महावीर के जीवन में ऐसा हुआ कि जब वे अट्ठाइस वर्ष के थे, तभी उनके मन में हुआ कि सब व्यर्थ
है। उन्होंने अपनी मां से, अपने पिता से कहा कि 'मैं छोड्कर जाता हूं। ' उनकी मां रोने लगीं और कहा,
'मेरे जीते जी तुम जाओगे, तो मुझे बहुत दुख होगा।
क्या इतनी हिंसा करने को तुम राजी हो?' तो महावीर ने कहा कि ' ठीक है। रुक जाते हैं। ' अब
यह रुकना बड़ा लंबा हो, क्योंकि मां पता नहीं कितने दिन जिंदा
रहे! कोई मरने की तिथि तय तो थी नहीं, अभी कितने दिन जिंदा रहेगी?
यह भी हो सकता है, महावीर पहले मरें, मां—बाप बाद में मरें! लेकिन महावीर रुक गये। यह आदमी
संन्यासी रहा होगा। महावीर रुक गये कि ठीक है।
दो वर्ष बाद में मां मर गई। क्रिया कर्म करके के लौटते थे, तो अपने बड़े भाई को कहा कि '
अब मैं संन्यासी हो जाऊं?' बड़े
भाई ने कहा, ' तुम कैसे पागल हो? एक तो
आघात है मां के मर जाने का, और तुम्हें इतनी फुर्सत भी नहीं है
कि थोड़े—दो दिन रुक जाते! अभी घर भी नहीं पहुंच पाए कि कह रहे
हो!' बाद में उन्होंने कहा, ' अगर मैं कहूं
र तो तुम संन्यासी हो जाना', भाई ने कहा कि 'जब तक मैं आशा न दूर तब तक अगर हुए तो मुझे बहुत दुख होगा। ' तो महावीर रुक गए। यह आदमी संन्यासी रहा होगा। फिर रुक गए।
और घरवालों को लगा कि अब तो यह आदमी घर में होते हुए भी घर में नहीं
है। हवा की तरह हो गए वे। कोई घर में उनका होना मालूम नहीं पडता कि वे घर में हैं।
साथ ही सब विलीन हो गया, घर से सारा संबंध शून्य हो गया। हैं—और नहीं हैं।
एक आदमी ऐसा घर में हो सकता है कि वह घर में है और नहीं है : आपके
बीच में नहीं है, आपके किसी काम में नहीं है। आपको कोई बाधा नहीं देता है। उसका कोई आग्रह नहीं
है। जो होता है, होने देता है। जो नहीं होता है, नहीं होने देता है। इस कमरे में कहें, तो इस कमरे में
बैठ जाता है। बाहर निकाल देते हैं, तो बाहर बैठ जाता है।
जब चार वर्ष में लोगों को खयाल आया कि महावीर तो घर में नहीं हैं!
तो उनके भाई ने कहा, 'अब तुम घर में रहो या न रहो, बराबर है। अब हमें रोकना
व्यर्थ है। तुम तो जा ही चुके। अब हम क्यों अपने ऊपर यह पाप लें कि हमने तुम्हें रोका
था! तुम जा ही चुके अपनी तरफ से। अब तुम्हारी जैसी मौज हो करो। '
इसको मैं संन्यास कहूंगा। यह लिया हुआ संन्यास नहीं है; यह विकसित हुआ संन्यास है। मेरी
मान्यता है कि अगर महावीर के भाई कहते कि मत जाओ, तो महावीर वहीं
रह जाते, क्योंकि जाने का क्या सवाल था! जो होना था, वह वहीं हो सकता था। यानी यह आग्रह ही हमारा कि ऐसे हो जायें, ऐसे भाग जायें; यह करें—वे सब हमारे
रुग्ण चित्त के लक्षण हैं। वे किसी स्वस्थ चित्त के लक्षण नहीं हैं।
चल हंसा उस देश
ओशो
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