एक दफा ऐसा हुआ कि एक राजा के दरबार में एक बहुत खुशामदी आदमी था, बहुत स्तुतिकार था। और सभी राजाओं के दरबारों में रहे हैं। तो वह कुछ भी राजा को समझाता रहता था और पैसे लेता रहता था। एक दिन उसने कहा कि महाराज, आपके पास जो ये वस्त्र हैं, ये आप जैसे सम्राट के योग्य नहीं। मैं इंद्र की पोशाक आपके लिए ला सकता हूं।
तो राजा ने कहा, यह तो बिलकुल ही ठीक है। कितना खर्च होगा?
उसने कहा कि पांच हजार रुपये तो खर्च होगा। पांच हजार रुपये लाने ले जाने में, क्योंकि दो लोक तक जाना।
तो कौन जाएगा?
उसने कहा, इसकी आप फिक्र न करें, मैंने एक आदमी खोज लिया है जो जाता है चमत्कार के बल से। तो पांच हजार आने-जाने का खर्च होगा, पांच हजार वस्त्रों के दाम हो जाएंगे।
राजा ने कहा, ये दस हजार रुपये लो। क्योंकि मैं इतना छोटा सम्राट तो नहीं कि साधारण कपड़े पहनूं, मुझे इंद्र की पोशाक चाहिए।
और दरबारियों ने कहा कि यह बिलकुल निपट गंवारी की बात है, यह कभी सुना नहीं गया, इंद्र की पोशाक! लेकिन अब क्या कहते, ठीक है, अब अगर यह आदमी कहता है तो। उसने कहा, पंद्रह दिन बाद मैं हाजिर हो जाऊंगा। पंद्रह दिन बाद वह आया और बोला, बहुत मुश्किल है, वहां भी रिश्वत चलने लगी। वे पांच हजार में देने को राजी नहीं होते। दस हजार लग जाएंगे।
और खबर तो पहुंच ही गई होगी रिश्वत की, वे कोई नासमझ तो नहीं हैं देवता, कि इधर आदमी इतना मजा कर रहा है और वे वहां नासमझी करते रहें, वे भी रिश्वत लेने लगे होंगे। तो राजा को भी जंचा कि गलती तो कुछ है नहीं, जब यहां रिश्वत चलती है तो वहां भी चलती होगी। तो उसने पांच हजार और दिए। कितने दिन लगेंगे?
उसने कहा, और पंद्रह दिन लग जाएंगे।
दरबारी तो समझते ही थे कि यह धोखा देगा। यह फिर गड़बड़ कर रहा है। पता नहीं बाद में कहने लगे कि वह आदमी लौटा ही नहीं, मर गया या क्या हुआ। लेकिन अब क्या कह सकते थे?
लेकिन पंद्रह दिन बाद हैरान हुए, जब वह पेटी ही लेकर आ गया तो सब हैरान हुए। जब वह पेटी ही लेकर दरबार में आ गया तो सब हैरान हुए कि यह तो ले ही आया। उसने आकर ताला खोला और उसने कहा कि एक शर्त फकीर ने बतलाई है इस पोशाक के साथ। क्योंकि यह देवलोक की पोशाक है, यह पृथ्वी पर सभी को दिखाई नहीं पड़ेगी, यह सिर्फ उन लोगों को ही दिखाई पड़ेगी जो अपने ही बाप से पैदा हुए हों। क्योंकि यह तो देवलोक की पोशाक है, सबको दिखाई नहीं पड़ सकती है।
राजा ने कहा, यह तो बात ठीक ही है, देवलोक की पोशाक! पार्थिव जगत! सबको कैसे दिखाई पड़ेगी यह? ये तो अदृश्य वस्त्र हैं! लेकिन हां, उनको दिखाई पड़ेगी जो अपने ही बाप से पैदा हुए हैं।
राजा से उसने कहा कि अब मैं निकालता हूं वस्त्र, आप अपने वस्त्र निकालें।
राजा ने अपना कोट निकाला, उसने वहां से ऐसे हाथ किया और कहा, यह कोट लीजिए।
वह किसी को दिखाई तो पड़ा नहीं। कुछ था भी नहीं तो दिखाई क्या पड़ता। राजा ने भी कहा कि अगर मैं यह कहूं कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता तो व्यर्थ ही गड़बड़ हो जाएगी, लोग समझेंगे कि इनके बाप गड़बड़ रहे। दरबारियों ने भी कहा कि अब कौन इस झंझट में पड़े। किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा, लेकिन सब कहने लगे कि वाह-वाह, कितना सुंदर कोट है!
