...किसी
पुराण में यह लिखा हुआ नहीं है,
पता नहीं पुराणकार कैसे चूक गए इस घटना को लिखने से...लेकिन एक बार ऐसा हुआ
कि सारी मनुष्य-जाति से भगवान बहुत परेशान हो गया उनकी दौड़ को देख कर, उसने सुबह-सुबह
ही घोषणा की कि आज मैं तुम्हारे सब दुखों का अंत कर दूंगा। सांझ तक जिसका जो दुख हो
वह अपनी एक-एक गठरियों में उसको बांध ले। जिसका जो दुख हो! कोई दुख छोड़ने का कारण नहीं, कोई चिंता, सब उसमें बांध
ले और रात सूरज ढलने के बाद गांव के बाहर जाकर उस गठरी को फेंक आए। जो-जो दुख उसमें
बांध लिए जाएंगे वे समाप्त हो जाएंगे। और लौटते वक्त सूरज उगने के पहले उसी गठरी में
जो-जो सुख उसे चाहिए हों उनको बांध ले और वापस लौट आए। घर पहुंचते ही वे सुख उसको उपलब्ध
हो जाएंगे। कल्पना से ही बांधना था,
एक-एक दुख को रखते जाना था गठरी में, फिर गठरी बांध कर ले जाना था। बाहर झड़ा कर
गठरी को फिर वैसे ही कल्पना से सुख रख कर वापस लौट आना था।
शाम
से ही लोग लग गए। दिन में कई को तो विश्वास हुआ,किसी को अविश्वास हुआ,लेकिन सांझ होते-होते
सबको विश्वास आ गया। मरते-मरते सभी आदमी धार्मिक हो जाते हैं, विश्वासी हो
जाते हैं। जिंदगी में जब जरा सुबह-सुबह जोश था, किसी ने कहा कि अफवाह है, किसी ने कहा
कि पता नहीं यह सच है कि झूठ है,
किसी ने कहा कि हम तो ईश्वर को मानते नहीं। लेकिन सुख को तो सभी मानते हैं।
इसलिए सांझ होते-होते सभी को लगा कि कहीं ऐसा न हो कि हम चूक जाएं। सांझ अंतिम घोषणा
हुई कि यह पहला ही मौका है मनुष्य-जाति के लिए और अंतिम भी, जो चूका वह सदा
को चूक जाएगा, इसलिए
सारे लोग दुख बांध लें। आखिर-आखिर पूरी मनुष्य-जाति ने सांझ होते-होते सबने अपने दुख
बांध लिए। कोई दुख छोड़ा नहीं। कौन छोड़ता!
सारे
दुख बांध कर लोग निकले। गांव का गरीब से गरीब आदमी भी उतनी ही बड़ी गठरी लिए हुए था
जितना गांव का राजा भी। तब लोग बड़े हैरान हुए! यह क्या मामला है? गरीब सोचता था, दरिद्र सोचता
था, दुख
मेरे पास हैं, पीड़ाएं
मेरे पास हैं। लेकिन गांव का राजा भी जब अपने सिर पर गठरी लेकर निकला और सारे लोग चौंक
कर देखने लगे--गठरियां करीब-करीब सभी की बराबर थीं। किसी की गठरी छोटी-बड़ी नहीं थी, तो वे बहुत हैरान
हुए! उनको एक चौंकने की बात अनुभव हुई कि यह तो बड़ी चौंकाने वाली बात हो गई! हम झोपड़े
में थे इसलिए दुख में थे। यह महल में था,
यह आदमी कैसे दुख में था?
