कोई भी व्यक्ति
अपनी मृत्यु नहीं देख सकता। मृत्यु सदा दूसरे की ही देखी जा सकती है। क्योंकि
मृत्यु बाहर घटित होती है, भीतर तो घटित होती ही नहीं। समझें।
आपने जब भी मृत्यु देखी है, तो किसी और की देखी है। आपकी मृत्यु की जो धारणा है, वह दूसरों को मरते देखकर बनी है। ऐसा नहीं है कि आप बहुत बार नहीं मरे हैं। आप बहुत बार मरे हैं। लेकिन जो भी आपकी मृत्यु की धारणा है, वह दूसरे को मरते हुए देखकर आपने बनाई है।
जब दूसरा मरता है, तो आप बाहर होते हैं। शरीर निस्पंद
हो
जाता है। श्वास बंद हो जाती है। हृदय की धड़कन समाप्त हो जाती है। खून चलता नहीं। आदमी बोल नहीं सकता। निष्प्राण
हो
जाता है। लेकिन भीतर जो था, वह तो कभी मरता नहीं।
और आदमी अपनी मौत कैसे देख सकता है! इसलिए भीतर जो मर रहा है, वह नहीं देख सकता कि मैं मर रहा हूं। वह तो अब भी पाएगा कि मैं जी रहा हूं। अगर होश में है, तो उसे दिखाई पड़ेगा कि मैं जी रहा हूं। अगर बेहोश है, तो खयाल में नहीं रहेगा।
हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन बेहोशी में मरे हैं। इसलिए हमें कोई खयाल नहीं है। हमें कुछ पता नहीं है कि मृत्यु में क्या घटा। अगर एक बार भी हम होश में मर जाएं, तो हम अमृत हो गए। क्योंकि
तब
हम
जान लेंगे कि बाहर ही सब मरता है। जो मेरा समझा था, वह टूट गया, बिखर गमा, शरीर नष्ट हो गया। लेकिन मैं! मैं अब भी हूं।
कोई व्यक्ति
कभी स्वयं की मृत्यु का अनुभव नहीं किया है। जो लोग बेहोश मरते हैं, उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि क्या हुआ। जो लोग होश से मरते हैं, उन्हें पता चलता है कि मैं जीवित हूं। जो मरा, वह शरीर था, मैं नहीं हूं।
इसलिए ऐसा सोचें, और तरह से। अगर आप कल्पना भी करें अपने मरने की, तो कल्पना भी नहीं कर सकते। अनुभव को छोड़ दें। कल्पना तो झूठ की भी हो सकती है। और आपने सुना होगा, कल्पना तो किसी भी चीज की हो सकती है। कल्पना ही है। लेकिन आप अपने मरने की कल्पना करें, तब आपको पता चलेगा, वह नहीं हो सकती। आप कुछ भी उपाय करें, अपने शरीर को मरा हुआ देख लेंगे। लेकिन आप देखने वाले बाहर जिंदा खड़े रहेंगे, कल्पना में भी! कितना ही सोचें कि मैं मर गया, कैसे मरिका! कल्पना में भी नहीं मर सकते। क्योंकि
वह
जो
सोच रहा है, वह जो देख रहा है, कल्पना जिसे दिखाई पड़ रही है, वह साक्षी बना हुआ जिंदा रहेगा। असली में तो मरना मुश्किल
है,
कल्पना में भी मरना मुश्किल
है। लोग कहते हैं, कल्पना असीम है। कल्पना असीम नहीं है। आप मृत्यु की कल्पना करें, आपको पता चल जाएगा, कल्पना की भी सीमा है।
इसलिए अर्जुन सबको तो देखता है मृत्यु के मुंह में जाते, स्वयं को नहीं देखता। स्वयं को कोई भी नहीं
देख सकता। अगर अर्जुन स्वयं को
भी मृत्यु में जाते
देखे, तो
देखेगा कौन
फिर मे
जो मृत्यु में जा
रहा है
वह अलग
हो जाएगा,
और जो
देख रहा
है वह
अलग हो
जाएगा। अगर
अर्जुन देख
रहा है
मृत्यु में
जाते, तो
अर्जुन का
शरीर भला
चला जाए
मृत्यु में,
अर्जुन नहीं
जा सकता,
वह बाहर
खड़ा रहेगा। वह देखने वाला है।
वह
जो आत्मा है, उसे
हमने इसीलिए द्रष्टा कहा
है। वह
सब देखता है। वह
मृत्यु को
भी देख
लेता है।
गीता दर्शन
ओशो
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