निश्चित
ही,
अभी जिस विकास को हम जानते हैं वह महत्वाकांक्षा
के
ही
द्वारा होता है। लेकिन सच में क्या जीवन का विकास हुआ है? कभी यह सोचा कि विकास हुआ है? क्या विकास हुआ है? आपके पास अच्छे कपड़े हैं हजार साल पहले से, इसलिए विकास हो गया? या कि आपके पास बैलगाड़ियों
की
जगह मोटरगाड़ियां हैं, इसलिए विकास हो गया? क्या आप झोपड़ी की जगह बड़े मकान में रहते हैं सीमेंट-कांक्रीट
के,
इसलिए विकास हो गया?
यह विकास नहीं है। मनुष्य के हृदय में, मनुष्य की आत्मा में कौन सी ज्योति जली है जिसको हम विकास कहें? कौन सा आनंद स्फूर्त
हुआ है जिसको हम विकास कहें? मनुष्य के भीतर क्या फलित हुआ है, कौन से फूल लगे हैं जिसको हम विकास कहें? कोई विकास नहीं दिखाई पड़ता। कोई विकास नहीं दिखाई पड़ता, एक कोल्हू का बैल चक्कर काटता रहता है अपने घेरे में, वैसे ही मनुष्य की आत्मा चक्कर काट रही है। हां, कोल्हू के बैल पर कभी रद्दी कपड़े पड़े थे, अब उस पर बहुत मखमली कपड़े पड़े हैं। लेकिन इससे विकास नहीं हो जाता। या कोल्हू के बैल पर हीरे-जवाहरात
लगा कर हम कपड़े टांग दें, तो भी विकास नहीं हो जाता। कोल्हू का बैल कोल्हू का बैल है और चक्कर काटता रहता है। और उस चक्कर काटने को ही वह सोचता है: मैं बढ़ रहा हूं, आगे बढ़ रहा हूं।
मनुष्य आगे नहीं बढ़ रहा है। इधर हजारों साल से उसमें कोई परिलक्षण
ज्ञात नहीं हुए जिससे वह आगे गया हो--कि उसकी चेतना ने नये तल छुए हों, कि उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी
हुई हो, कि उसकी चेतना ने आकाश की कोई और अनुभूतियां
पाई हों, कि उसकी चेतना पृथ्वी से मुक्त हुई हो और ऊपर उठी हो, कि वह परमात्मा
की
तरफ गया हो--यह कोई विकास नहीं हुआ है।
महत्वाकांक्षा
अगर है तो इस तरह का विकास हो ही नहीं सकता। विकास हो सकता है कि मकान बड़े होते चले जाएंगे।
और
यह
घड़ी आ सकती है कि मकान इतने बड़े हो जाएं कि आदमी को खोजना मुश्किल
हो
जाए,
वह
इतना छोटा हो जाए। और यह घड़ी आ सकती है कि सामान इतना ज्यादा हो जाए कि आदमी अपने ही हाथ के द्वारा बनाए गए सामान के नीचे दबे और मर जाए। और यह हो सकता है कि एक दिन हम इतना विकास कर लें, यह तथाकथित
विकास,
कि
हमारे पास सब हो, सिर्फ आदमी की आत्मा न बचे।
एक
बार ऐसा
हुआ। एक
नगर में
आग लग
गई थी
और एक
भवन जल
रहा था
लपटों में।
और भवनपति बाहर खड़ा
था और
रो रहा
था और
आंसू बह
रहे थे,
और उसकी
समझ में
भी नहीं
आ रहा
था कि
क्या करे,
क्या न
करे! लोग
जा रहे
थे और
सामान ला
रहे थे।
एक संन्यासी भी खड़ा
हुआ देख
रहा था।
जब सारा
सामान बाहर
आ गया,
तो सामान लाने वाले
लोगों ने
पूछा, कुछ
और बच
गया हो
तो बताएं?