यह
जान कर आप हैरान होंगे, अज्ञान
में दुख की गठरी सबके ऊपर बराबर है। और यह असंभव है कि किसी के ऊपर छोटी हो और किसी
के ऊपर ज्यादा हो। यह असंभव है। सबके ऊपर गठरी बराबर है। लेकिन अपनी गठरी दिखाई पड़ती
है, दूसरे
की गठरी दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए लगता है कि मैं ही बोझ से दबा जा रहा हूं और मरा जा
रहा हूं, बाकी
सब लोग कितनी मौज में और आनंद में हैं। और हर आदमी से पूछ लें, यही कहेगा कि
मैं ही मरा जा रहा हूं, बाकी
दुनिया कितने आनंद में है। मुझे न मालूम क्या हो गया है! मेरे भाग्य खराब, मेरे कर्म खराब, मेरे पिछले जन्म
खराब। फिर वह एक्सप्लेनेशंस खोजता है। और कोई न कोई नासमझ मिल जाते हैं समझाने वाले
कि तुम इसलिए दुखी हो कि तुमने पीछे कुछ गड़बड़ किया, उसके पीछे कुछ किया। यानी यह बताने वाले लोग
मिल जाते हैं कि जरूर तुम्हारी गठरी बड़ी है और दूसरों की छोटी है। लेकिन मैं आपसे निवेदन
करता हूं, किसी
की गठरी छोटी और किसी की बड़ी नहीं,
अज्ञान में सबके ऊपर बराबर गठरियां हैं। हो ही नहीं सकता कि छोटी-बड़ी हों।
क्योंकि अज्ञान बराबर है,
अज्ञान छोटा और बड़ा नहीं होता। अज्ञान होता है तो पूरा होता है, नहीं होता है
तो पूरा नहीं होता। छोटा और बड़ा अज्ञान जैसी कोई चीज नहीं होती कि एक आदमी कम अज्ञानी
और दूसरा आदमी ज्यादा अज्ञानी,
यह सब मूढ़ता है। अज्ञान ऐसा खंड-खंड नहीं होता कि छोटा अज्ञान, ज्यादा अज्ञान, ये बड़े अज्ञानी, वे और बड़े अज्ञानी, ऐसा नहीं है।
अज्ञान में जो है वह एक से ही अज्ञान में है। अज्ञान के खंड और टुकड़े नहीं होते।
और
न ज्ञान के खंड और टुकड़े होते हैं। तो कोई छोटे ज्ञानी और बड़े ज्ञानी भी दुनिया में
नहीं होते, कि
महावीर छोटे ज्ञानी कि बुद्ध बड़े ज्ञानी। ऐसे बेवकूफ भी हैं जो इसका हिसाब लगाते हैं।
ऐसी किताबें मेरे सामने भेजी गईं जिनमें हिसाब लगाया गया है कि सबसे ऊपर कौन पहुंचा।
फिर उसके बाद कौन, फिर
उसके बाद कौन, फिर
उसके बाद कौन। ज्ञान में भी खंड नहीं होते,
अज्ञान में भी खंड नहीं होते। या तो अज्ञान, या ज्ञान। और
जहां अज्ञान है वहां दुख का बोझ समान है। और जहां ज्ञान है वहां आनंद की स्फुरणा समान
है। वहां भी कोई फर्क नहीं।
उस
दिन सुबह लोग चौंके और घबड़ाए जब देखा कि गठरियां बराबर हैं। यह पहला ही मौका था कि
दूसरों की गठरियां भी दिखाई पड़ीं। अपनी गठरी का तो हमेशा बोझ था। पूरा गांव, पूरी मनुष्य-जाति
का ही मामला था। सब लोग जाने लगे। तभी एक गांव में यह अफवाह भी उड़ी कि एक बूढ़ा फकीर
नहीं जा रहा है। वह एक ही आदमी था पूरी मनुष्य-जाति में। दिमाग खराब रहा होगा उसका।
राजा भी जा रहा है, दरिद्र
से दरिद्र जा रहा है, धनी
से धनी जा रहा है, तो
क्या पागल हो गया! वह गांव के बाहर रहता था। जाती हुई मनुष्य-जाति के हर आदमी ने उससे
कहा, पागल
हुए हो! अभी भी वक्त है,
जितना भी थोड़ा-बहुत बांध सको बांधो और आ जाओ, बाद में पछताओगे।
अगर झूठ भी हुई अफवाह तो हर्जा क्या है?
