मैं कहता
हूं कि भाग्यशाली हूं मैं, क्योंकि मैंने शास्त्र पढ़े, और पढ़ कर जाना कि
शास्त्रों से नहीं पाया जा सकता है।
लेकिन
जिसने शास्त्र नहीं पढ़े उसके मन में कहीं न कहीं शक बना रह सकता है। शास्त्रों को
पढ़ कर ही जाना जा सकता है कि नहीं मिलेगा यहां, नहीं मिलेगा यहां, नहीं
मिल सकता है। साधना करके ही जाना जा सकता है--बेकार गई, बेकार
गई; नहीं मिला, नहीं मिला। जो सब तरफ
दौड़ चुकता है, सब खोज चुकता है, सब
कोने-कोने खोज लेता है और थक कर बैठ जाता है कि नहीं मिला, नहीं
मिला। नहीं मिलता है, आखिरी क्षण आ जाता है, हेल्पलेस, असहाय हो जाता है, बैठ
जाता है, तब हैरान होकर पाता है कि आश्चर्य, जिसे मैं दौड़ कर खोजता था, वह बैठ कर मिल गया है।
असल में बैठे बिना वह नहीं मिलता है। और खोजने वाला बैठ नहीं पाता है, वह दौड़ता रहता है, वह दौड़ता रहता है। बैठ जाए तो वह
पाता है कि यह तो मेरे पास ही था।
इसलिए अगर
किसी ने ऐसा कहा हो कि उसने माला डाल दी,
उसकी कृपा से मिला, तो उसका कुल मतलब इतना है
कि मेरे प्रयास से नहीं मिला। लेकिन उसकी कृपा सब पर बराबर है। उसकी कृपा की वर्षा
सबके ऊपर हो रही है। लेकिन जो खाली घड़े की तरह हैं वे भर जाएंग; और जो भरे हुए हैं पहले से वे खाली रह जाएंगे; वर्षा
होती रहेगी, उनमें नहीं भर पाएगा वह।
ध्यान रहे, परमात्मा को दयावान और
कृपालु कहना बहुत ही गलत है। क्योंकि दयावान सिर्फ हम उसे ही कह सकते हैं जो
कभी-कभी अ-दया भी दिखाता हो। और कृपालु उसे कह सकते हैं जो कभी-कभी कृपा को छीन भी
लेता हो, रोक भी लेता हो।
नहीं, परमात्मा कृपालु नहीं है,
परमात्मा कृपा-स्वरूप है। यानी अ-कृपा का वहां कोई उपाय नहीं है।
हम कहते
हैं, परमात्मा
सर्वशक्तिशाली है। लेकिन कुछ मामलों में बिलकुल ही शक्तिशाली नहीं है। जैसे अ-कृपा
करना चाहे तो बिलकुल इंपोटेंट है, नहीं कर सकता है। दुष्टता
करना चाहे तो नहीं कर सकता है। वहां जाकर बिलकुल निर्वीर्य है, वहां कुछ भी नहीं कर सकता है।
स्वभाव है, वह चारों तरफ खड़ा है,
हम कब गर्दन झुका देंगे--तभी।
समाधी के द्वार पर
ओशो
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