जीवन एक गहन प्रयोजन है। और वह प्रयोजन मनुष्य तक ही सीमित नहीं
है, सीमित हो भी
नहीं सकता। या तो प्रयोजन है तो पूरे अस्तित्व में है, या
प्रयोजन कहीं भी नहीं है।
मनुष्य अलग-थलग नहीं है;
मनुष्य एक है। अगर पत्थर व्यर्थ ही हैं तो मनुष्य भी व्यर्थ है और
अगर मनुष्य के जीवन में कोई सार्थकता है, तो पत्थरों के जीवन
में भी सार्थकता होनी ही चाहिए।
परमात्मा है तो उसका हस्ताक्षर सभी चीजों पर है। आदमी विशिष्ट
नहीं है; सारी
प्रकृति विशिष्ट है। तुम ही नहीं कोई विकास कर रहे हो; सारा
अस्तित्व विकासमान है। पौधे, पक्षी, पत्थर-सभी
ऊंचाइयों के शिखर को छूने के लिए यात्रा पर चल रहे हैं। धीमी होगी किसी की गति,
तेज होगी किसी की गति, कोई बेहोश पड़ा होगा,
कोई होश से चल रहा होगा; लेकिन मंजिल है।
मंजिल का नाम ही परमात्मा है। और जब तक मंजिल न मिल जाए, तब
तक एक बेचैनी बनी ही रहेगी। वह बेचैनी मनुष्य के भीतर ही है, ऐसा नहीं; वह सारे अस्तित्व में है।
कठिनाई होती है हमें यह सोचकर, क्योंकि मनुष्य का अंहकार ऐसा मान लेता है कि
परमात्मा सत्य, प्रेम, बस हमारी बपौती
है। तो हमें अड़चन होती है।
बुद्ध ने अपने पिछले जीवन की कहानियां कही हैं। वह जमाना था जब
उस तरह की बातें कही जा सकती थीं;
लोग उनका लाभ ले सकते थे। लोग सरल थे और मनुष्य अहंकारी न था। आज
अगर कोई उस तरह की अतीत जीवन की कहानियां कहेगा तो भरोसा मुश्किल हो जाएगा। लोग
बहुत जटिल हैं और लोगों का अहंकार बहुत प्रगाढ़ है।
बुद्ध ने कहा है,
कभी मैं जंगल में एक हाथी था। जंगल में आग लग गई थी। सारे पशु-पक्षी
भागे जा रहे थे।
दुःख से कौन नहीं बचना चाहता है? तुमने पशु-पक्षियों को दुःख से बचने के लिए
भागते देखा है, क्या उससे तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि जो
दुःख से बचना चाहते हैं वे सुख भी चाहते होंगे। जो दुःख से बचना चाहता है और सुख
चाहता है, क्या तुम्हें खयाल नहीं आता कि कभी अनजाने-जाने उसके हृदय में भी वह आकांक्षा जगती होगी, जो आनंद की है? पशु भी जानते हैं सुख, पशु भी जानते हैं दुःख,
और उस पीड़ा को भी जानते हैं जो सुख-दुःख में उलझ कर मिलती है। कभी
उनकी चेतना में भी वह क्षण आता है, जब दोनों के पार हो जाने
का भाव उठता होगा। निश्चित ही वह विचार उतना स्पष्ट नहीं हो सकता जितना मनुष्य का।
मनुष्य को भी कहां बहुत स्पष्ट है? कितने थोड़े-से मनुष्यों
को स्पष्ट है! अधिक मनुष्यता तो पशु पक्षियों जैसी ही जीती है।
तो बुद्ध ने कहा,
सारे जंगल के पशु भागने लगे, मैं भी भागा। थक
गया था। एक वृक्ष के नीचे खड़ा हो गया क्षण भर विश्राम को। और जैसे ही मैंने पैर
उठाया वहां से हटने को, एक खरगोश भागा हुआ आया, और जो जगह खाली हो गई थी मेरे पैर के उठाने से, उस
जगह आकर बैठ गया। पैर उठा हुआ ऊपर हाथी का, खरगोश नीचे बैठ
गया।
बुद्ध ने कहा,
मेरे मन में हुआ, मैं भी भाग रहा हूं प्राण को
बचाने को, यह खरगोश भी भाग रहा है प्राण को बचाने को--प्राण
को बचाने के संबंध में किसी में कोई भेद नहीं है। मेरे पास बहुत बड़ी देह है,
इस खरगोश के पास बड़ी छोटी देह है। मेरे पैर के पड़ते ही यह विनष्ट हो
जाएगा। लेकिन दुःख से सभी बचना चाहते हैं। सुख की सभी की आकांक्षा है। उसमें तो
कोई भेद नहीं है, छोटे-बड़े का कोई फर्क नहीं। करूणा का
आविर्भाव हुआ!
