यह बहुत महत्वपूर्ण है पूछना, क्योंकि आज नहीं कल जो लोग भी आनंद की साधना में लगेंगे, उनके सामने यह प्रश्न खड़ा होगा।
आनंद एक झलक की भांति उपलब्ध होता है, एक छोटी सी झलक, जैसे किसी ने द्वार खोला हो और बंद कर दिया हो। हम देख भी नहीं पाते उसके पार कि द्वार खुलता है और बंद हो जाता है। तो वह आनंद बजाय आनंद देने के और पीड़ा का कारण हो जाता है। क्योंकि जो कुछ दिखता है, वह आकर्षित करता है, लेकिन द्वार बंद हो जाता है। उसके बाबत चाह और भी घनी पैदा होती है। और फिर द्वार खुलता नहीं। बल्कि फिर जितना हम उसे चाहने लगते हैं, उतना ही उससे वंचित हो जाते हैं।
ये सारी चीजें ऐसी हैं कि चाही नहीं जा सकतीं। अगर मैं किसी व्यक्ति से चाहूं कि उसने इतना प्रेम दिया है मुझे, और प्रेम दे, तो जितना मैं चाहने लगूंगा, उतना मैं पाऊंगा कि प्रेम उससे आना कम हो गया है। प्रेम उससे आना बंद हो जाएगा। ये चीजें छीनी नहीं जा सकतीं। ये जबरदस्ती पजेस नहीं की जा सकतीं। जो आदमी इनको जितना कम चाहेगा, जितना शांत होगा, उतनी अधिक उसे उपलब्धि होगीं।
एक बहुत पुरानी कथा है। मैं पिछली बार कहा भी आपको। एक हिंदू कथा है। एक काल्पनिक ही कहानी है। नारद एक गांव के करीब से निकले। एक वृद्ध साधु ने उनसे कहा कि तुम भगवान के पास जाओ तो उनसे पूछ लेना कि मेरी मुक्ति कब तक होगी? मुझे मोक्ष कब तक मिलेगा? मुझे साधना करते बहुत समय बीत गया। नारद ने कहाः मैं जरूर पूछ लूंगा। वे आगे बढ़े तो बगल के बरगद के दरख्त के नीचे एक नया-नया फकीर जो उसी दिन फकीर हुआ था, अपना तंबूरा लेकर नाचता था, तो नारद ने उससे मजाक में पूछा, नारद ने खुद उससे पूछा, तुमको भी पूछना है क्या भगवान से कि कब तक तुम्हारी मुक्ति होगी? वह कुछ बोला नहीं।
जब वे वापस लौटे, उस वृद्ध फकीर से उन्होंने जाकर कहा कि मैंने पूछा था, भगवान बोले कि अभी तीन जन्म और लग जाएंगे। वह अपनी माला फेरता था, उसने गुस्से में माला नीचे पटक दी। उसने कहा, तीन जन्म और! यह तो बड़ा अन्याय है। यह तो हद्द हो गई।
नारद आगे बढ़ गए। वह फकीर नाचता था उस वृक्ष के नीचे। उससे कहा कि सुनते हैं, आपके बाबत भी पूछा था, लेकिन बड़े दुख की बात है; उन्होंने कहा कि वह जिस दरख्त के नीचे नाचता है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने जन्म उसे लग जाएंगे।
वह फकीर बोला, तब तो पा लिया। और वापस नाचने लगा। वह बोला, तब तो पा लिया, क्योंकि जमीन पर कितने पत्ते हैं! इतने ही पत्ते, इतने ही जन्म न? तब तो जीत ही लिया, पा ही लिया। वह वापस नाचने लगा। और कहानी कहती है, वह उसी क्षण मुक्ति को उपलब्ध हो गया, उसी क्षण।
यह जो नाॅन-टेंस, यह जो रिलैक्स माइंड है, जो कहता है कि पा ही लिया। इतने जन्मों के बाद की वजह से भी जो परेशान नहीं है और जो इसको भी अनुग्रह मान रहा है प्रभु का, इसको भी उसका प्रसाद मान रहा है कि इतनी जल्दी मिल जाएगा, वह उसी क्षण सब पा लेगा।
तो हमारे मन की दो स्थितियां हैं। एक तो टेंस स्थिति होती है, जब हम कुछ चाहते हैं कि मिल जाए और एक नाॅन-टेंस स्थिति होती है, जब कि हम चुपचाप जो मिल रहा है, उसको रिसीव करते हैं; कुछ झपटते नहीं। टेंस स्थिति एग्रेसिव है, वह झपटती है। नाॅन-टेंस स्थिति रिसेप्टिव है, वह छीनती नहीं, वह चुपचाप ग्रहण करती है।
ध्यान जो है वह एग्रेसन नहीं है, रिसेप्शन है। वह आक्रमण नहीं है, वह आमंत्रण है। वह झपटता नहीं कुछ; जो आ जाता है, उसे स्वीकार कर लेता है।
तो आनंद के क्षणों को, शांति के क्षणों को झपटने की, पजेस करने की कोशिश न करें। वे ऐसी चीजें नहीं हैं कि पजेस की जा सकें। वह कोई फर्नीचर नहीं है जो अपन बस से उठा कर कमरे में रख लें। वह तो उस प्रकाश की तरह है कि द्वार हमने खोल दिया, बाहर सूरज उगेगा तो प्रकाश अपने आप भीतर आएगा। हमारे लिए प्रकाश को बांध कर भीतर लाना नहीं पड़ता है, सिर्फ द्वार खोल कर प्रतीक्षा करनी होगी। वह आएगा। वैसे ही मन को शांत करके हम चुपचाप प्रतीक्षा करें और जो मिल जाए उसके लिए धन्यवाद करें और जो नहीं मिला, उसका विचार न करें; तो आप पाएंगे कि रोज-रोज आनंद बढ़ता चला जाएगा, बिना मांगे कोई चीज मिलती चली जाएगी, बिना मांगे कोई चीज गहरी होती चली जाएगी। और अगर मांगना शुरू किया, जबरदस्ती चाहना शुरू किया, तो पाएंगे कि जो मिलता था, वह भी मिलना बंद हो गया।
उपासना के क्षण
ओशो
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