क्योंकि अब
अंतिम बार
भीतर जाया
जा सकता
है, उसके
बाद फिर
आगे संभावना नहीं है,
लपटें बहुत
बढ़ गई
हैं, यह
आखिरी मौका
है कि
हम भीतर
जाएं।
उस भवनपति ने कहा, मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ता, तुम एक दफा और जाकर देख लो, कुछ हो तो ले आओ।
वे भीतर गए, भीतर से रोते हुए वापस लौटे। भीड़ लग गई, सबने पूछा, क्या हुआ? उनसे कुछ कहते भी नहीं बनता है। वे कहने लगे, हम तो भूल में पड़ गए। हम तो सामान बचाने में लग गए, मकान मालिक का इकलौता लड़का भीतर सोया था, वह जल गया और समाप्त हो गया। सामान हमने बचा लिया, सामान का मालिक तो खत्म हो गया।
वह संन्यासी
वहां खड़ा था, उसने अपनी डायरी में लिखा: ऐसा ही इस पूरी दुनिया में हो रहा है लोग सामान बचा हे हैं और आदमी समाप्त होता जा रहा है। और इसको हम विकास कहते हैं!
यह विकास नहीं है। अगर यही विकास है तो परमात्मा
इस
विकास से बचाए। यह विकास नहीं है, यह कतई विकास नहीं है। लेकिन महत्वाकांक्षा
यही कर सकती थी--सामान बढ़ा सकती थी, शांति नहीं बढ़ा सकती थी; शक्ति बढ़ा सकती थी, शांति नहीं बढ़ा सकती थी। महत्वाकांक्षा
दौड़ा सकती थी, कहीं पहुंचा नहीं सकती थी। फिर क्या हो? अगर महत्वाकांक्षा
न
हो
तो
क्या हो?
महत्वाकांक्षा
नहीं,
प्रेम होना चाहिए। किससे प्रेम? अपने व्यक्तित्व
से
प्रेम,
अपने व्यक्तित्व के भीतर जो छिपी हुई संभावनाएं
हैं उनको विकास करने से प्रेम, अपने भीतर जो बीज की तरह पड़ा है उसे अंकुरित
करने से प्रेम। प्रतियोगिता
और
महत्वाकांक्षा दूसरे की तुलना में सोचती है और विकास की ठीक-ठीक दशा दूसरे की तुलना में नहीं सोचती, दूसरे के कंपेरिजन
में नहीं सोचती, अपने विकास की, अपने बीजों को परिपूर्ण
विकसित करने की भाषा में सोचती है। इन दोनों बातों में फर्क है।
अगर मैं संगीत सीख रहा हूं, इसलिए सीख रहा हूं कि दूसरे जो संगीत सीखने वाले लोग हैं उनसे आगे निकल जाऊं। मुझे संगीत से न कोई प्रेम है, न अपने से कोई प्रेम है। मुझे दूसरे संगीत सीखने वालों से घृणा है,र् ईष्या है। न तो मुझे अपने से प्रेम है और न मुझे संगीत से प्रेम है। मुझे दूसरे संगीत सीखने वालों से घृणा है,र् ईष्या है, जलन है। उनसे मैं आगे होना चाहता हूं। लेकिन क्या यही एक दिशा है सीखने की? और क्या ऐसा व्यक्ति
संगीत सीख पाएगा जिसके मन मेंर् ईष्या है, जलन है?
