आए
हैं आप मेरे पास, मैंने गले आपको लगा लिया; बहुत प्रीतिकर लगा है क्षणभर को। लेकिन मिनिट होने लगा, अब आप घबड़ा रहे हैं। दो मिनिट होने लगे, अब आप छूटना चाहते हैं। तीन मिनिट हो गए, अब आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट हो गए, अब आप घबड़ाते हैं कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं! पांच मिनिट हो गए, अब आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं!
यह
हुआ क्या? पहले क्षण में कह रहे थे, हृदय से मिलकर बड़ा आनंद मिला है। पांच मिनिट में आनंद खो गया! अगर मिला था, तो पांच मिनिट में हजार गुना हो जाना चाहिए था। जब एक सेकेंड में इतना मिला, तो दूसरे में और ज्यादा, तीसरे में और ज्यादा। नहीं, वह पहले सेकेंड में भी मिला नहीं था, सिर्फ सोचा गया था। दूसरे सेकेंड में समझ बढ़ी, तीसरे में समझ और बढ़ी--पाया कि कुछ भी नहीं है। जिन हाथों को हम हाथों में लेने को तरसते हैं, थोड़ी देर में सिवाय पसीने के उनसे कुछ भी नहीं निकलता है।
सब
सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं; सब दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और दुख कनवर्टिबल हैं, एक-दूसरे में बदल सकते हैं। इसलिए बहुत गहरे में दोनों एक ही हैं, दो नहीं हैं। क्योंकि बदलाहट उन्हीं में हो सकती है, जो एक ही हों। सिर्फ हमारे मनोभाव में फर्क पड़ता है, चीज वही है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता है।
इसलिए
कृष्ण ने दो सूत्र कहे। पहला कि दुख में जो उद्विग्न न हो, दुख में जो अनुद्विग्नमना हो; दूसरा--सुख की जिसे स्पृहा न हो, जो सुख की आकांक्षा और मांग किए न बैठा हो। तीसरी बात--क्रोध, भय जिसमें न हों।
गीता दर्शन
ओशो
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