मुल्ला नसरुद्दीन एक मनोचिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि
मेरी पत्नी की हालत अब खराब है,
कुछ आपको करना ही पडेगा। मनोचिकित्सक ने अध्ययन किया उसकी पली का
कुछ सप्ताह तक और कहा कि इसका मस्तिष्क तो बिलकुल खत्म हो गया है। नसरुद्दीन ने
कहा कि 'वह मुझे पता था। रोज मुझे बांटती थी, मुझे देती थी। आखिर हर चीज खत्म हो जाती है। रोज थोडा— थोड़ा करके अपनी
बुद्धि मुझे देती रही, खत्म हो गयी।’ तुम
दूसरों को तो बुद्धि बांट रहे हो; लेकिन उसी बुद्धि का
प्रयोग तुम अपने पर ही नहीं कर पाते।
अब जब दुबारा तुम्हारे जीवन में सुख आये तो तुम उसे ऐसे देखना
जैसे किसी और के जीवन में आया हो। तुम जरा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करना। जरा
फासला चाहिए। थोड़ा—सा भी फासला काफी फासला हो जाता है। बिलकुल सटकर मत खड़े हो जाओ अपने से।
तुम अपने पड़ोसी हो। इतने सटकर मत खड़े हो जाओ।
नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि जो रास्ते के किनारे पर होटल है, उस होटल का मालिक कहता है
कि तुम्हारा बहुत सगा—संबंधी है, बहुत
निकट का। नसरुद्दीन ने कहा 'गलत कहता है। नाता है, लेकिन बहुत दूर का। बड़ा फासला है।’ मैंने पूछा. 'क्या नाता है?' तो नसरुद्दीन ने कहा कि हम एक ही बाप
के बारह बेटे हैं। वह पहला है, मैं बारहवां हूं। बड़ा फासला
है।
तुम अपने पड़ोसी हो,
फासला काफी है। ज्यादा सटकर मत खडे होओ। जरा दूरी रखो। दूरी के बिना
परिप्रेक्ष्य खो जाता है, पर्सपैक्टिव खो जाता है। कोई भी
चीज देखनी हो तो थोड़ा—सा फासला चाहिए। तुम अगर बिलकुल फूल पर
आंखें रख दो तो क्या खाक दिखाई पड़ेगा; कि तुम दर्पण में तुम
बिलकुल सिर लगा दो, कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी चाहिए।
अपने से थोड़ी दूरी ही सारी साधना है। जैसे—जैसे दूरी बढ़ती है,
तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम व्यर्थ ही परेशान थे। जो घटनाएं तुम
पर कभी घटी ही न थीं, तुमसे बाहर घट रही थीं, सिर्फ करीब खडे होने के कारण प्रतिबिंब तुममें पड़ता था, छाया तुम पर पड़ती थी, धुन तुम तक आ जाती थी—उसी प्रतिध्वनि को तुम अपनी समझ लेते थे और परेशान होते थे।
एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक स्वभावत: छाती पीटकर रो
रहा था। लेकिन एक आदमी ने कहा कि तुम नाहक परेशान हो रहे हो; क्योंकि मुझे पता है कि कल
तुम्हारे लड़के ने यह मकान बेच दिया है। उसने कहा. 'क्या कहा!'
