जरा मुझे कहने में दिक्कत होगी। बाप तो आप
ही हैं। कोई और तो कैसे बाप होगा?
तबीयत यह होती है, कोई और हो। कोई और
बता दिया जाए कि कोई और बाप है पाप का। आप ही हैं। और जब मैं कह रहा हूं आप ही,
तो बिलकुल आपसे कह रहा हूं। आपके पड़ोसी आदमी से नहीं कह रहा।
बिलकुल आपसे ही कह रहा हूं, आपके बगल वाले से नहीं कह रहा
हूं। और पाप क्यों करता है? सच तो यह है कि इस दुनिया में
कोई भी पाप नहीं करता। पाप होता है। पाप किया ही नहीं जा सकता और न पुण्य किया जा
सकता है। पुण्य भी होता है और पाप भी होता है।
इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। क्योंकि सामान्यतः
हम ऐसा ही कहते हैं: फलां आदमी पाप करता है,
फलां आदमी पुण्य करता है। यानी हमें खयाल कुछ ऐसा है, जैसे कि आदमी के वश में है--वह चाहे तो पुण्य करे, चाहे तो पाप करे। जब आप पाप करते हैं, कभी
आपने विचार किया--क्या आपके वश में था कि आप चाहते तो न करते? और अगर वश में था, तो रुक ही क्यों न गए?
जब आप क्रोध में आते हैं, तो क्या आप
जानते हैं कि आपके वश में था कि आप क्रोध में न आते? जब
कोई आदमी किसी की हत्या करता है, तो आप सोचते हैं कि उसके
वश में था कि वह हत्या न करता? तो क्या आप सोचते हैं कि
वश में होते हुए उसने हत्या की है?
मेरी दृष्टि ऐसी नहीं है। मनुष्य अगर
मूर्च्छित है तो उससे पाप होगा ही। पाप मूर्च्छा का सहज परिणाम है। कोई पाप करता
नहीं है, मूर्च्छा
में पाप होता है। इसलिए किसी पापी के प्रति मेरे मन में कोई निंदा नहीं है।
और यह जो आप कहते हैं कि पाप करता है, यह असल में निंदा करने
का रस लेना चाहते हैं। दुनिया के सभी साधु और सज्जन दूसरे को पापी कह कर मजा लेना
चाहते हैं, रस लेना चाहते हैं। क्योंकि जितने जोर से वे
आपको पापी सिद्ध कर दें, उतने ही ज्यादा वे पुण्यात्मा
सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में निंदा का रस है, कंडेमनेशन
का रस है। दूसरे आदमी की निंदा करो और कहो कि वह पापी है और पाप करता है। और इस
दुनिया में जो बहुत गहरे पाप में हैं, वे अपने पाप को
छिपाने के लिए चिल्लाते फिरते हैं कि फलां-फलां पाप है, और
फलां-फलां लोग पाप कर रहे हैं, और पाप से बचो। क्योंकि जो
चिल्लाने लगता है कि पाप से बचो, आपको यह खयाल पैदा हो
जाता है, यह आदमी तो कम से कम पाप से बचा ही होगा। अगर
किसी आदमी ने खुद ही चोरी की हो और वह जोर से चिल्लाने लगे कि चोरी हो गई है,
पकड़ो चोर को! तो आप कम से कम उसको तो छोड़ ही देंगे। क्योंकि वह
तो बेचारा कम से कम, खुद ही चिल्ला रहा है, तो उसने थोड़े ही चोरी की होगी। वह खुद ही चिल्ला रहा है कि चोरी हो गई,
चोर को पकड़ो। उसको कौन पकड़ेगा? उसको लोग
छोड़ देंगे। इसलिए दुनिया में जो बहुत होशियार हैं, वे
दूसरों को चिल्लाते हैं कि फलां-फलां पापी हैं। ये-ये पापी हैं, ये-ये काम पाप हैं।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, कोई भी मनुष्य पाप नहीं
करता है। पाप होता है। और होने का अर्थ मेरा यह है कि चेतना की एक दशा है, मूर्च्छित दशा। चेतना की एक अवस्था है, जब होश
नहीं है उसे। हम क्या कर रहे हैं, इसका भी हमें कोई होश
नहीं है। कुछ काम हमसे होते हैं। आप जरा स्मरण करें, आपने
जब भी क्रोध किया है, वह आपने किया था? आपने विचारा था? आपने तय किया था कि मैं क्रोध
करूंगा? आपने संकल्प किया था कि अब मैं क्रोध करता हूं?
