स्वाभिमान अभिमान नहीं। भिन्नता ही नहीं है, विरोध है। अभिमान दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझने का भाव है। अभिमान एक रोग है। किस-किस से अपने को श्रेष्ठ समझोगे? कोई सुंदर है ज्यादा, कोई स्वस्थ है ज्यादा, कोई प्रतिभाशाली है, कोई मेधावी है।
अभिमानी जीवन भर दुख झेलता है। जगह-जगह चोटें खाता है। उसका जीवन घाव और घाव से भरता चला जाता है। दूसरे से तुलना करने में अभिमान है। और मैं दूसरे से श्रेष्ठ हूं, ऐसी धारण में अभिमान है।
स्वाभिमान बात ही और है। स्वाभिमान अत्यंत विनम्र है। दूसरे से श्रेष्ठ होने का कोई सवाल नहीं है। सब अपनी-अपनी जगह अनूठे हैं। यह स्वाभिमान की स्वीकृति है कि कोई किसी से न ऊपर है, और कोई किसी से न नीचे है। एक छोटा-सा घास का फूल और आकाश का बड़े से बड़ा तारा, इस अस्तित्व में दोनों का समान मूल्य है। यह छोटा-सा घास का फूल भी न होगा तो अस्तित्व में कुछ कमी हो जाएगी, जो महातारा भी पूरी नहीं कर सकता।
स्वाभिमान इस बात की स्वीकृति है कि यहां प्रत्येक अनूठा है। और कोई दौड़ नहीं है, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। हां, यदि कोई दूसरा तुम पर आक्रामक हो...स्वाभिमान में कोई आक्रमण नहीं है, लेकिन अगर कोई दूसरा तुम पर आक्रामक हो तो स्वाभिमान में संघर्ष की क्षमता है--दूसरे को छोटा दिखाने के लिए नहीं, दूसरे का आक्रमण गलत है, हर आक्रमण गलत है यह सिद्ध करने को।
स्वाभिमान की कोई अकड़ नहीं। सीधा-सदा है। लेकिन बड़ी से बड़ी शक्ति दुनिया का स्वाभिमानी व्यक्ति को नीचा नहीं दिखा सकती। यह बड़ा अनूठा राज है। स्वाभिमानी व्यक्ति विनम्र है, इतना विनम्र है कि वह खुद ही सबसे पीछे खड़ा है। अब उसको और कहां पीछे पहुंचाओगे?
अब्राहम लिंकन के संबंध में एक उल्लेख है कि एक विशेष वैज्ञानिकों के सम्मेलन में उन्हें निमंत्रित किया गया। वे गए भी। लेकिन लोग उनकी राह देख रहे थे उस द्वार पर, जो मंच के निकट था। क्योंकि देश का राष्ट्रपति आए तो मंच पर, सबसे ऊंचे सिंहासन पर उनके बैठने की जगह थी।
लेकिन वे आए भी उस द्वार से, जहां से भीड़ आ रही थी आम लोगों की--जिनका न कोई नाम है, न कोई ठौर है, न कोई ठिकाना है। और बैठे रहे वही, जहां लोग जूते छोड़ जाते हैं।
देर होने लगी सभा के होने में। संयोजक घोषणाएं करने लगे की बड़ी मुश्किल है, हमने अब्राहम लिंकन को आमंत्रित किया है और वे अभी तक पहुंचे नहीं। और उनकी बिना मौजूदगी के सम्मेलन को हम शुरू करें, यह जरा अपमानजनक है। और देर होती जा रही है।
अब्राहम लिंकन के पास में बैठे हुए आदमी ने उन्हें टिहुनी से धक्का दिया कि महाराज, खड़े होकर साफ-साफ कह क्यों नहीं देते कि तुम मौजूद हो, सम्मेलन शुरू हो? अब्राहम लिंकन ने कहा कि मैं चाहता था चुपचाप...क्योंकि यह वैज्ञानिकों का सम्मेलन है। इसमें मेरे प्रधान होने का कहां सवाल उठता है?
