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Thursday, August 9, 2018

ध्यान का अर्थ कुल इतना ही है: वर्तमान में होना।


जीवन सरल है, लेकिन तुम जटिल हो। इसलिए चलते हो साथ-साथ, जीवन के समानांतर; लेकिन जीवन से कभी मिलन नहीं हो पाता। जब तक कि तुम भी जीवन जैसे सरल न हो जाओ तब तक मिलन हो भी न सकेगा। क्योंकि समान से समान का मिलन हो सकता है, सरल से सरल का, जटिल से जटिल का।

जटिलता मन की है। और मन की जटिलता को समझ लो तो शेष सब समझ में आ जाता है। मन की जटिलता यह है: अगर फूल को देखो तुम, तो फूल को नहीं देखते, फूल के संबंध में सोचने लगते हो। संबंध में सोचा कि दूर निकल गए। फूल को ही देखते, सोचते न; फूल के सौंदर्य को जीते, सोचते न; फूल को पीते, सोचते न; फूल को घेर लेने देते तुम्हें सब ओर से, सोचते न; फूल को जाने देते हृदय तक, हृदय को जाने देते फूल तक, विचार की बाधा खड़ी न करते, तो सब सरल था। लेकिन देखा भी नहीं कि सोचना शुरू हो जाता है।

सोचने से ही तुम जीवन से दूर हो जाते हो। प्रेम नहीं करते, प्रेम के संबंध में सोचते हो। उत्सव नहीं मनाते, उत्सव के संबंध में सोचते हो। जीते नहीं, जीने के संबंध में विचार करते हो। और जितना तुम विचार से घिरते जाओगे उतना ही जीवन दूर होता जाएगा। विचार का अर्थ है दूर जाने की यात्रा। फिर एक विचार दूसरे विचार में ले जाता है; दूसरा तीसरे विचार में ले जाता है। फिर अनंतशृंखला हो जाती है। पहला कदम चूके कि फिर तुम चूकते ही चले जाते हो। पहले कदम पर ही जीने और विचार के फासले को ठीक से समझ लेना। जीना हो तो जीना निर्विचार में है; सोचना हो तो सोचना निर्जीवन है। इस जटिलता के कारण जीवन सरल होते हुए भी उपलब्ध नहीं हो पाता।
जीसस ने कहा है, देखो लिली के फूलों को! वे सोचते नहीं। लेकिन उनके सौंदर्य के सामने सम्राट सोलोमन का सौंदर्य भी फीका है।

फूल कल के संबंध में विचार नहीं करते; आज काफी है। आज इतना काफी है कि कल के संबंध में सोचने की जगह कहां? आज बहुत है। आज को उत्सव मना लेना है। तुम्हारे पास भी आज बहुत है। लेकिन तुम कल के संबंध में सोच रहे हो..जो अभी आया नहीं, और जो कभी आएगा भी नहीं। और तुम्हारी आदत निर्मित हो रही है। जब कल आएगा तो वह आज की तरह आएगा। और आज से टूटने की तुम्हारी आदत मजबूत होती चली जा रही है। कल भी तुम आगे आने वाले कल के लिए सोचोगे। ऐसे तुम जीओगे, और कभी न जी पाओगे। मरते क्षण भी तुम परलोक के संबंध में सोचोगे।
चूक जाने की यह कला है, जीवन से चूक जाने की कला है कि तुम सदा वहां मत रहो जहां जीवन है, कहीं और रहो। या तो अतीत में, जो जा चुका, मन बड़ा रस लेता है; या भविष्य में, जो आया नहीं, मन बड़ी कल्पना करता है। बस यह क्षण, जो आ गया है, जो अभी है, जो मौजूद है, जो वर्तमान है, जहां जीवन का द्वार है, बस इस क्षण में मन की कोई अभीप्सा नहीं, कोई प्यास नहीं। और यह क्षण बहुत छोटा है। यह क्षण इतना छोटा है कि तुम जरा सा हिले कि चूक जाओगे। और मन तो कंप रहा है; अतीत और भविष्य के बीच झूले मार रहा है। बस यहां नहीं रुकता, घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमता है बाएं से दाएं; मध्य में नहीं ठहरता।

इसलिए जितना बड़ा विचारक उतना ही जीवन से दूर। पहले वह प्रेम के संबंध में सोचता है; फिर प्रेम के संबंध में जो सोचा उसके संबंध में सोचता है। ऐसे चलता जाता है। फिर कोई अंत नहीं है।

 
यह तो पहली बात ख्याल में ले लेनी जरूरी है कि जटिल तुम हो; जीवन सरल है। जीवन अभी उपलब्ध है; तुम अभी मौजूद नहीं। लौट आओ वर्तमान में, समेट लो अपने को पीछे से और आगे से, ठहर जाओ यहीं और अभी, और कुछ भी तुमने कभी खोया नहीं है। और कुछ भी पाने को नहीं रह जाता। सब तुम पा लोगे।

पर वर्तमान के क्षण में रुकना ही तो अड़चन है। तुम इस बात को भी सुन कर यही सोचते हो: अच्छा, तो कल अभ्यास करेंगे, तो कल कोशिश करेंगे वर्तमान में आने की। आज तो उलझनें और हैं। फिर इतने जल्दी किया भी नहीं जा सकता। तो तुम इसे भी स्थगित करते हो। तुम ध्यान को भी स्थगित करते हो। और ध्यान का अर्थ कुल इतना ही है: वर्तमान में होना।


ताओ उपनिषद 

ओशो

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