कर्म पर ध्यान देने से कर्ता मिट जाता है। क्योंकि धीरे-धीरे सब कर्म शांत हो जाते हैं; निष्क्रियता का उदय हो जाता है; तुम्हारे कर्ता का भाव चला जाता है कि मैं कर्ता हूं। जब कुछ कर ही नहीं रहे हो तो कर्ता कहां? तुम होते हो, कर्ता नहीं होते; साक्षी बन जाते हो। फिर निष्क्रियता पर ध्यान दो,
तो तुम साक्षी भी न रह जाओगे। बस तुम बचोगे। कहने को कुछ भी न रहेगा कि तुम कौन हो--कर्ता कि साक्षी।
तो तीन स्थितियां हैं: कर्ता; अकर्ता, अकर्ता यानी साक्षी; और फिर एक तीसरी स्थिति है दोनों के पार, अतिक्रमण, ट्रांसेंडेंस।
कर्म को देख कर साक्षी बनोगे। फिर अकर्म को देख कर साक्षी के भी पार हो जाओगे। वहां फिर कोई शब्द सार्थक नहीं है। फिर तुम यह न कह सकोगे मैं कौन हूं।
बोधिधर्म से पूछा चीन के सम्राट ने, तुम कौन हो? तो बोधिधर्म ने कहा, मुझे पता नहीं। चीन के सम्राट ने अपने दरबारियों
से कहा, हम तो सोचते थे कि धर्म का संबंध आत्मज्ञान से है। तो यह बोधिधर्म किस तरह का ज्ञानी है? क्योंकि यह कहता है मुझे कुछ पता नहीं।
तुम भी सुनोगे तो यही समझोगे। लेकिन बोधिधर्म तुम्हारे आत्मज्ञानियों से बड़ा ज्ञानी है। वह एक कदम और ऊपर गया है।
अज्ञानी को भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। परम ज्ञानी को भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं। अज्ञानी को इसलिए पता नहीं कि उसे होश नहीं है। परम ज्ञानी को इसलिए पता नहीं रहता कि होश ही होश बचता है, रोशनी ही रोशनी बचती है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता रोशनी में, कोई आब्जेक्ट
नहीं बचता,
कोई वस्तु नहीं बचती; सिर्फ प्रकाश रह जाता है। अनंत प्रकाश, और दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता, तो किसको कहें कि मैं कौन हूं?
एक अज्ञान है; अंधकार के कारण दिखाई नहीं पड़ता। और ज्ञानी का भी एक परम अज्ञान है, जब रोशनी ही रोशनी रहती है, और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
बोधिधर्म ने बड़ी अदभुत बात कही है; शायद ही किसी दूसरे ज्ञानी ने इतने हिम्मत से कही है कि मुझे कुछ भी पता नहीं। सम्राट नहीं समझ पाया,
क्योंकि यह तो भाषा के पार की बात हो गई। बोधिधर्म के शिष्यों में भी थोड़े ही समझ पाये। उनको भी लगा कि यह तो बोधिधर्म ने कैसा जवाब दिया! ज्ञानी को तो कहना चाहिए कि हां, मुझे पता है कि मैं कौन हूं। ज्ञानी ने कहा कि मुझे भी पता नहीं कि मैं कौन हूं!
वह इसीलिए कहा कि जब न कर्ता बचा,
न साक्षी बचा, तो अब क्या उत्तर देना है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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