और बुद्ध ने कहा कि मैं खड़ा रहा, जब तक कि यह खरगोश हट न जाए, क्योंकि मैं पैर रखूंगा तो यह मर जाएगा। आग बढ़ती गई, खरगोश भागा नहीं; वह सुरक्षित था। शायद उसने सोचा हो
कि जब हाथी भी नहीं भाग रहा है तो कोई डर नहीं है। बड़ों के पीछे छोटे चलते हैं। तो
वह बैठा ही रहा सुरक्षित। आग भयंकर हो गई और हाथी जल कर मर गया।
बुद्ध ने कहा है,
उस जन्म में ही मैंने मनुष्यत्व को पाने की क्षमता पाई--उस घड़ी में
जब मैंने खरगोश पर करूणा की और मैं पैर को रोके खड़ा रहा। उसी क्षण मैंने मनुष्य
होने की क्षमता अर्जित कर ली। आज मैं मनुष्य हूं उसी घड़ी के वरदान-स्वरूप।
सारा जगत--पौधे भी. . . तुम्हें खयाल में न आते हो, लेकिन प्राण वहां संवादित
है, प्राण वहां पुलकित है, वहां भी
धड़कन है और वहां भी भाव की दशाएं हैं।
अब तो पश्चिम में विज्ञान बड़ी खोज कर रहा है। और जिन खोजों को
महावीर और बुद्ध ने सारी दुनिया को दिया,
लेकिन अब तक जो काव्य मालूम पड़ती थी; अब
विज्ञान के आधार से वे तथ्य बनती जा रही हैं।
पश्चिम में पिछले पांच वर्षो में बहुत से प्रयोग किए गए हैं, जिनसे यह पता चला कि पौधे
बहुत संवेदनशील हैं। उनकी संवेदना अद्भुत है! और न केवल संवेदनशील है, बल्कि टेलीफैथिक हैं। और मनुष्य ने भी वह क्षमता खो दी है--दूसरों के
विचार को पकड़ लेने की, दूसरे के विचार को पढ़ लेने की;
उसमें भी पौधे सक्षम हैं। यह भरोसे की बात नहीं मालूम पड़ती। लेकिन
अब तो विज्ञान ने बड़े प्रयोग कर लिए हैं।
पौधा पकड़ता है दूसरे के विचार को भी।
एक वैज्ञानिक पौधों पर काम कर रहा था कि उनमें संवेदना कितनी
है। सर जगदीशचंद्र बसु ने जो काम अधूरा छोड़ दिया था, उसको वह पूरा कर रहा था--वह उनका एक शिष्य है,
अमरीकी है--और चाहता था कि उन्होंने जो काम छोड़ दिए उसे आगे बढ़ाया
जाए। तो एक पौधे के पास बैठा था, पौधे के साथ उसने तार जोड़
रखे थे विद्युत के। जैसे कि डाक्टर आपके हृदय की जांच करता है, कार्डियोग्राम लेता है, तो तार जोड़ देता है और फिर
हृदय की धड़कन कागज पर ग्राफ बनाने लगती है--ऐसे उसने पौधे पर तार जोड़े दिए थे कि
पौधे की क्या मनोदशा है, क्या धड़कन है उसके हृदय की? वह कागज पर ग्राफ बनने लगा था।
वह ग्राफ बन रहा था,
तभी उसने सोचा कि अगर मैं छुरी को उठाकर इस पौधे को आधा काट दूं तो
क्या होगा? वह हैरान हो गया! ग्राफ पर तो खबर पहुंच गई। अभी
उसने काटा नहीं है, अभी उसने छुरी उठाई नहीं है; सिर्फ एक भाव कि अगर मैं छुरी उठाकर आधा इसको काट दूं तो इसकी क्या
भाव-दशा होगी? ग्राफ में तो घबड़ाहट आ गई। ग्राफ में तो कंपन
आ गया--वैसा ही कंपन, जैसे कोई तुम्हारी छाती पर छुरा लेकर
खड़ा हो जाता है, तब जैसा कंपन तुम्हारे कार्डियोग्राम में आ
जाएगा, ठीक वैसा ही कंपन पौधे पर आ गया। लेकिन अभी कोई छुरा
लेकर खड़ा भी न हुआ था। अभी किसी ने छुरा उठाया भी न था। अभी सिर्फ भाव में बात उठी
थी। लेकिन पोधे ने भाव को पकड़ लिया। पौधा भाव से भयभीत हो गया।