लेकिन तब तक दूसरे लोगों ने भी देख लिया। संयोजक भी भागे आए और उनसे कहा, यह आप क्या कर रहे हैं? यह हमारे सम्मेलन का सम्मान नहीं, अपमान हो रहा है कि आप वहां बैठे हैं, जहां लोग जूते छोड़ जाते हैं। अब्राहम लिंकन ने कहा, नहीं, मैं वहां बैठा हूं, जहां से और पीछे न हटाया जा सकूं।
यह बात कि मैं वहां बैठा हूं, जहां से और पीछे न हटाया जा सकूं--बड़े स्वाभिमानी व्यक्ति की बात है। स्वाभिमानी किसी को नीचे तो दिखाना नहीं चाहता, और न ही किसी को मौका देगा कि कोई उसे नीचे दिखा सके।
अभिमान बहुत सरल बात है। रोग आम है, स्वाभिमान का स्वास्थ्य बहुत मुश्किल है। और कभी जब किसी व्यक्ति में पैदा होता है, तो पहचानना भी मुश्किल होता है। क्योंकि उसका कोई दावा नहीं। लेकिन चमत्कार तो यही है कि स्वाभिमान का कोई दावा नहीं, यही उसका दावा है। स्वाभिमानी व्यक्ति किसी के ऊपर अपने को रखना नहीं चाहता, और किसी को कभी अपने ऊपर गुलामी लादने न देगा।
इसलिए बात थोड़ी जटिल हो जाती है और भूल-चूक हो जाती है।
भारत में इस भूल-चूक का बड़ा बुरा परिणाम हुआ है। दो हजार साल तक हम गुलाम रहे। हमारी गुलामी का कारण क्या था? भारत अकेला देश है सारी दुनिया के इतिहास में, जिसने किसी पर भी कोई हमला नहीं किया। क्योंकि सदियों से इस देश के ऋषियों ने, द्रष्टाओं ने, प्रबुद्ध पुरुषों ने एक बात सिखाई है--अनाक्रमण, अहिंसा, करुणा, प्रेम। लेकिन यह बात कुछ अधूरी रह गई। भारत यह तो सीख गया कि आक्रमण नहीं करना है, लेकिन यह न सीख पाया कि आक्रमण होने भी नहीं देना है। वह जो दूसरा हिस्सा छूट गया,
उसकी वजह से हम दो हजार साल गुलाम रहे। यह तो भारत सीख गया कि हिंसा नहीं करनी,
लेकिन यह बात भूल ही गई कि हिंसा होने भी नहीं देनी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं हिंसा करता हूं किसी और की,
या किसी और को हिंसा करने देता हूं अपने ऊपर?
दोनों हालत में मैं हिंसा करने दे रहा हूं।
अगर बात को ठीक से समझा गया होता,
तो यह देश दो हजार साल तक गुलाम न रहता। और बात अभी भी समझी नहीं गई है। अभी भी हम उन्हीं पुरानी परंपराओं, पुराने खयालों में दबे हुए हैं।
जितनी ऊंची जीवन-अनुभूतियां हैं,
वे सब ऐसी हैं जैसी तलवार की धार पर चलना। जरा-सी चूक...न बाएं-न दाएं,
ठीक मध्य में। वैसा स्वाभिमान है। न तो किसी पर अपने अहंकार की छाप छोड़नी है,
और न किसी को यह हक देना है कि वह अपने अहंकार की छाप पर तुम पर छोड़ सके।
इसलिए स्वाभिमानी होना एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अभिमानी होना एक सांसारिक बीमारी है। स्वाभिमान में न तो स्व है और न अभिमान। यही भाषा की मुश्किल है,
यहां जो कचरा है उसे प्रकट करने के लिए तो हमारे पास शब्द होते हैं लेकिन जो हीरे हैं,
उनको प्रकट करने के लिए हमारे पास शब्द भी नहीं होते। तो हमें शब्द बनाने पड़ते हैं।
अभिमान ठीक-ठीक प्रकट करता है उस दशा को,
जो अहंकारी की होती है। लेकिन स्वाभिमान खतरनाक शब्द हो गया है। क्योंकि इसमें अभिमान आधा है। डर है कि तुम कहीं स्वाभिमान की परिभाषा अभिमान से न कर लो। कहीं तुम अभिमान को ही स्वाभिमान न समझने लगो। और इसमें हमने ""स्व'' भी जोड़ दिया है। कहीं स्व का अर्थ अहंकार न हो जाए।
जोड़ा है स्व जिनने,
बहुत सोचकर जोड़ा है। मगर जोड़ने वाले से क्या होता है?
जिन्होंने इसमें स्व जोड़ा है,
उनका अर्थ है कि स्वाभिमानी केवल वही हो सकता है,
जो स्वयं को जानता हो,
जिसने स्वयं को पहचाना हो। ऐसे व्यक्ति में अभिमान हो ही नहीं सकता। और ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने ऊपर अभिमान थोपने का मौका नहीं दे सकता। न खुद गलती करेगा,
न दूसरे को करने देगा।
लेकिन भाषा की कमजोरियां हैं। अभिमान भी गलत शब्द है और स्व के साथ भी खतरा है,
कि उसका कहीं अर्थ तुम अहंकार न समझ लो। आमतौर से स्वाभिमान में और अभिमान में कोई फर्क नहीं है। आमतौर से मेरा मतलब है,
तुम्हारे मनों में--दोनों में कोई फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है कि तुम अपने अभिमान को स्वाभिमान कहते हो,
और दूसरे आदमी के स्वाभिमान को अभिमान कहते हो। बस इतना ही फर्क है। लेकिन अगर मेरी बात समझ में आ गई हो तो बारीक जरूर है,
मगर समझ में न आए इतनी असंभव नहीं है।
कोपलें फिर फूट आयी
ओशो
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