नहीं, संगीत के लिए तो शांत मन चाहिए, जहांर् ईष्या न हो, जहां जलन
न हो।
संगीत नहीं
सीख पाएगा। और सीखेगा तो वह
झूठा संगीत होगा। उससे
उसके प्राणों में न
तो आनंद
होगा, और
न उसके
प्राणों में
फूल खिलेंगे और न
शांति आएगी।
नहीं,
एक और
रास्ता भी
है कि
मुझे संगीत से प्रेम हो। संगीतज्ञों सेर् ईष्या और नफरत
और घृणा
नहीं, प्रतियोगिता नहीं, प्रतिस्पर्धा नहीं,
काम्पिटीशन नहीं,
वरन मुझे
संगीत से
प्रेम हो
और अपने
से प्रेम हो। और
मेरे भीतर
संगीत की
जो संभावना है वह
कैसे बीज
अंकुरित होकर
पौधे बन
सकें, कैसे
संगीत के
फूल मेरे
भीतर आ
सकें, इस
दिशा में
मेरी सारी
चेष्टा हो।
यह नॉन-काम्पिटीटिव होगी,
इसमें कोई
प्रतियोगिता नहीं
है किसी
और से।
मैं अकेला हूं यहां
और अपनी
दिशा खोज
रहा हूं
जीवन में।
किसी से
संघर्ष नहीं
है मेरा,
मैं किसी
को आगे-पीछे करने
के खयाल
में और
विचार में
नहीं हूं।
जब
तक दुनिया में इस
भांति की
प्रेम पर
आधारित जीवन-दृष्टि नहीं
होगी तब
तक दुनिया में राजनीति से छुटकारा नहीं हो
सकता। राजनीति एंबीशन का
अंतिम चरम
परिणाम है।
महत्वाकांक्षा सिखाएंगे,
राजनीतिज्ञ पैदा
होगा। महत्वाकांक्षा सिखाएंगे,
कभी भी
अहिंसक चित्त पैदा नहीं
होगा, हिंसक चित्त पैदा
होगा। यह
सारी दुनिया की जो
राजनीति फलित
हुई है,
यह हमारी गलत शिक्षा का फल
है जिसने महत्वाकांक्षा सिखाई है। गलत
सभ्यता और
गलत संस्कृति का फल
है, जो
सिखाती है--दूसरों से
आगे बढ़ो,
दूसरों से
आगे निकलो,
दूसरों से
पहले हो
जाओ।
नहीं,
सिखाना यह
चाहिए कि
तुम पूरे
बनो, तुम
पूरे खिलो,
तुम पूरे
विकसित हो
जाओ। दूसरे से कोई
संबंध नहीं
सिखाया जाना
चाहिए। दूसरे से कोई
वास्ता भी
क्या है।
और इस
दूसरे के
साथ संघर्ष में, इस
दूसरे के
साथ प्रतियोगिता में अक्सर यह होता
है कि
जो हम
हो सकते
थे वह
हम नहीं
हो पाते
हैं। क्योंकि हमें इस
तरह के
ज्वर पकड़
जाते हैं
जो हमारे प्राणों की
प्रतिभा नहीं
थी, जो
हमारे प्राणों के भीतर
की वास्तविक पोटेंशियलिटी नहीं
थी, जिसके बीज ही
हमारे भीतर
नहीं थे
वह महत्वाकांक्षा में
हमारे भीतर
पकड़ जाते
हैं। तब
परिणाम यह
होता है
कि जो
एक अदभुत बढ़ई हो
सकता था,
वह एक
मूर्ख डाक्टर होकर बैठ
जाता है।
तब परिणाम यह होता
है कि
जो एक
अदभुत डाक्टर हो सकता
था, वह
किसी अदालत में सिर
पचाता है
और वकील
हो जाता
है। तब
परिणाम यह
होता है
कि सब
गड़बड़ हो
जाता है।
जो जहां
हो सकते
थे वहां
नहीं हो
पाते और
जहां नहीं
होने चाहिए थे वहां
हो जाते
हैं। और
जिंदगी सब
बोझिल और
भारी और
कष्टपूर्ण हो
जाती है।
जीवन
के परम
आनंद के
क्षण वे
हैं जब
कोई व्यक्ति उस काम
को खोज
लेता है
जो उसके
भीतर की
संभावना है।
तब उसके
व्यक्तित्व में
एक निखार,
एक प्रकाश,
एक प्रफुल्लता आ जाती
है।
समाधी कमल
ओशो
No comments:
Post a Comment