लड़का गांव के बाहर गया था। रोना खो गया। मकान में अब भी आग लगी है।
वह बढ़ गयी बल्कि पहले से। लपटें उठ रही है, सब जल रहा है।
लेकिन अब यह आदमी इस मकान से फासले पर हो गया। अब यह मकान—मालिक
नहीं है। तभी लड़का भागता हुआ आया। उसने कहा 'क्या हुआ? यह मकान जल रहा है? सौदा तो हो गया था, लेकिन पैसे अभी मिले नहीं है। अब जले के कौन पैसे देगा?' फिर बाप अपनी छाती पीटने लगा। मकान वहीं का वहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं
पड़ रहा है। मकान को पता ही नहीं कि यहां सुख हो गया, दुख हो
गया। और फिर फर्क हो सकता है, अगर वह आदमी आकर कह दे कि कोई
बात नहीं, मैं वचन का आदमी हूं; जल गया
तो जल गया; खरीद लिया तो खरीद लिया; पैसे
दूंगा। फिर बात बदल गयी।
सब बाहर हो रहा है। और तुम इतने करीब सटकर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है। थोड़ा
फासला बनाओ। जब सुख आये तो थोड़ा दूर खड़े होकर देखना। जब दुख आये, तब भी दूर खड़े होकर देखना। और सुख से शुरू करना। ध्यान रहे—दुख से शुरू मत करना।
हममें से अक्सर लोग,
जब दुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करते
हैं। तब सफल न हो पाओगे। वह जरा कठिन मार्ग है। जब सुख होता है तब जरा दूर होने की
कोशिश करना; क्योंकि दुख से तो सभी दूर होना चाहते है,
वह बिलकुल सामान्य मन की वृत्ति है। सुख से कोई दूर नहीं होना
चाहता। इसलिए दुख से दूर होने की तुम कोशिश मत करना; क्योंकि
वह तो तुम सदा से कर रहे हो। उससे कुछ फल नहीं हुआ।
उलटे चलना होगा। जैसी तुमने यात्रा की है, उससे तो तुम भटकते ही चले
गये हो। वापस लौटना होगा।
प्रतिक्रमण करना होगा। इसको महावीर प्रतिक्रमण कहते हैं, पतंजलि ने प्रत्याहार कहा
है। वापस लौटना होगा—रिटर्निग बैक टू द सोर्स।
थोड़े कदम वापस लौट आओ। सुख जब आये तब जरा दूर खड़े होकर देखो। मत
धडकने दो हृदय को जोर से। मत नाचो। इतना ही जानो कि आया है, यह भी चला जायेगा। यह भी रुकनेवाला
नहीं; कुछ रुकता नहीं। लहर है हवा की, आयी
और गयी। तुम जान' भी न पाये कि चली गयी। बस दूर खड़े होकर तुम
उसे साक्षी—भाव से देखते रहो।
क्या होगा? डर क्या
है? सुख को
हम देखते
क्यों नहीं
साक्षी—भाव से?
साक्षी—भाव
से मु देखने
के पीछे कारण
है; क्योंकि
साक्षी— भाव
से देखा कि
सुख सुख न रह
जायेगा। वह
सुख था ही, जितने
करीब थे।
जितने तुम
भूले थे उतना
ही सुख था।
जितनी याद की
उतना ही कुछ न
रह जायेगा।
इसलिए कोई
आदमी सुख का
साक्षी नहीं
होना चाहता।
पर वहीं से
यात्रा है।
सुख आये, साक्षी—भाव से देखना। देखते ही देखते तुम पाओगे कि सुख खो गया, तुम रह गये। और अगर तुम सुख में सफल हो गये, फिर तुम दुख में सफल हो जाओगे। कुंजी तुम्हारे हाथ में है। फिर दुख आये, तुम दूर से खड़े होकर देखना। और दूर खड़े हो सकते हो; क्योंकि शरीर और तुम दूर हो। इससे बड़ी दूरी किन्हीं दो चीजों के बीच नहीं हो सकती। चेतना और पदार्थ की दूरी से बड़ी दूरी और क्या हो सकती है! चांद—तारे भी इतने दूर नहीं है एक दूसरे से, जितना तुम अपने शरीर से दूर हो। एक जड़ है, एक चेतन है। एक मिट्टी से बना है—मृण्मय है; एक चैतन्य से बना है—चिन्मय है। बड़ा फासला है। इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते।
सुख से शुरू करो, दुख तक ले जाओ। और एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो।
शिव सूत्र
ओशो
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