मेरे
एक प्रोफेसर थे। उनका मुझसे बड़ा लगाव था। लेकिन वे मुझे घर बुलाने में डरते थे, क्योंकि शराब पीने की उन्हें आदत थी। और कहीं ऐसा न हो कि मुझे पता चल जाए। कहीं ऐसा न हो कि मेरे मन में उनकी जो प्रतिष्ठा है, वह गिर जाए। वे इससे बड़े भयभीत थे, बड़े डरे हुए थे। बहुत भले आदमी थे।
पर
एक बार ऐसा हुआ कि मैं बीमार पड़ा और उन्हें मुझे हास्टल से घर ले जाना पड़ा। तो कोई दो महीने मैं उनके घर पर था। बड़ी मुश्किल हो गई। वे पीए कैसे? पांच-दस दिन के बाद तो भारी होने लगा मामला। मैंने उनसे पूछा कि आप कुछ परेशान हैं, मुझे
कह ही दें-अगर आप ज्यादा परेशान हैं, या
कोई अड़चन है मेरे होने से यहां, तो मैं चला जाऊं वापस। उन्होंने कहा कि नहीं। पर मैं अपनी परेशानी कहे देता हूं कि मुझे पीने की आदत है। तो मैंने कहा, यह भी कोई बात हुई! आप पी लेते, लुक-छिपकर पी लेते, इतना बड़ा बंगला है। उन्होंने कहा, यही तो मुश्किल है, कि जब भी कोई पीता है-असली पीने वाला-अकेले में नहीं पी सकता। चार-दस मित्रों को न बुलाऊं तो पी नहीं सकता। अकेले में भी क्या पीना! उन्होंने कहा, पीना कोई दुख थोड़े ही है, पीना एक उत्सव है।
वह
बात मुझे याद रह गई। जब जीवन की साधारण मदिरा को भी लोग बांटकर पीते हैं, तो जब तुम्हारी प्याली में परमात्मा भर जाए, और तुम न बांटो! जब शराबी भी इतना जानते हैं कि अकेले पीने में कोई मजा नहीं, जब तक चार संगी-साथी न हों तो पीना क्या! जब शराबी भी इतने होशपूर्ण हैं कि चार को बांटकर पीते हैं, तो होश वालों का क्या कहना!
बांटो।
शक्ति का आविर्भाव हुआ है, लुटाओ। और यह भी मत पूछो किसको दे रहे हो, क्योंकि यह भी कंजूसों की भाषा है। पात्र की चिंता वही करता है जो कंजूस है। वह पूछता है, किसको देना? पात्र है कि नहीं? दो पैसा देता है, तो सोचता है की यह आदमी दो पैसे का क्या करेगा? यह भी कोई देना हुआ, अगर हिसाब पहले रखा कि यह क्या करेगा? यह तो देना न हुआ, यह तो इंतजाम पहले ही न देने का कर लिया। यह तो तुमने इस आदमी को न दिया, सोच-विचारकर दिया।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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