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Monday, January 15, 2018

आप कहते हैं, प्रार्थना में मांगें मत; कोई वासना, आकांक्षा न करें। क्या आपका यह मतलब है कि प्रार्थना में कुछ मांगा जाए, तो वह पूरा नहीं होगा?


नहीं; मेरा यह मतलब नहीं है। वह तो पूरा हो जाएगा, प्रार्थना बेकार हो जाएगी। आपने सस्ते में प्रार्थना बेच दी। जिससे परमात्मा मिल सकता था, उससे आपने एक बेटा पा लिया। जिससे परमात्मा मिल सकता था, उससे आपने कोई नौकरी पा ली। आपने बहुत सस्ते में प्रार्थना बेच दी!

 
यह मेरा मतलब नहीं है कि प्रार्थना में आप मांगेंगे, तो पूरा नहीं होगा। पूरा हो जाएगा, यही खतरा है। क्योंकि तब आप प्रार्थना के साथ गलत संबंध जोड़ लेंगे और व्यर्थ की चीजें मांगते चले जाएंगे। वह पूरा हो जाएगा। पूरा इसलिए नहीं हो जाएगा कि परमात्मा आपकी प्रार्थना पूरी करने आ रहा है। इसलिए भी नहीं। क्योंकि आपकी क्षुद्र प्रार्थनाओं का क्या मूल्य है!


प्रार्थना इसलिए पूरी हो जाती है कि प्रार्थना अगर आपने पूरे भाव से की है, तो आप ही उसके पूरे करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। अगर आपने प्रार्थना पूरे भाव से की है, तो आपका मन सशक्त हो। जाता है। अगर आपने प्रार्थना पूरे भाव से की है, तो आपके मन की शक्ति ही उस प्रार्थना के कार्य को पूरा करवा देती है।


कोई आपकी प्रार्थना में आ नहीं रहा है। आप अकेले ही हैं। वह मोनोलाग है, एकालाप है, उसमें कोई दूसरा उत्तर नहीं दे रहा है। लेकिन अगर आपने बलपूर्वक कोई प्रार्थना की है, तो उस प्रार्थना को बलपूर्वक करने में आप बलशाली हो गए। और वह जो बलशाली हो जाना है आपके मन का, वही सूक्ष्म शक्तियों को विकीर्णित कर देता है और घटना घट जाती है। अगर संदेह से की है, तो घटना नहीं घटती। क्योंकि संदेह अगर साथ मौजूद है, तो आप बलशाली हो ही नहीं पाते।


लेकिन प्रार्थना पूरा कर देगी। आप जो भी मांगेंगे, पूरा हो जाएगा। यह मेरा मतलब नहीं था। मेरा मतलब यह था कि जब आप मांगते हैं, तब वह प्रार्थना नहीं रही, मांग ही हो गई।


प्रार्थना तो वह शुद्ध क्षण है, जब आपका और विराट का मिलन होता है। वहां छोटी—छोटी मांगें बीच में खड़ी न करना। उन क्षुद्र बातों के कारण आडू पड़ जाएगी। और छोटी—छोटी चीजें इतनी बड़ी आडू बन जाती हैं, जिसका हिसाब नहीं है।


कभी खयाल किया, आंख में एक छोटा—सा तिनका चला जाए, और सामने हिमालय भी खड़ा हो, तो फिर हिमालय भी दिखाई नहीं पड़ता; आंख बंद हो जाती है। एक छोटा—सा तिनका पूरे हिमालय को ढंक देता है; आंख ही बंद हो जाती है। छोटी—सी मांग आंख को बंद कर देती है। फिर परमात्मा सामने भी खड़ा हो, तो दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा के पास मांगते हुए मत जाना। इसका यह मतलब नहीं है कि आपके मन की ताकत नहीं है। आपके मन की बड़ी ताकत है। और अगर आप पूरे भरोसे से कोई बात को तय कर लें, वह हो जाएगी। उसको कोई परमात्मा बीच में आपके पूरा करने नहीं आता। आप ही पूरा कर लेते हैं। इतने के लिए तो आप भी काफी परमात्मा हैं!


