एक फकीर था,
नसरुद्दीन। एक सांझ मित्रों के साथ बातचीत में संलग्न रहा और
नसरुद्दीन की बातें इतनी मीठी और इतनी प्रीतिपूर्ण थीं कि रात के कब बारह बज गए
मित्रों को भी पता न चला। रात के भोजन का समय चूक गया। फिर नसरुद्दीन बोला,
अब मैं जाता हूं। तो उसके मित्रों ने कहा, तुमने
हमारे रात्रि का भोजन भी चूका दिया है। और अब तो घर लोग सो चुके होंगे, हमें भूखे ही सोना पड़ेगा आज। नसरुद्दीन ने कहा, घबड़ाओ
मत, मेरे साथ चलो, आज मेरे घर ही भोजन
कर लेना।
बीस मित्रों को लेकर आधी रात नसरुद्दीन घर पहुंचा। जोश में
निमंत्रण तो दे दिया। जैसे-जैसे घर के पास पहुंचा और पत्नी की याद आई, वैसे-वैसे डरा। रात आधी हो
गई थी, बिना खबर दिए बीस लोगों को भोजन के लिए लाना। पत्नी
क्या कहेगी? और फिर आज दिन भर से वह घर लौटा भी नहीं था। और
वह तो फकीर था। सुबह आटा मांग लाता था, उसी से सांझ भोजन
बनता था। आज आटा भी नहीं ला पाया था। मुश्किल होगी, द्वार पर
जाकर उसे लगा, कठिनाई होगी खड़ी। उसने मित्रों से कहा,
तुम रुको, जरा मैं भीतर जाऊं, अपनी पत्नी को समझा लूं। मित्र भी समझ गए, पत्नियों
को बिना समझाए बड़ी कठिनाई है ऐसी स्थिति में।
मित्र बाहर रुक गए। नसरुद्दीन भीतर गया। पत्नी तो आगबबूला होकर
बैठी थी। दिन भर से उसका कोई पता न था। घर में चूल्हा भी नहीं जला था। मांग कर आटा
ही नहीं लाया गया था। और जब उसने जाकर कहा कि बीस मित्रों को भोजन के लिए निमंत्रण
देकर ले आया हूं।
तो उसकी पत्नी ने कहा,
तुम पागल हो गए हो, कहां थे दिन भर? भोजन का सवाल कहां है, हमारे लिए भी आटा नहीं भोजन
का, मित्रों का तो कोई सवाल उठता नहीं। जाओ, उन्हें वापस लौटा दो।
नसरुद्दीन ने कहा,
मैं कैसे वापस लौटाऊं? एक काम कर, तू जाकर उनसे कह दे कि नसरुद्दीन घर पर नहीं है।
उसकी पत्नी ने कहा,
यह और अजीब बात आप मुझे समझा रहे हैं। आप उन्हें लेकर आए हैं और मैं
उनसे जाकर कहूं कि नसरुद्दीन घर पर नहीं है!
नसरुद्दीन ने कहा,
अब इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं। जाकर कह, समझाने
की कोशिश कर।
वह स्त्री बाहर गई,
उसने मित्रों से पूछा, आप कैसे आए हैं?
उन मित्रों ने कहा,
आए नहीं, लाए गए हैं, निमंत्रित
हैं। आपके पति भोजन का निमंत्रण देकर ले आए हैं।
उसने कहा, मेरे पति? वे तो दिन भर से आज घर में नहीं हैं,
उनका कोई पता नहीं हैं।
मित्र हंसने लगे,
उन्होंने कहा, खूब मजाक हो गई यह तो। वे ही
हमें लिवा कर लाए हैं, ऐसा कैसा हो सकता है कि वे घर पर न
हों। वे भीतर मौजूद हैं। मित्र विवाद करने लगे। और आखिर में उनकी पत्नी से बोले कि
आप हट जाओ, हम भीतर जाकर देख लेते हैं अगर नहीं है तो।
नसरुद्दीन को भी क्रोध आ गया। वह बाहर निकल कर आ गया और उसने
कहा, क्यों
विवाद किए चले जा रहे हो। यह भी तो हो सकता कि नसरुद्दीन आपके साथ आए हों फिर पीछे
के दरवाजे से निकल गए हों।
नसरुद्दीन खुद ही आकर यह कहने लगे कि यह भी तो हो सकता कि
नसरुद्दीन आपके साथ आए हों फिर पीछे के दरवाजे से निकल गए हों।
मित्रों ने कहा,
पागल हो गए हो! क्रोध में तुम्हें समझ नहीं आ रहा। तुम खुद ही यह कह
रहे हो कि मैं नहीं हूं। यह कैसे हो सकता है। यह तो तुम्हारे होने का प्रमाण हो
गया।
एक जगह है केवल जहां संदेह खंडित हो जाते हैं, गिर जाते हैं, वह है स्वयं का अस्तित्व, वह है स्वयं की आत्मा।
लेकिन हम संदेह करते ही नहीं, तो इस बिंदु तक हम कभी पहुंच
ही नहीं पाते। संदेह की यात्रा किए बिना कोई सत्य की मंजिल पर न कभी पहुंचा है न
पहुंच सकता है। हम तो विश्वास कर लेते हैं। इसलिए निःसंदिग्ध सत्य का कभी कोई
अनुभव नहीं हो पाता। और जब हमें कोई ऐसा सत्य ही न मिलता हो, जो निःसंदिग्ध है, जो इनडूबिटेबल, जिस पर शक नहीं किया जा सकता, तो हम सत्य की खोज भी
कैसे करें। जब कोई स्वयं की चेतना के पास आकर यह अनुभव करता है कि नहीं, इस पर संदेह असंभव है, तब, तब
इसकी खोज में और गहरे उतर सकता है।
इसलिए मैंने कहा,
घबड़ाएं न विश्वास को छोड़ने से। विश्वास को पकड़ने के कारण ही आप सत्य
को नहीं पकड़ पा रहे हैं। जिन हाथों में विश्वास की राख है उन हाथों में कभी सत्य
का अंगार नहीं हो सकता है। सत्य को जो छोड़ता है, सत्य को जो
छोड़े हुए है, वही सब्स्टीटयूट की तरह, पूरक
की तरह विश्वास को पकड़े हुए है। और जब तक इस विश्वास के पूरक को पकड़े रहेगा,
तब तक सत्य की आकांक्षा और प्यास भी पैदा नहीं होती।
अंतर की खोज
ओशो
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