गांव के बाहर टहलना हो जाएगा,
थोड़ा स्वास्थ्य को लाभ भी हो जाएगा। इससे हर्जा क्या हो जाएगा? आ जाओ, कोई फिक्र न
करो, जितना
बांध सको! वक्त ज्यादा नहीं,
क्योंकि हम तो दिन भर से बांध रहे थे, तुमको वक्त तो अब थोड़ा ही है, सूरज डूबने को
है, लेकिन
जो भी बांध सको बांध लो और आ जाओ।
वह
फकीर बैठा रहा और हंसता रहा। लोगों ने समझा कि दिमाग खराब है। इतनी सारी दुनिया जो
कर रही है, यह
अकेला आदमी छोड़ रहा है। लोग चले गए। समझा सकते थे, समझाया। कोई नाराज भी हुआ, किसी ने गुस्से
में भी कहा कि गलती कर रहे हो,
बाद में पछताओगे,
फिर मौका भी नहीं है दूसरा चुनाव का, चूके तो चूके। लेकिन वह फकीर हंसता रहा और
बैठा रहा और उसने कहा कि लौटते में भी मिलते जाना। लोगों ने कहा कि ठीक।
लोग
गए। बारह बजे रात के सबने अपनी गठरियां खाली कर दीं। अब दूसरी दौड़ शुरू हुई। सब सुख
बांधने लगे। आधी रात से सुबह तक का वक्त था,
कौन कितना बांध ले,
कौन कितना बांध ले! कोई चूक न जाए,
क्योंकि चूक गया तो हमेशा के लिए,
कोई भूल न जाए। तो लोग अपनी-अपनी धुन में हैं। किसी को किसी की फिक्र नहीं
है, कौन
क्या बांध रहा है। लोग अपना-अपना बांधने में हैं। फुर्सत किसको कि एक क्षण किसी से
बात कर ले! क्योंकि उतनी देर में न मालूम कितना बांधने से चूक जाए। सुबह करीब आ रही
है। समय था थोड़ा, सुख
थे बहुत, बहुत
मुश्किल पड़ गई, लेकिन
किसी तरह बांधा। यह भी डर था कि कोई ज्यादा न बांध ले, कोई कम न बांध
ले। यह भी घबड़ाहट थी बीच-बीच में आंख उठा कर देखते भी जाते थे कि दूसरों की गठरियों
का क्या हाल है। लेकिन सब लगे हुए थे अपना-अपना बांधने में। सुबह सूरज होते-होते वे
सब वापस लौटे, देख
कर हैरान हो गए, किसी
की गठरी छोटी नहीं, किसी
की बड़ी नहीं! बहुत परेशान हुए कि क्या सभी लोगों ने बराबर-बराबर सुख बांध लिए?
असल
में, जहां
अज्ञान है वहां समान वासनाएं हैं,
कोई फर्क थोड़े ही है। समान इच्छाएं हैं, कोई फर्क थोड़े ही है। समान आकांक्षाएं हैं, कोई फर्क थोड़े
ही है। करीब-करीब गठरियां बराबर थीं। बड़े चौंके, बड़े हैरान हुए! सब दुखी भी हुए कि हमने इतनी
कोशिश की, फिर
भी ज्यादा न बांध पाए! ये सारे लोग उतने ही बांध लिए, मामला क्या है? किसी ने किसी
से पूछा भी नहीं, फिर
भी सबने वही बांध लिया। लौटे,
फकीर बैठा हुआ था अपने द्वार पर। लौटे तो उसने कहा कि बड़े उदास दिखाई पड़ते
हो, लोगों
से कहा।
लोगों
ने कहा कि दौड़-धूप में थक गए।
हम
तो सोचते थे तुम इतनी खुशियां लेकर आ रहे हो तो बड़े खुश आओगे, उसने कहा।
कोई
खास खुशी की बात नहीं, लोगों
ने कहा, क्योंकि
उतनी खुशियां पड़ोसी भी ला रहे हैं। मामला सब खराब हो गया।
गठरी
हमारी बड़ी होती तो कुछ खुशी भी हो सकती थी। यह तो मामला ही गड़बड़ है। सारे लोग उतना
ही बांधे हुए चले आ रहे हैं। चित्त खिन्न हो गया है, कोई अर्थ न रहा बांधने का, दौड़ का। क्योंकि
खुशी इसमें है कि पड़ोसी छोटा पड़ जाए,
खुशी इसमें नहीं है कि खुशी मेरे भीतर हो। वे सब दुखी लौट रहे थे सुबह। एक
तो रात भर की थकान, दिन
भर का बांधना, फिर
ढोना, फिर
रात भर का बांधना, सुबह
जब हुई तो सूरज...वे सब थके और उदास और रोते लौट रहे थे।
फकीर
हंसने लगा, उसने
कहा, इसीलिए
तो मैंने कहा था कि लौटते में मुझसे मिलते जाना। और एकाध दिन फिर अगर समय मिले तो फिर
