ध्यान
रखना, संत
तो वही है जिसने अपने भीतर के सागर को पहचाना; जो बूंद से मुक्त हुआ और सागर हुआ। संत तो विराट के साथ एक होकर ही संत हुआ है। और विराट कहीं छोटा हो सकता है? विराट तो असीम है, अनंत है! और जिसने भी विराट के साथ अपना तादात्म्य पहचान लिया है, वह तो बचा ही नहीं है।
जब
तक तुम हो, तब तक छोटे रहोगे; तुम बड़े नहीं हो सकते। अहंकार लाख उपाय करे तो भी छोटा ही रहता है। अहंकार के केंद्र में ही हीनता है, हीनता की ग्रंथि है, मनोविज्ञान कहता है। हीनता की ग्रंथि के कारण ही हम अहंकार की यात्रा पर निकलते हैं; लगता है हमें कि हम छोटे हैं, सो बड़े होने की चेष्टा करते हैं। धन हो बहुत तो बड़े दिखाई पड़ेंगे। ज्ञान हो बहुत तो बड़े दिखाई पड़ेंगे। पद हो बड़ा तो बड़े दिखाई पड़ेंगे।
लेकिन
राष्ट्रपति के पद पर बैठ कर जब तुम बड़े दिखाई पड़ते हो, तुम बड़े नहीं दिखाई पड़ रहे हो; वह राष्ट्रपति का पद है, उतरते ही तुम वही के वही हो जाओगे। धन के कारण अगर बड़े हो, कल दिवाला निकल जाए, सरकार बदल जाए, सिक्के बदल जाएं--गया तुम्हारा बड़प्पन! तुम्हारा बड़प्पन कागजी था। जरा सी वर्षा हो जाएगी और तुम्हारे रंग उड़ जाएंगे। उधार था तुम्हारा बड़प्पन। तुमने अहंकार के ऊपर आभूषण बांध लिए थे, सुंदर परिधान पहन रखे थे; मगर सब झूठे थे; दूसरों के हाथों में उनकी बागडोर थी।
अहंकार
के कारण जो बड़ा है उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। और वह भी बड़प्पन क्या कोई बड़प्पन है जो दूसरों पर निर्भर रहता हो! सिर्फ संत ही बड़े हैं, क्योंकि उनका बड़प्पन किसी पर निर्भर नहीं--न धन पर, न पद पर, न प्रतिष्ठा पर, न लोगों पर। उनका बड़प्पन अपने भीतर की अनुभूति में है। उनका बड़प्पन अहंकार का आभूषण नहीं है, अहंकार का विसर्जन है।
संतों
का बड़प्पन छीना नहीं जा सकता। उनकी गर्दन तुम काट सकते हो, मगर उनके बड़प्पन को न छू सकोगे। उनके बड़प्पन पर तुम जरा सा भी दाग नहीं फेंक सकते, जरा सा आघात नहीं कर सकते। उनका बड़प्पन तुम्हारे हाथों से बहुत पार है, बहुत दूर है। जैसे कोई आकाश पर थूके और थूक वापस अपने पर गिर जाए, ऐसे ही संतों पर थूकने वाले लोग अपने ही थूक में दब जाते हैं। आकाश तो अछूता का अछूता रह जाता है। आकाश तो निर्मल का निर्मल!
ठीक
कहते हैं पलटू: संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
और
यह भी खयाल रखना कि दो संतों में कोई एक बड़ा और दूसरा छोटा नहीं होता। और दो असंतों में भी कोई एक बड़ा और दूसरा छोटा नहीं होता। दो असंत दोनों छोटे होते हैं और दो संत दोनों ही बड़े होते हैं। सोए हुए आदमी, सब छोटे। जागे हुए आदमी, सब बड़े। और बड़प्पन में कोई मापदंड नहीं है कि बुद्ध बड़े, कि महावीर बड़े, कि कृष्ण बड़े, कि क्राइस्ट बड़े।
तथाकथित
धार्मिक लोग बड़ी चिंता करते हैं--कौन बड़ा? उन्हें असली चिंता यह नहीं है कि बुद्ध बड़े कि मोहम्मद बड़े। उन्हें असली चिंता यह है कि मैंने जिसे मान रखा है संत, वह बड़ा होना चाहिए। क्योंकि उसके बड़प्पन में मेरा बड़प्पन है। यह मुसलमान की चिंता है कि मोहम्मद बड़े हैं या बुद्ध। यह बौद्ध की चिंता है कि बुद्ध बड़े हैं या मोहम्मद।
बुद्ध
और मोहम्मद, कोई तुलना नहीं की जा सकती--अतुलनीय हैं, अद्वितीय हैं। और दोनों उस सीमा के पार हो गए हैं जिसको हम अहंकार कहते हैं। दोनों ने अपना बूंद-भाव छोड़ दिया। दो बूंदें सागर में गिर जाएं, कौन सी बूंद अब बड़ी है? दोनों सागर हो गई हैं। दो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाते हैं, कौन अब बड़ा है? दोनों परमात्मा हो गए। दोनों की उदघोषणा एक है: अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक!
परमात्मा
तो दो नहीं है, एक ही है। हम अनेक हैं। और जब तक हम अनेक हैं, छोटे हैं। जिस दिन हम उस एक के साथ एक हो जाएंगे, उस दिन कैसे छोटे!
पलटू
कहते हैं: तुलना ही मत करना संतों में; वे सब समान हैं। संत भर कोई हो, जाग्रत भर कोई हो, प्रबुद्ध भर कोई हो, फिर कोई छोटा नहीं होता।
संत
संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।
आतम
दरसी मिहीं है, और चाउर सब मोट।।
जिन्होंने
स्वयं को जान लिया, वे अति-सूक्ष्म में प्रवेश कर गए; और उनको छोड़ कर बाकी सब बहुत मोटे हैं, बहुत स्थूल हैं, बहुत पौदगलिक हैं; उनको नापा जा सकता है। अज्ञानी को नापा जा सकता है; ज्ञानी को नापने का कोई उपाय नहीं, कोई तराजू नहीं, कोई मापदंड नहीं।
काहे होत अधीर
ओशो
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