राजा ने पहना, वह डरा बहुत, क्योंकि कोट उतर गया उसका, वह उघाड़ा हो गया, और कोट जो पहना वह तो दिखाई पड़ता नहीं था। लेकिन जब सब दरबारी कहने लगे कि बहुत सुंदर, अदभुत, ऐसा तो कभी देखा नहीं! तो उसने भी सोचा कि अब मैं ही गलती क्यों करूं खुद कह कर। जब इन सबको दिखाई पड़ रहा है तो जरूर मेरे बाप में कुछ गलती, गड़बड़ रही है, नहीं तो इन सबको कैसे...
बाकी ने भी यही सोचा। स्वाभाविक था, सीधा लाजिकल है, सीधा तर्क है। सबको यह लगा कि जब सबको दिखाई पड़ रहा है तो मैं व्यर्थ ही झंझट में पड़ जाऊं और अपनी बदनामी करवाऊं, क्या फायदा! मुझे तो दिखाई नहीं पड़ रहा, लेकिन कहूं कैसे?
उसने धीरे-धीरे वस्त्र सब उतरवा लिए, राजा बिलकुल नंगा हो गया और एक-एक झूठे वस्त्र दे दिए, वे राजा ने पहन लिए। अब उसे बड़ी घबड़ाहट हुई। सारे गांव में खबर पहुंच गई कि राजा नंगा हो गया है, लेकिन दरबारी सब कहते हैं कि कपड़े पहने हुए है।
राजा का जुलूस निकला। अब सड़कों पर भीड़ है, लोग खड़े हैं, देख रहे हैं कि राजा नंगा है, लेकिन कौन कहे? यह कौन कहे कि यह नंगा है, क्योंकि जो यह कहे वह फजीहत में पड़ जाए, वह मुसीबत में पड़ जाए। सब लोग कहने लगें: वाह! तुम्हारे पिता जरूर तुम्हारे पिता नहीं रहे, गड़बड़ है कुछ मामला। पूरी बस्ती में घूम आया। एक छोटा सा बच्चा बीच में आया और वह बोला कि मैं बड़ा हैरान हूं, यह राजा तो बिलकुल नंगा है!
लोगों ने कहा कि चुप, यह कहना मत।
वह लड़का बोला, लेकिन हद्द हो गई, ये सब लोग देख रहे हैं राजा नंगा है!
उसने कहा, दुनिया देख रही हो, तू मत बोल, उसके बाप ने कहा। तुझे बोलने की जरूरत नहीं है, तू शांत रह।
यह कथा हंसने जैसी नहीं है, करीब-करीब जिंदगी में ऐसा ही हो गया है, धर्म का मामला करीब-करीब ऐसा ही हो गया है। पत्थर की मूर्तियां रखी हैं कि ये भगवान हैं। और सब कह रहे हैं कि हां। अगर कोई बच्चा कभी कहे तो उसको हम डांट देंगे--चुप! तू झंझट में क्यों पड़ता है?
फिर ये रामचंद्रजी खड़े हुए हैं, ये कृष्णजी खड़े हुए हैं, ये क्राइस्ट खड़े हुए हैं। ये सब मूर्तियां बनी हैं, बच्चों के खिलौने लगाए हुए हैं, गुड्डा-गुड्डी बनाए हुए हैं, और भगवान हैं और इनको देखने से ज्ञान हो जाएगा! तो दुनिया में अब तक सबको ज्ञान हो गया होता।
आंखें होते हुए अंधे हम बने हुए हैं। आंखें होते हुए देखने की हमारी इच्छा नहीं है। इतने भय से डर गए हैं। इतना भय है कि हम क्यों? जरूर हम ही गड़बड़ होंगे अगर हम कुछ कहेंगे।
लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं, जो विचारशील है वह अनिवार्य रूप से विद्रोही होगा। जिसके भीतर विचार है वह कहेगा कि नहीं, मुझे तो पत्थर दिखाई पड़ता है, भगवान दिखाई नहीं पड़ते। क्षमा करें, मुझे वस्त्र नहीं दिखाई पड़ते, मुझे तो राजा नंगे दिखाई पड़ते हैं। और जब तक इतना साहस न हो कि भीड़ ने जो प्रचारित किया है और भीड़ जिस धारा में बही जा रही है उससे आप अलग खड़े न हो सकें, तब तक सत्य के जगत में आपका कोई संबंध नहीं हो सकता।
समाधी कमल
ओशो
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