सरमद के संबंध में मैंने सुना है। मुसलमानों की आयत है कि एक ही
परमात्मा है। एक ही परमात्मा है,
यह उनका खास खयाल है। और दूसरा उसमें हिस्सा है: उसके सिवाय कोई
परमात्मा नहीं। एक ही परमात्मा है, उसके सिवाय दूसरा कोई
परमात्मा नहीं। सरमद पहले हिस्से को छोड़ देता था। और यही कहता रहता था: दूसरा कोई
परमात्मा नहीं, दूसरा कोई परमात्मा नहीं। तो मुसलमान मौलवी
और पंडित दिक्कत में पड़ गए। पंडित धार्मिक आदमी से सदा ही दिक्कत में पड़ जाता है।
पंडित जो हैं वे अधर्म की दुकानों के मालिक हैं। वे सदा कठिनाई में पड़ जाते हैं।
वे बासे शब्दों के संग्राहक हैं। और जब ताजा सत्य पैदा होता है तब वे मुश्किल में
पड़ जाते हैं। क्योंकि उनका बासा सत्य एकदम बासा दिखाई पड़ने लगता है।
सरमद यही कहता फिरता: नहीं है कोई परमात्मा। आधा हिस्सा छोड़
देता, पहला
हिस्सा छोड़ देता: एक ही है परमात्मा, नहीं है उसके सिवाय कोई
परमात्मा। वह पिछली बात कहता रहता: नहीं है कोई परमात्मा।
तो जाकर औरंगजेब को लोगों ने कहा कि यह तो बहुत अधर्म की बात हो
रही है। और सरमद को लाखों लोग पूजते हैं। सरमद को बुलाया, उससे कहा कि क्या है
तुम्हारा कहना? उसने कहा, नहीं है कोई
परमात्मा। तो औरंगजेब ने कहा, यह तो नास्तिक की बात हुई।
सरमद ने कहा, अभी तो मैं इतना ही जान पाया हूं कि नहीं है
कोई परमात्मा। जब तक मैं जान न लूं कि है कोई परमात्मा, तब
तक मैं कैसे कहूं? मैंने नहीं जाना, मैं
नहीं कहूंगा। जान लूंगा, कहूंगा। जब तक नहीं जाना, कैसे कहूं? और अगर झूठ कह दूं, तो परमात्मा पीछे मुझसे पूछेगा कि बिना जाने तूने कहा कैसे? तो मैं उसको जवाब क्या दूंगा?
औरंगजेब ने उसे सूली चढ़वा देने की आज्ञा दे दी कि यह आदमी मार
डालने योग्य है। उसकी गर्दन काटी गई। और कहानी बड़ी अदभुत है, अगर सच न हो तो भी अदभुत है
और अर्थपूर्ण है। जिस दिन उसकी गर्दन कटी, और दिल्ली की
मस्जिद में जहां उसकी गर्दन कटी और उसका सिर गिरता हुआ सीढ़ियों पर लुढ़कने लगा,
तो कहते हैं कि उसके सिर से आवाज निकली कि एक ही है परमात्मा,
उसके सिवाय कोई परमात्मा नहीं। तो भीड़ थी लाखों लोगों की, उसने कहा, पागल थोड़ी देर पहले कह देता! अब गर्दन कट
कर कहने से फायदा क्या! तो उस सरमद ने कहा, गर्दन कटे बिना
पता कैसे चलता! गर्दन कटी तो पता चला, जब मैं मिटा तो पता
चला कि नहीं, है, वही है, उसके सिवाय कोई भी नहीं। बाकी बिना गर्दन कटे पता नहीं चल सकता था। लोग
कहने लगे, बड़ा पागल है, थोड़ी देर पहले
कह देते तो बच जाते। सरमद ने कहा, बच जाते तो कभी कह ही न
पाते। क्योंकि बच गए तो हम बच जाते, वह न हो पाता।
खोना पड़ेगा,
अंततः इतना खो जाना पड़ेगा कि मेरे पास मेरा कहने जैसा भी कुछ न रह
जाए। यह भी--मैं प्रयास कर रहा हूं, साधना कर रहा हूं,
ध्यान कर रहा हूं, समाधि कर रहा हूं--योग कर
रहा हूं, इसमें भी मैं मजबूत हो रहा है, यह भी कहने को न बच रह जाए। जिस दिन सब मेरा मैं कट जाता है...कटेगा कैसे?
असफलता से कटता है। सब तरफ हार जाने से कटता है। सब तरफ प्रयास की
व्यर्थता से कटता है। साधना का एक ही मूल्य है कि अंततः पता चलता है इससे भी नहीं
मिलता वह। और जब कुछ भी द्वार-दरवाजा नहीं रह जाता, पाने का
कोई मार्ग नहीं रह जाता, और अवाक खड़ा रह जाता है व्यक्ति और
पाता है अब कुछ भी करने को शेष नहीं, तत्क्षण वह मिल जाता
है। वह मिला ही हुआ है। करने वाले चित्त को दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि करने वाला चित्त भागता रहता है।
करने वाला चित्त ऐसा है जैसे कि एक फोटोग्राफर हो, और अपने कैमरे को लेकर
मीलों की रफ्तार से दौड़ रहा हो, और जब बाद में अपने कैमरे को
खोले तो कोई तस्वीर न बने, क्योंकि उसकी रफ्तार इतनी तेज थी
कि जो भी उसके कैमरे से गुजरा, पकड़ा नहीं जा सका। लेकिन रुक
जाए, तो तस्वीर बन जाए। रुका हुआ कैमरा तस्वीर पकड़ ले। भागता
हुआ कैमरा कैसे पकड़े कुछ? भागता हुआ कैमरा खाली रह जाता,
रुका कैमरा पकड़ लेता। इसलिए कैमरा हिल न जाए, इसकी
भी फिक्र रखनी पड़ती हैं। लेकिन हम पूरे तरफ भाग रहे हैं और हिल रहे हैं। तो वह जो
मन का लेंस है, वह जो मन का कैमरा है, वह
कुछ भी पकड़ नहीं पाता।
परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और हम अपने कैमरे को लेकर, अपने मन को लेकर भागे हुए
हैं। दौड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं, शोरगुल मचा रहे हैं, बैंडबाजा
बजा रहे हैं, राम-धुन कर रहे हैं, भजन-कीर्तन
कर रहे हैं, सब कर रहे हैं भागे हुए, लेकिन
ठहर नहीं रहे हैं। ठहर जाएं, तो उसकी तस्वीर अभी पकड़ जाए।
समाधी के द्वार पर
ओशो
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