इस वैज्ञानिक ने लिखा है कि पौधे को यह भूलने में कई दिन लगे, क्योंकि जब भी वह
प्रयोगशाला के भीतर आता पौधा घबड़ा जाता। इस आदमी को पहचानने लगा कि यह आदमी खतरनाक
है, इसके मन में एक बुरा विचार है।
यह बात आई-गई हो गई। न इसने छुरा उठाया, न पौधे को काटा। लेकिन जब
भी यह अंदर आता तो पौधा थोड़ा शंकित हो जाता, उसके ग्राफ में
फर्क पड़ जाता। कोई बीस दिन लगे पौधे को यह बात भूलने में कि यह आदमी बुरा नहीं है,
बीस दिन इसने काटा नहीं है, काटने का विचार
नहीं किया। तब कहीं जाकर पौधा आश्वस्त हुआ।
एक दूसरा वैज्ञानिक केंचुओं पर प्रयोग कर रहा था और केंचुओं को
गर्म पानी में डाल रहा था, और यह देख रहा था वह कि गर्म पानी का क्या परिणाम होता है केंचुओं
पर--तड़फते हैं, मर जाते हैं तत्क्षण, स्वीकार
कर लेते हैं मरने को, या संघर्ष करते हैं बचने का? पास में ही एक कैक्टस का पौधा रखा था। उसके साथ तार जुड़े थे, उस पर भी प्रयोग चल रहा था। लेकिन यह तो आकस्मिक घटना घटी। जैसे ही उसने
केंचुए को गर्म पानी में डाला, पौधा घबड़ा गया और पौधे का
ग्राफ बदल गया। यह तो आकस्मिक था। यह किया नहीं था प्रयोग उसने। लेकिन यह जानकर वह
हैरान हुआ कि न केवल तुम पौधों को हानि पहुंचाओ, तब पौधे के
प्राण में पीड़ा होती है; तुम किसी भी जीवित चीज को नुकसान
पहुंचाओ, पौधा कांपता है और घबड़ाता है।
अब तो बहुत काम पौधे पर किये गए हैं। और एक अनूठी किताब पश्चिम
में प्रकाशित हुई है; "दि सिक्रेट लाइफ आफ दि प्लांट्स"। बाइबल और कुरान और धम्मपद की कीमत
की किताब है। क्योंकि जो महावीर और बुद्ध कहे, उसे इस किताब
ने परिपूर्ण रूप से सिद्ध करने की कोशिश की है कि पौधों का एक अज्ञात जीवन है
जिसका हमें कोई पता नहीं।
और अगर पौधों का अज्ञात जीवन है, तो पक्षियों का तो कहना ही क्या! पक्षी तो बहुत
विकसित अवस्था है।
वे जो पक्षी तुम्हें गीत गाते दिखाई पड़ते हैं, वे भी आकस्मिक नहीं आ गए
हैं। तुम भी आकस्मिक नहीं आ गए हो। आकस्मिक कुछ होता ही नहीं। इस संसार में आकस्मिक शब्द झूठा है।
ऐक्सीडेंटल जैसी बात कुछ होती ही नहीं। यहां सभी चीजें तारतम्य में बंधी हैं। यहां
जो भी घटता है, उसके
आगे-पीछे बड़े सूत्रों का जाल है।
तुम अगर यहां हो तो ऐसे ही नहीं, जन्मों-जन्मों का हाथ होगा। तुम्हें पता न हो,
क्योंकि तुम्हें अपना पता ही कहां है! इसलिए जो पक्षी वृक्ष पर
बैठकर गीत गा रहा है, उसे पता न हो कि इसी वृक्ष को उसने
क्यों चुन लिया है? आज की सुबह ही गीत गाने को क्यों चुन
लिया है? तुम्हें भी पता नहीं, मनुष्य
को पता नहीं तो पक्षी को तो पता क्या होगा!
लेकिन जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है, अकारण कुछ भी नहीं है;
एक विराट प्रयोजन प्रवाहित है। पत्थर से भी उस प्रयोजन का संबंध है,
पहाड़ से भी उस प्रयोजन का संबंध है, पक्षियों
से भी, पौधों से भी। एक विराट प्रयोजन सारे जगत को एक बड़ी
तीर्थयात्रा पर ले जा रहा है।
कहे कबीर दीवाना
ओशो