मिलने आ जाना।
वे
लोग अपने घरों में लौटे,
कोई खास प्रसन्न न था। सुख आ गए थे--छोटे झोपड़ों की जगह बड़े मकान बन गए, घर आए तो देख
कर चौकन्ने हो गए, जहां
कंकड़-पत्थर पड़े थे वहां हीरे-जवाहरात थे,
जहां छोटे झोपड़े थे वहां बड़े महल थे--लेकिन सबके ही ऐसे हो गए थे, इसलिए कोई खास
खुशी भी न थी। भीतर अपने घरों में चले गए,
उसी तरह जिस तरह अपने झोपड़ों में जाते थे, कोई फर्क नहीं पड़ा था। क्योंकि सभी के एक साथ
बड़े हो गए थे इसलिए बड़े होने का कोई अर्थ नहीं रहा था। अनुपात वही था। घर जाकर सोचा
था अब तो कोई दुख न होगा,
लेकिन बहुत हैरान हुए,
जो-जो सुख आए थे वे अपने साथ नये दुख ले आए थे जिनकी उन्होंने कल्पना न की
थी।
दुख
अलग थोड़े ही होता है सुख से,
कि आप दुख को छोड़ आएं और सुख को ले आएं। वह तो सुख की छाया है, वह तो उसके पीछे
खड़ा है, वह
तो उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
तो
वे जो-जो सुख ले आए थे, उनके
साथ-साथ उन्हीं सुखों की चिंताएं और उन्हीं सुखों के छायारूप दुख ले आए थे। रात वे
उतने ही बेचैन सोए जितने हमेशा सोते थे। क्योंकि दुख अब नये थे, परेशानियां, चिंताएं अब नई
थीं। तब तो वे बहुत हैरान हुए और उन्होंने सोचा, क्या वह फकीर ही आदमी ठीक किया जो न गया और
न आया! आने-जाने के श्रम से भी बचा। जाते वक्त भी हंस रहा था, लौटते वक्त भी
हंस रहा था।
दूसरे
दिन बहुत से लोग उससे मिलने गए और कहा कि हम तो बड़े हैरान हो गए हैं।
उसने
कहा, तुमने
व्यर्थ ही मेहनत की। क्योंकि जो आदमी दुख छोड़ना चाहता है और सुख पाना चाहता है, वह सुख तो पा
ही नहीं सकता और दुख को छोड़ भी नहीं सकता। इन दो में से जो एक को भी बचा लेना चाहता
है, वह
दूसरे को भी बचा लेगा। दूसरा जाएगा कहां?
ये दोनों तोड़े नहीं जा सकते,
संयुक्त हैं। और तुम्हें कोई खुशी मिली?
उन्होंने
कहा, खुशी
तो कुछ पता नहीं चलती। नये दुख आ गए हैं। नई पीड़ाएं, नई परेशानियां आ गई हैं। फिर उन्होंने पूछा, तुम भी हमें
बताओ कि तुमने क्यों न बांधा?
उसने
कहा, न
तो मेरे पास चादर थी जिसमें मैं बांधता। पहली तो दिक्कत यही थी कि चादर नहीं थी जिसमें
मैं बांधता। फिर चादर भी तुमसे मैं मांग ले सकता था, क्योंकि तुम सभी उस वक्त दानी हो जाते। क्योंकि
भारी सुख आ रहे थे, तुम्हें
कोई चिंता भी नहीं होती। एक चादर तो कोई भी मुझे दे देता। लेकिन उसमें क्या बांधता, यह भी दिक्कत
थी। मेरे पास दुख भी नहीं थे बांधने को। फिर अगर खाली गठरी ही लेकर चला चलता तुम्हारे
साथ, तो
वहां से लौटते में क्या बांधता,
मुझे कोई सुख की आकांक्षा नहीं है,
मैं आनंद में प्रतिष्ठित हूं।
जो आदमी आनंद
में है वह सुख नहीं चाहता है। जो आदमी दुख में है वही सुख चाहता है। और जो दुख में
है वह कितना ही सुख चाहे,
सुख मिल नहीं सकता,
सुख के साथ दुख वापस लौट आते हैं। ऐसे दौड़ चलती है--दुखों को छोड़ने की, सुखों को लाने
की, संग्रह
की, गठरियां
बांधने की। दौड़ते हैं, दौड़ते
हैं, दौड़ते
हैं और थकते हैं एक दिन और पाते हैं कि कुछ हुआ नहीं। किसलिए? वह भीतर है एक
अभाव गहरा। दुख यह नहीं है कि बाहर अभाव है,
दुख यह नहीं है कि बाहर चीजें कम हैं, दुख यह है कि भीतर संपूर्ण अभाव है।
समाधी कमल
ओशो
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