जन्म बिना नाम के,
मौत फिर बिना नाम में ले जाती है। और जीवन भर जिस नाम के लिए हम
चेष्टा करते हैं, उसकी कहीं अस्तित्व में कोई रेखा भी नहीं
बचती। वह नाम कहीं है ही नहीं, जन्म लेता हूं बिना नाम के,
मरता हूं बिना नाम के। रोज रात सोते हैं और बिना नाम के हो जाते
हैं। नाम रोज मिटता है, डूबता है, बनता
है। और मौत तो बिलकुल बहा ले जाती है। क्योंकि मौत के साथ तो वही बचेगा जो जन्म के
साथ आया हो, जो जन्म के बाद निर्मित हुआ है वह मौत के साथ
नहीं जा सकता। जो जन्म के पहले से आया है वह मृत्यु में साथ हो सकता है। नाम जन्म
के पहले से आपके साथ नहीं; नाम मौत के बाद आपके साथ नहीं हो
सकता।
लेकिन सारा जीवन तो हम इस नाम को ही स्वर्ण अक्षरों में लिखने
की चेष्टा में व्यतीत कर देते हैं। क्या-क्या नहीं करते हैं उस नाम के पीछे, कैसी यात्राएं नहीं करते
हैं, कैसे दुख नहीं झेलते हैं, कैसी
पीड़ाएं, कितनी रातें बिना सोए खो देते हैं, कितने सुख खो देते हैं, कितनी शांति खो देते हैं।
किस बात के लिए? अगर कहीं पृथ्वी के पार कहीं भी और जीवन
होगा और अगर चांदत्तारों से कोई हमें देखता होता होगा तो सोचता होगा कि यह आदमियत
जो है इसे मैन काइंड कहना ठीक नहीं इसे मैड काइंड कहना ठीक है। इसे मनुष्यता कहना
ठीक नहीं, विक्षिप्तता कहना ठीक है। पागल है यह पूरी जाति।
पागलपन का केंद्र अहंकार है।
माटी कहे कुम्हार सूं
ओशो
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