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Thursday, August 9, 2018

परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूल--फ्लावरिंग आफ इंडिविजुएलिटी। और कुछ हमारे पास चढ़ाने को भी नहीं है।



जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड़ जाएगा। और बेचैनी दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता।

इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, कुछ छोड़ नहीं रखा था।


लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवंचना में, सेल्फ डिसेप्शन में सफल हो जाए, सपना देख ले कि मैं कमल हो गया...सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटा-सा गुलाब हो जाना, असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, स्वप्न से नहीं मिलता है।
कृष्ण ने यहां बहुत बीज-मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि स्वधर्म में--जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू इसको खोज कि तू क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है।


परधर्म लेकिन हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है! मर जाते हैं और पता नहीं चलता; जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था! परमात्मा ने किस मिशन पर भेजा था! कौन-सी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था! मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मरते दम तक पता नहीं चलता।


न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन मौजूद हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, लेकिन बगल में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। महावीर के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी महावीर हो जाऊं। खिला फूल है वहां। बुद्ध के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा, कैसे मैं बुद्ध हो जाऊं! क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण आतुर हो जाएंगे कि ऐसा ही मैं कब हो जाऊं! कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण नाचने लगेंगे और कहेंगे, कृष्ण कैसे हो जाऊं!

खुद का तो पता नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं; लेकिन आस-पास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि कृष्ण, इस पृथ्वी पर कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, रिपिटीशन करता ही नहीं है। परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक दुबारा एक आदमी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। हजारों साल बुद्ध को हो गए, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हुआ। हालांकि लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की, लेकिन कोई बुद्ध नहीं हुआ। और हजारों लोगों ने आकांक्षा की है क्राइस्ट होने की, लेकिन कहां कोई क्राइस्ट होता है! बस, एक बार।

इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो सिर्फ वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है। अक्सर बुढ़ापे में कवि अपनी पुरानी कविताओं को फिर-फिर लिखने लगते हैं। चित्रकार चुक जाते हैं और फिर उन्हीं चित्रों को पेंट करने लगते हैं, जिनको वे कई दफा कर चुके। थोड़ा बहुत हेर-फेर, और फिर वही पेंट करते हैं। आदमी की सीमाएं हैं।

गीता दर्शन 

ओशो

जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड़ जाएगा। और बेचैनी दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता।

इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, कुछ छोड़ नहीं रखा था।


लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवंचना में, सेल्फ डिसेप्शन में सफल हो जाए, सपना देख ले कि मैं कमल हो गया...सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटा-सा गुलाब हो जाना, असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, स्वप्न से नहीं मिलता है।
कृष्ण ने यहां बहुत बीज-मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि स्वधर्म में--जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू इसको खोज कि तू क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और फिर वही होने में लग जा। और सारी चिंताओं को छोड़ दे। तो ही तू किसी दिन संतृप्ति के अंतिम मुकाम तक पहुंच सकता है।


परधर्म लेकिन हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है! मर जाते हैं और पता नहीं चलता; जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था! परमात्मा ने किस मिशन पर भेजा था! कौन-सी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था! मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मरते दम तक पता नहीं चलता।


न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन मौजूद हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, लेकिन बगल में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। महावीर के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी महावीर हो जाऊं। खिला फूल है वहां। बुद्ध के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा, कैसे मैं बुद्ध हो जाऊं! क्राइस्ट दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण आतुर हो जाएंगे कि ऐसा ही मैं कब हो जाऊं! कृष्ण दिखाई पड़ जाएंगे, तो प्राण नाचने लगेंगे और कहेंगे, कृष्ण कैसे हो जाऊं!

खुद का तो पता नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं; लेकिन आस-पास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि कृष्ण, इस पृथ्वी पर कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, रिपिटीशन करता ही नहीं है। परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक दुबारा एक आदमी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। हजारों साल बुद्ध को हो गए, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हुआ। हालांकि लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की, लेकिन कोई बुद्ध नहीं हुआ। और हजारों लोगों ने आकांक्षा की है क्राइस्ट होने की, लेकिन कहां कोई क्राइस्ट होता है! बस, एक बार।

इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो सिर्फ वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है। अक्सर बुढ़ापे में कवि अपनी पुरानी कविताओं को फिर-फिर लिखने लगते हैं। चित्रकार चुक जाते हैं और फिर उन्हीं चित्रों को पेंट करने लगते हैं, जिनको वे कई दफा कर चुके। थोड़ा बहुत हेर-फेर, और फिर वही पेंट करते हैं। आदमी की सीमाएं हैं।

गीता दर्शन 

ओशो

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