एक छोटी सी कहानी अंत में कह देनी है। उसके साथ ही बात पूरी हो
जाएगी।
एक पंडित था। बहुत शास्त्र उसने पढ़े थे। बहुत शास्त्रों का
ज्ञाता था। उसने एक तोता भी पाल रखा था। पंडित शास्त्र पढ़ता था, तोता भी दिन-रात
सुनते-सुनते काफी शास्त्र सीख गया था। क्योंकि शास्त्र सीखने में तोते जैसी बुद्धि
आदमी में हो, तभी आदमी भी सीख पाता है। सो तोता खुद ही था।
पंडित के घर और पंडित भी इकट्ठे होते थे। शास्त्रों की चर्चा चलती थी। तोता भी
काफी निष्णात हो गया। तोतों में भी खबर हो गई थी कि वह तोता पंडित हो गया है।
फिर गांव में एक बहुत बड़े साधु का, एक महात्मा का आना हुआ। नदी
के बाहर वह साधु आकर ठहरा था। पंडित के घर में भी चर्चा आई। वे सब मित्र, उनके सत्संग करने वाले सारे लोग, उस साधु के पास
जाने को तैयार हुए कुछ जिज्ञासा करने। जब वे घर से निकलने लगे तो उस तोते ने कहा,
मेरी भी एक प्रार्थना है, महात्मा से पूछना,
मेरी आत्मा भी मुक्त होना चाहती है, मैं क्या
करूं? मैं कैसा हो जाऊं कि मेरी आत्मा मुक्त हो जाए?
सो उन पंडितों ने कहा,
उन मित्रों ने कहा कि ठीक है, हम जरूर
तुम्हारी जिज्ञासा भी पूछ लेंगे। वे नदी पर पहुंचे, तब वह
महात्मा नग्न नदी पर स्नान करता था। वह स्नान करता जा रहा था। घाट पर ही वे खड़े हो
गए और उन्होंने कहा, हमारे पास एक तोता है, वह बड़ा पंडित हो गया है।
उस महात्मा ने कहा,
इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं है। सब तोते पंडित हो सकते हैं, क्योंकि सभी पंडित तोते होते हैं। हो गया होगा। फिर क्या?
उन मित्रों ने कहा,
उसने एक जिज्ञासा की है कि मैं कैसा हो जाऊं, मैं
क्या करूं कि मेरी आत्मा मुक्त हो सके?
यह पूछना ही था कि वह महात्मा जो नहा रहा था, उसकी आंख बंद हो गईं,
जैसे वह बेहोश हो गया हो, उसके हाथ-पैर शिथिल
हो गए। धार थी तेज, नदी उसे बहा ले गई। वे तो खड़े रह गए
चकित। उत्तर तो दे ही नहीं पाया वह, और यह क्या हुआ! उसे
चक्कर आ गया, गश्त आ गया, मूर्च्छा हो
गई, क्या हो गया? नदी की तेज धार
थी--कहां नदी उसे ले गई, कुछ पता नहीं।
वे बड़े दुखी घर वापस लौटे। कई दफा मन में भी हुआ इस तोते ने भी
खूब प्रश्न पुछवाया। कोई अपशगुन तो नहीं हो गया। घर से चलते वक्त मुहूर्त ठीक था
या नहीं? यह
प्रश्न कैसा था, प्रश्न कुछ गड़बड़ तो नहीं था? हो क्या गया महात्मा को?
वे सब दुखी घर लौटे। तोते ने उनसे आते ही पूछा, मेरी बात पूछी थी? उन्होंने कहा, पूछा था। और बड़ा अजीब हुआ। उत्तर देने
के पहले ही महात्मा का तो देहांत हो गया। वे तो एकदम बेहोश हुए, मृत हो गए, नदी उन्हें बहा ले गई। उत्तर नहीं दे पाए
वह।
इतना कहना था कि देखा कि तोते की आंख बंद हो गईं, वह फड़फड़ाया और पिंजड़े में
गिरकर मर गया। तब तो निश्चित हो गया, इस प्रश्न में ही कोई
खराबी है। दो हत्याएं हो गईं व्यर्थ ही। तोता मर गया था, द्वार
खोलना पड़ा तोते के पिंजड़े का।
द्वार खुलते ही वे और हैरान हो गए। तोता उड़ा और जाकर सामने के
वृक्ष पर बैठ गया। और तोता वहां बैठकर हंसा और उसने कहा कि उत्तर तो उन्होंने दिया, लेकिन तुम समझ नहीं सके।
उन्होंने कहा, ऐसे हो जाओ, मृतवत,
जैसे हो ही नहीं। मैं समझ गया उनकी बात। और मैं मुक्त भी हो
गया--तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा ही करो, तो तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।
तो अंत में मैं यही कहना चाहूंगा: ऐसे जीएं जैसे हैं ही नहीं।
हवाओं की तरह, पत्तों
की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह।
जैसे हमारा कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूं। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट
होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति निकट आ जाती है।
असंभव क्रांति
ओशो
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