम करें। यह मेरा हित है कि सारे लोग मुझे प्रेम करें, मैं समझ गया यह आपका भी हित है कि सारे लोग आपको प्रेम करें। और यह भी मुझे जानना चाहिए कि अगर मैं खुद प्रेम देने को राजी नहीं हूं तो मैं प्रेम पाने का हक भी तो खो दूंगा। अगर मेरा यह हित है कि प्रेम मेरे पास आए, तो मेरा यह कर्तव्य हो गया कि प्रेम मुझ से जाए। जो मेरा हित है वही मेरा कर्तव्य भी है। अगर यह मेरा हित है कि सेवा मुझे मिले, तो यह मेरा कर्तव्य हो गया कि सेवा मैं दूं। लेकिन यह बोध भी तभी होगा जब भीतर विवेक जाग्रत होगा, और मुझे अपने हितों की पहचान हो जाए। दुनिया में अधिक लोग जिन्हें अपना दुश्मन समझते हैं, वे उनके बिलकुल दुश्मन नहीं हैं। दुनिया में अधिक लोग अपने जितने खुद के दुश्मन हैं, उतना कोई उनका दुश्मन नहीं है।


यह मैं आपसे भी कहता हूं, अगर आप लेखा-जोखा करेंगे अपनी जिंदगी का तो जितना नुकसान आपने अपने को पहुंचाया है, उतना कोई दूसरा आपको कभी नहीं पहुंचा सकता है। और अगर हर एक आदमी स्वार्थ साध ले तो वह अपने को नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा। और बड़े मजे की बात है यह है कि जो अपने को नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा, वह केवल अपने को नुकसान से बचाने के लिए किसी को भी नुकसान पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है। मैं अपना हित साध लूं तो मैं सबकी सेवा में तत्पर हो जाऊंगा।

जीवन की कला 

ओशो

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