आपने कुछ भी नहीं किया था। आपने अचानक पाया कि आप क्रोध में हैं।
गुरजिएफ नाम का यूनान में एक फकीर था। वह एक
गांव से निकलता था। एक बाजार में उसके कुछ दुश्मन थे, वह वहां से निकला,
उन्होंने उसे पकड़ लिया और उसे बहुत गालियां दीं। उस पर बड़ा
गुस्सा हुए, बहुत अपमान किया। जब वे सारी गालियां दे चुके,
अपमान कर चुके, गुरजिएफ ने कहा, मित्रो, मैं कल फिर आऊंगा इसका उत्तर देने। वे
लोग एकदम हैरान हो गए। उन्होंने गालियां दीं, अपमान किया,
बड़े अभद्र शब्द कहे। गुरजिएफ ने कहा कि मैं कल आऊंगा इसका उत्तर
देने। उसने कहा, मित्रो, मैं कल
आऊंगा इसका उत्तर देने।
उन्होंने कहा, क्या पागल हो? हम
गालियां दे रहे हैं, अपमान कर रहे हैं। कहीं गालियां,
अपमान का उत्तर कल दिया जाता है? जो
देना हो, अभी दो।
गुरजिएफ ने कहा कि हम मूर्च्छा में कुछ भी
नहीं करते। हम तो विवेक करते हैं;
विचार करते हैं। सोचेंगे, अगर जरूरी
समझेंगे कि क्रोध करना है तो करेंगे। अगर नहीं समझेंगे तो नहीं करेंगे। हो सकता है
तुम जो कह रहे हो, वह ठीक ही हो। इसमें भी कोई कठिनाई
नहीं है कि तुम जो गालियां दे रहे हो, वे सच ही हों। तो
हम फिर आएंगे ही नहीं। हम कहेंगे, ठीक है। उन्होंने जो
कहा, ठीक ही था। तो हम उसको अपने चरित्र का बखान समझेंगे,
उसको हम निंदा ही नहीं समझेंगे। सच्ची बात कह दी। अगर समझेंगे कि
क्रोध करना जरूरी है, तो क्रोध करेंगे।
उन लोगों ने कहा, तुम बड़े गड़बड़ आदमी हो।
कोई कभी सोच-विचार कर क्रोध किसी ने किया है? क्रोध तो
बिना विचार के, अविचार में ही होता है। कभी क्रोध
सोच-विचार कर नहीं होता।
कोई पाप सोच-विचार कर नहीं किया जा सकता है।
किसी पाप को कांशसली, सचेत रूप से नहीं किया जा सकता है। इसलिए मैं कहता ही नहीं कि पाप किया
जाता है। मैं तो कहता हूं, पाप होता है। फिर मैं क्या
कहूं आपको? आप कहेंगे, इसका तो
मतलब यह हुआ कि अब हमारे हाथ में ही नहीं है। जब पाप होता है तो हम क्या करें?
हत्यारा कहेगा, हम क्या करें? हत्या होती है। क्रोध होता है, हम क्या करें?
सच है। उसके करने का नहीं है सवाल। इस तल पर
कुछ भी नहीं करना है। पाप का होना इस बात की सूचना है कि आत्मा सोई हुई है। पाप के
तल पर कोई परिवर्तन न हो सकता है,
न करना है, न किया जा सकता है। यह तो
केवल खबर है इस बात की कि भीतर आत्मा सोई हुई है। पाप बाहर है, इस बात की खबर है कि भीतर आत्मा सोई हुई है। इस आत्मा को जगाने का सवाल
है। पाप को बदलने का सवाल नहीं है। इस आत्मा को जगाने का सवाल है। उसकी मैं चर्चा
कर रहा हूं कि वह आत्मा कैसे जग जाए। और वह आत्मा जग जाए तो आप पाएंगे--पाप तो
विलीन हो गया, उसकी जगह पुण्य शुरू हो गया। और पुण्य भी
होता है, वह भी नहीं किया जाता। अगर आप सोचते हों कि
महावीर, जैसा लोग कहते हैं कि महावीर को लोगों ने पत्थर
मारे, उन्होंने बड़ी क्षमा की। बिलकुल झूठी बात कहते हैं।
महावीर क्या क्षमा कर सकते हैं? क्षमा भी होती है,
की नहीं जाती। महावीर जागी हुई स्थिति में हैं। कोई पत्थर मारे,
गाली दे, उनसे क्षमा होती है। इसमें
करना क्या है? आपसे क्रोध होता है, उनसे क्षमा होती है। यानी उनसे क्षमा निकलती है, अब वे क्या करेंगे?
