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Saturday, August 4, 2018

कामिनी कंचन का त्याग

अंग्रेजी में शब्द है धन के लिए: करेंसी। वह शब्द बड़ा ठीक है। जो चले वह धन, करेंसी यानी करेंट। जो धार की तरह बहे वह धन। लोभ अटकाता है, जैसे कि झरने पर कोई पत्थर को रख दे। झरना बुरा नहीं है, पत्थरों का रखना बुरा है। मगर तुम्हें सदियों से सिखाया गया है कि झरना बुरा है। 


मैं तुमसे कहता हूं: पत्थर हटा दो। धन को भोगने की कला सीखो। जब तुम धन को भोगने की कला सीखोगे तो धन को पैदा करने की कला भी सीखनी पड़ेगी।


और न ही मैं कामिनी के विरोध में हूं। क्योंकि जो व्यक्ति पुरुष है और स्त्रियों के विरोध में है, उसकी जिंदगी में से सारा रस, सारा सौंदर्य, सारा प्रेम सूख जाएगा। सूख ही जाएगा। जो स्त्री पुरुषों के विरोध में है, उसके जीवन में कैसे काव्य के फूल लगेंगे? असंभव। जहां प्रेम सूख गया वहां आदमियत मर जाती है। फिर यह देश क्या है? मुर्दों का एक ढेर हो गया।


प्रेम के प्रति हमारे मन में घृणा है, क्योंकि प्रेम को हमने बंधन कहा। मैं तुमसे फिर कहना चाहता हूं: प्रेम बंधन नहीं है। मोह बंधन है। अपनी भाषा बदलो। पूरी वर्णमाला नई करनी है, तब कहीं इस देश में सूर्योदय हो सकता है। धन नहीं, लोभ। और प्रेम नहीं, मोह। हां, मोह गलत है। मगर मोह के लिए तो हम सब राजी हैं और प्रेम के हम विरोध में पड़ गए हैं। 


मोह भी इसलिए गलत है कि वह प्रेम को नुकसान पहुंचाता है; जैसे लोभ धन को नुकसान पहुंचाता है। जैसे लोभ के पत्थर धन के झरने को रोक लेते हैं ऐसे ही मोह के पत्थर प्रेम के झरने को रोक लेते हैं। मोह का मतलब है: यह मेरा; यह मेरी पत्नी, यह किसी और के साथ बैठ कर हंसे भी तो मुझे बेचैनी, तो मुझे नजर रखनी है, मुझे चारों पहर ध्यान रखना है। और पत्नी को भी यही काम है कि पति पर नजर रखे। दफ्तर भी जाता है तो दिन में चार-छह दफे फोन कर लेती है कि कहां हैं, क्या कर रहे हैं। कहीं हंसी-बोल तो नहीं चल रहा है! कहीं किसी स्त्री से मैत्री तो नहीं चल रही है!


यह जो मोह है, यह मार डालता है। प्रेम भी प्रवाह मांगता है। जितना ज्यादा लोगों से तुम प्रेम कर सको उतना ही तुम्हारे जीवन में रसधार होगी। जितने तुम्हारी मैत्री के नए-नए आयाम होंगे, जितने तुम्हारे संबंधों में नई-नई शाखाएं निकलेंगी, नए पत्ते लगेंगे, उतना तुम्हारे जीवन में रस होगा। और इसे तुम अपने अनुभव से भी जानते हो, मगर तुम अनुभव की नहीं मानते, तुम शास्त्रों की मानते हो। तुम अपने अनुभव से जानते हो: जब तुम्हारे जीवन में प्रेम का पदार्पण होता है, एकदम फूल खिल जाते हैं, वसंत आ जाता है।


पतियों को और पत्नियों को साथ-साथ देखो, दोनों उदास चले जा रहे हैं। एक-दूसरे पर पहरा लगाए हुए। दोनों चोर हैं, दोनों पुलिस वाले हैं। पति यहां-वहां नहीं देख सकता।


मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ एक लिफ्ट में सवार हुआ। साथ ही एक नवयौवना, बड़ी सुंदर स्त्री भी लिफ्ट में थी। मुल्ला की नजर स्वभावतः उस पर अटक गई। कुछ पाप नहीं। अगर सुबह के सुंदर सूरज को देख कर तुम्हारी आंखें ठिठक जाएं और अगर गुलाब का फूल खिले और तुम्हारी आंख एक पल को रुक जाए तो किसी स्त्री के सौंदर्य को देख कर न रुके, यह बात कैसे होगी? यह होनी ही चाहिए। न हो तो कुछ गलत है। 


तो मुल्ला लाख उपाय करे यहां-वहां देखने का, लेकिन छोटा-सा तो लिफ्ट और जल्दी ही उसकी मंजिल भी आ जाएगी, तो ज्यादा समय भी नहीं है कि यहां-वहां देखे। सो घूर-घूर कर उसी युवती को देख रहा था। बचना भी चाहता था क्योंकि पत्नी साथ थी, इधर-उधर भी देखता था, मगर देखता उसी को था।


हमारे पास एक शब्द है: लुच्चा। लुच्चा का मतलब समझते हो? लोचन से बना है, आंख। लुच्चे का अर्थ होता है, जो किसी को घूर-घूर कर देखे। और इसमें कोई खराब बात नहीं है। इसी से आलोचक शब्द भी बना है। दोनों का मतलब एक ही होता है--आलोचक और लुच्चा--दोनों घूर-घूर कर देखते हैं। 


उस युवती ने थोड़ी देर बाद उठाया हाथ और तड़ाक से मुल्ला के चेहरे पर मारा। झल्ला गया मुल्ला, लेकिन अब कुछ कर भी न सका। और वह स्त्री बोली, शर्म नहीं आती? इस उम्र में और चिकोटी काटते हो?


अब मुल्ला कुछ कहे भी तो क्या कहे! जब लिफ्ट से उतरा अपनी पत्नी के साथ तो उसने कहा कि फजलू की मां, मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मैंने चिकोटी नहीं काटी थी।


फजलू की मां ने कहा, मुझे मालूम है। चिकोटी मैंने काटी थी। मगर घूर-घूर कर कौन देख रहा था? तुम्हें व्यर्थ अल्लाह की कसम खाने की कोई जरूरत नहीं, मुझे पक्का पता है कि चिकोटी किसने काटी थी। मैंने काटी थी। मगर काटनी पड़ी, नहीं तो चांटा कैसे पड़ता!


प्रेम में कुछ बुराई नहीं है। सौंदर्य के स्वीकार में कुछ बुराई नहीं है। हां, मोह में बुराई है। लेकिन हम मोह के भय से प्रेम को ही काट गए। अंग्रेजी में कहावत है न कि बच्चे को नहलाओ तो फिर गंदे पानी के साथ बच्चे को मत फेंक देना। लेकिन हमने गंदे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। हमने प्रेम को फेंक दिया मोह के डर में, क्योंकि प्रेम रहेगा तो कहीं मोह पैदा न हो जाए। और हमने धन को फेंक दिया लोभ के डर में, कि कहीं धन हुआ तो लोभ न पैदा हो जाए। मगर तब फिर हम सूख गए। न प्रेम रहा, न संपदा रही। बाहर की संपदा भी गई और भीतर की संपदा भी गई। प्रेम भीतर की संपदा है और धन बाहर की संपदा है। दोनों गंवा कर हम बैठे हैं।

साँच साँच सो साँच 

ओशो


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