एक स्त्री, एक महिला मुझसे रास्ते में पूछती थीं ट्रेन में कि मुझे यह बताइए कि स्त्री पर्याय से मुक्ति कैसे मिले?
यह बेवकूफों
ने
सिखाया हुआ है कि स्त्री पर्याय से मोक्ष नहीं हो सकता। जैसे मोक्ष भी यह देखता है--देह--और नाप-जोख रखता है कि कौन पुरुष, कौन स्त्री।
यह पुरुषों
ने
सिखाया है स्त्रियों
को। और अगर स्त्रियां
नरक के द्वार हैं तो फिर स्त्रियां
तो
अब
तक
नरक गई ही नहीं होंगी। क्योंकि
उनके लिए अगर पुरुष द्वार न हो तो वे नरक कैसे जाएंगी? अगर स्त्रियां
किताबें लिखतीं तो वे लिखतीं:
पुरुष नरक के द्वार हैं। वे दोनों एक-दूसरे को नरक के द्वार बने हुए हैं, क्योंकि
सेक्स की मन में निंदा है।
सेक्स का मन में सम्मान होना चाहिए, निंदा नहीं। सेक्स के प्रति प्रकृतिस्थ
स्वस्थ दृष्टिकोण होना चाहिए। जानना चाहिए कि वह जीवन की अत्यंत अनिवार्यता
है। और जानना चाहिए कि सारी प्रकृति
उस
पर
खड़ी है, सारा विराट सृजन उस पर खड़ा हुआ है। सेक्स से बड़ी शक्ति नहीं, सेक्स से बड़ी फोर्स नहीं, उसी पर तो सारा खेल है। फूल इसलिए खिलते हैं, वृक्ष इसलिए खिलते हैं, पक्षी इसलिए गीत गाते हैं, बच्चे इसलिए पैदा होते हैं। सारी दुनिया में जो भी क्रिएटिविटी
है
वह
सब
बुनियाद में सेक्स से संबंधित
है। तो उस सेक्स को निंदित करके तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
नहीं, उसकी निंदा की जरूरत नहीं, उसके स्वीकार
की
जरूरत है। और स्वीकार
के
द्वारा उसको और कितना विकसित किया जा सकता है, इस दिशा में परिवर्तन, ऊर्ध्वगमन
की
जरूरत है। सेक्स जरूर एक दिन परिवर्तित
होकर ब्रह्मचर्य बन सकता है। लेकिन सेक्स के विरोध में लड़ कर नहीं, वरन सेक्स के प्रति अत्यंत सम्मान, अत्यंत सहृदयता, अत्यंत सहजता, अत्यंत मैत्रीपूर्वक
उस
शक्ति को परिवर्तित
किया जा सकता है। और मार्ग है कि प्रेम विकसित हो। मार्ग है कि प्रेम विकसित हो, तो सेक्स अपने आप, अपने आप गतिमय होता है। जैसे कि पानी को बहाव देना हो, हम एक नाली बना दें तो पानी उससे बहने लगता है और नाली न हो तो फिर पानी कहीं भी बह जाता है। प्रेम की नाली अगर भीतर चित्त में निर्मित
हो
तो
सेक्स की सारी की सारी एनर्जी प्रेम में परिवर्तित
होती है और बहती है।
लेकिन हमारी सारी शिक्षा भूल से भरी है, सारी संस्कृति
भूल से भरी है। और इसलिए मनुष्य का चित्त रुग्ण से रुग्ण होता चला गया है।
समाधी कमल
ओशो
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