आचरणों को हमने संत समझा हुआ है। और आचरण तो कितने हैं दुनिया
में! हजारों तरह के हो सकते हैं। किसी ने तय कर लिया है कि मांसाहार करना संतत्व
के विपरीत है। लेकिन जीसस तो मांसाहार करते थे। और जीसस को तो जाने दो, मोहम्मद को जाने दो--दूर के
हैं। रामकृष्ण परमहंस तो बहुत करीब थे, वे भी मछलियां खाते
थे! अब जिसने यह धारणा बना ली है कि मांसाहार तो संत कर ही नहीं सकता, वह रामकृष्ण के पास जाकर भी चूक जाएगा; वह यही देखता
रहेगा कि अरे मछलियां, यह किस तरह का संत है! संत तो मधुर
वचन बोलते हैं। संत तो प्यारी बातें कहते हैं। संतों के वचनों से तो फूल झरते हैं।
लेकिन शिरडी के साईं बाबा डंडा उठा कर मां-बहन की गाली भी देते
थे, भक्तों के
पीछे दौड़ पड़ते थे, पत्थर भी मारते थे। तो तुम कैसे तय करोगे
कि ये संत हैं? देख कर ही तय हो जाएगा कि ये संत नहीं हैं।
यह डंडा उठाना, पत्थर मारना, गाली
बकना! रामकृष्ण परमहंस भी गालियां देते थे। तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। तुम कैसे तय
करोगे कौन संत है?
और जिसने शिरडी के साईं बाबा की गाली खाई है और पी ली है गाली
और फिर भी झुका रहा, जिसका सिर झुका सो झुका ही रहा--गाली दी, चाहे पत्थर
मारे, चाहे डंडा मारा--वह जानता है, वही
पहचानता है। लेकिन वह तुम्हें पागल मालूम पड़ेगा, उन्मत्त
मालूम पड़ेगा। क्योंकि साईं बाबा के डंडे में उसने तो फूल ही झरते पाए। उन पत्थरों
में अमृत बरसता हुआ पाया। वे गालियां तो उनके प्रेम का प्रतीक थीं। तुम ऐसे हो कि
बिना गाली के तुम जागोगे ही नहीं। तो उतने तक के लिए वे राजी हैं कि गाली से
जागोगे तो गाली दूंगा। तुम्हें गालियां ही शायद थोड़ी झकझोरें तो झकझोरें। नहीं तो
तुम तो वैसे ही गहरी नींद में सो रहे हो। अच्छी-अच्छी बातें तो लोरियां बन जाती
हैं। और लोरियां तो तुम सुनते रहे हो बहुत दिन से। लोरियां सुन रहे हो, अंगूठे चूस रहे हो, अपने-अपने झूले में पड़े झूला झूल
रहे हो।
कैसे तय करोगे?
जीसस तो शराब पीते थे। शराब पीते ही नहीं थे, उनके
चमत्कारों में एक चमत्कार यह भी है कि जब वे समुद्र के पास आए, हजारों लोग उनके साथ आए थे, तो उन्होंने पूरे समुद्र
को चमत्कार से शराब में बदल दिया। अब अगर भारत में होते तो पुलिस पकड़ ले जाती कि
यह क्या कर रहे हो! सागर को और शराब बना दिया, कि अब पीएं
पीने वाले जितना पीना हो! अब कभी पीने की कमी नहीं होगी।
तुम कैसे जीसस को मान सकोगे कि ये संत हैं? तुम्हें अड़चन होगी।
आचरण तो बहुत तरह के हैं। दुनिया में कोई तीन हजार धर्म
हैं--छोटे-मोटे, सब मिला-जुला कर। इन तीन हजार धर्मों की अपनी-अपनी धारणाएं हैं।
संत की परिभाषा कैसे करें?
पलटू ठीक परिभाषा करते हैं। वे कहते हैं: मेरी तो एक परिभाषा है।
परस्वारथ के कारने,
संतन धरै सरीर।
फिर वह क्या खाता,
क्या पीता, कैसे उठता, कैसे
बैठता--वह जाने। हमारी तरफ से तो जांचने की बात एक है, परखने
की बात एक है, कि उसका जीवन परमात्मा को समर्पित है, उसकी वाणी परमात्मा को समर्पित है, वह समग्ररूपेण
परमात्मा का हो गया है और अब परमात्मा को बांट रहा है। बांटने के ढंग अलग होंगे,
रंग अलग होंगे, लेकिन बांटने की बात एक है।
फिर जीसस हों कि महावीर कि बुद्ध कि कबीर कि नानक कि पलटू, कोई
फर्क नहीं पड़ता। और जहां कोई परमात्मा को बांटता है वही परार्थ कर रहा है।
काहे होत अधीर
ओशो
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