एक फूलों भरे दरख्त पर हम पत्थर मारें, तो फूल नीचे गिरेंगे;
और एक कांटों वाले दरख्त पर हम पत्थर मारें, तो कांटे नीचे गिरेंगे। जो होता है वह निकलता है, जो होता है वह गिरता है। अब महावीर के भीतर प्रेम ही प्रेम भरा है। आप
गए, आपने उनको दो गालियां दीं, वे
क्या करेंगे? वे प्रेम ही बांट देंगे। जो देने को है,
वही तो दे सकते हैं। जो निकल सकता है, वही
निकलता है।
जीवन में चीजें निकलती हैं, होती हैं। करना नहीं
होतीं। तो जो लोग कहते हैं, महावीर ने क्षमा की। बिलकुल
झूठी बात कहते हैं। जो कहते हैं, महावीर ने अहिंसा की।
बिलकुल झूठी बात कहते हैं। जो कहते हैं, बुद्ध ने करुणा
की। झूठी बात कहते हैं। किया नहीं, हुआ। वे चेतना की उस
अवस्था में हैं, जहां बस करुणा ही हो सकती है।
क्राइस्ट को लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया। और
जब सूली पर चढ़ा कर उनसे कहा कि कोई अंतिम बात कहनी है? तो क्राइस्ट ने कहा,
हे परमात्मा, इनको क्षमा कर देना। ये
नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आप कहोगे, क्राइस्ट ने
बड़ी क्षमा की। नहीं, बस क्राइस्ट यही कर सकते थे।
क्राइस्ट जैसी चेतना की अवस्था में हैं, उससे यही निकल
सकता था, और कुछ नहीं निकल सकता था।
मेरी आप बात समझ रहे हैं? कर्म का मूल्य नहीं है।
एक्शन का कोई मूल्य नहीं है। बीइंग का, आपकी सत्ता का
मूल्य है। आप कर्म को पकड़ेंगे, चक्कर में पड़ जाएंगे। आप
सोचेंगे, कर्म को बदलें। यह पाप है, इसको बदलें, उसको करें। आप कुछ नहीं कर
सकेंगे। जिसकी भीतर चेतना सोई है, वह कोई पुण्य कभी नहीं
कर सकता। तो आप शायद सोचेंगे, दोपहर को ही मैं कह रहा था,
अगर एक आदमी है, जिसकी चेतना सोई हुई है,
तो भी तो लोग कहते हैं कि उसने धर्मशाला बनाई, मंदिर बनाया; पुण्य किया। बिलकुल झूठी बात है।
क्योंकि जिसकी चेतना सोई है, वह मंदिर मंदिर नहीं बना रहा
है, वह अपने बाप के लिए स्मारक बना रहा है। अपने नाम के
लिए स्मारक बना रहा है। मंदिर-वंदिर नहीं बना रहा है। मंदिर से उसको क्या मतलब?
वह जो भी बना रहा है, उसकी सोई हुई
चेतना, उसमें जो काम कर रही है, उसमें
जरूर पाप होगा।
मेरा मानना है कि सोया हुआ आदमी जो भी करेगा, वह पाप है। पाप की
परिभाषा मेरी जो होगी--सोए हुए आदमी से जो भी होता है, वह
पाप है। जागे हुए आदमी से जो भी होता है, वह पुण्य है।
अगर सोया हुआ आदमी पुण्य की नकल भी करे, तो भी पाप है;
और अगर जागे हुए आदमी का कोई काम आपको पाप भी मालूम पड़े, तो जल्दी निर्णय मत लेना, वह भी पुण्य होगा,
वह भी पुण्य है। अब उससे पाप हो नहीं सकता है। उससे पाप का कोई
प्रश्न नहीं है।
मेरी दृष्टि शायद आपको समझ में आ जाए। पाप
और पुण्य के तल पर नहीं, चेतना के तल पर--सोई चेतना और जागी चेतना, जाग्रत
आत्मा और प्रसुप्त आत्मा, मूर्च्छित आत्मा और अमूर्च्छित
आत्मा--उस तल पर सारी बात है। और दोनों स्थितियों में जिम्मेवार आप हैं--कर्म के
लिए नहीं, अपनी चेतना की अवस्था के लिए। मेरा फर्क समझ
लें। ज्यादा गहरे तल पर परिवर्तन करना है। ऊपरी तल पर कोई परिवर्तन नहीं होता है।
कर्म के तल पर कोई परिवर्तन नहीं, व्यक्तित्व की पूरी
प्राण के तल पर, पूरी आत्मा के तल पर परिवर्तन होता है।
इसलिए जब कोई कहता है कि फलां काम पाप है, फलां काम पुण्य है,
तो मुझे हैरानी होती है। काम पाप और पुण्य नहीं होते। यह हो सकता
है कि वही काम पाप हो और वही काम पुण्य हो। यह तब हो सकता है, जब कि चेतना में भेद हो। जब चेतना बिलकुल भिन्न हो। जागी हुई चेतना वही
काम करे और सोई हुई चेतना वही काम करे। काम वही होगा और तल-भेद हो जाने से पाप और
पुण्य का फर्क हो जाएगा।
कर्म नहीं होते पाप और पुण्य, चेतना की अवस्था होती
है। स्टेट ऑफ माइंड होता है। वह जो स्टेट ऑफ माइंड है, वह
जो चित्त की दशा है, अवस्था है, वह
जो स्थिति है, वह बात है। वह विचारणीय है। वहीं कुछ करणीय
है, वहीं कोई क्रांति, वहीं कोई
क्रांति, कोई ट्रांसफार्मेशन, कोई
परिवर्तन, वहां करने की बात है।
लेकिन हम इसी तल पर सोचते रहते हैं हमेशा कि
यह काम पाप है, वह काम पुण्य है। तो पापी सोचता है कि चलो, हम
भी काम करें--पुण्य का काम करें, तो पुण्यात्मा हो जाएं।
तो दिन-रात पाप करता है, फिर एक मंदिर बना देता है। सोचता
है, हम भी पुण्य का काम करें। दिन-रात पाप करता है,
फिर गंगा-स्नान कर आता है। सोचता है, चलो,
पुण्य का काम करें।
अमृत की दशा
ओशो
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