ये जो मन की क्षमताएं हैं— मन की क्षमताएं हैं, अगर आप कोई विचार बहुत गहरे में मन में ले लेते हैं, तो आपका मन उस विचार को पूरा करने में संलग्न हो जाता है। और आपके पास न मालूम कितनी सूक्ष्म शक्तियां हैं, जिनका आपको पता नहीं है, जिनका आपको खयाल नहीं है।


समझें। आपको नौकरी नहीं मिल रही है। आप पच्चीस इंटरव्यू दे आए। और जहां भी जाते हैं, वहीं से खाली हाथ लौट आते हैं। कभी आपने सोचा कि जब आप इंटरव्यू देकर खाली हाथ लौटते हैं, तो उसमें इंटरव्यू लेने वाले का तो थोड़ा हाथ है ही, आपका भी काफी हाथ है। ज्यादा आपका ही हाथ है।
आप जिस ढंग से प्रवेश करते हैं उसके दफ्तर में। आपकी शक्ल—सूरत आपने जैसी बना रखी है, कुटी—पिटी, हारी हुई। भीतर से आप डरे हुए हैं और पहले ही सोच रहे हैं कि नौकरी तो मिलनी नहीं है। ये वाइब्रेशंस आप लेकर उसके दफ्तर में प्रवेश करते हैं। वह आपकी तरफ देखकर ही निगेटिव हो जाता है।


आप उसको निगेटिव कर रहे हैं। आप उसको नकार से भर देते हैं। आपको देखकर ही उसके मन में आकर्षण पैदा नहीं होता कि खींच ले आपको पास या आपके पास खिंच जाए, ऐसा लगता है कि कब आदमी यह बाहर निकले। और जैसे ही आप उसके चेहरे पर देखते हैं कि इसको लग रहा है कि कब यह आदमी बाहर निकले, आप और कंप जाते हैं। आपको पक्का हो जाता है कि गई, यह नौकरी भी गई! यह आप ही कर रहे हैं।


अगर आप प्रार्थना कर सकें किसी मंदिर में जाकर, चाहे वहां कोई देवता हो या न हो, यह सवाल बड़ा नहीं है। असली हो देवता, नकली हो, यह भी सवाल नहीं है। अगर आप किसी मंदिर में जाकर प्रार्थना कर सकें पूरे भरोसे के साथ; यह प्रार्थना किसी देवता को नहीं बदलेगी, आपको बदल देगी। आप उस मंदिर से जब लौटेंगे, अब भरोसा होगा। आत्मविश्वास होगा। पैरों में ताकत होगी। आंखों में रौनक होगी।


और जब आप दफ्तर में प्रवेश करेंगे किसी नौकरी के, तो आपके भीतर एक यस मूड होगा, एक हां का भाव होगा कि नौकरी मिलने वाली है, प्रार्थना पूरी होने वाली है। अब कोई रोक नहीं सकता, परमात्मा मेरे साथ है। यह जो आप भीतर प्रवेश कर रहे हैं, आपकी तरंगें अब दूसरी हैं, पाजिटिव हैं, विधायक हैं। जो भी आदमी आपको देखेगा, वह खिचेगा, आकर्षित होगा। आप मैग्नेट बन गए।


प्रार्थना ने किसी परमात्मा के विचार को नहीं बदला; प्रार्थना ने आपको बदल दिया।


और आपकी प्रार्थनाएं परमात्मा के विचार को कैसे बदल पाएंगी? इसका तो मतलब यही हुआ कि जब तक आपने प्रार्थना नहीं की थी, परमात्मा कुछ गलती में था! आपने सलाह दी, तब उनको अक्ल आई! अब तक नौकरी नहीं दिलवा रहे थे, अब नौकरी दिलवा रहे हैं।


या तो इसका यह मतलब होता है, या इसका यह मतलब होता है कि रिश्वत की तलाश में था परमात्मा! जब तक आप हाथ—पैर न जोड़ो, फूल—पत्ती न चढ़ाओ, नारियल न पटको, सिर न पटको
उनके पैरों में, तब तक वे राजी न होंगे। आपकी स्तुति की खोज थी, खुशामद, कोई रिश्वत! तो यह तो ब्लैकमेलिंग है। आदमी को।? नौकरी दिलवाना है, तो पहले सिर पटकवाओ।


नहीं, न परमात्मा आपकी रिश्वत की तलाश में है, न आपकी स्तुति की, न आपकी प्रार्थना की। लेकिन जो आप कर रहे हैं, उससे आप बदल रहे हैं। आप दूसरे आदमी होकर प्रवेश कर रहे हैं।


यह जो आपका आकर्षण है पाजिटिव बिंदु का, विधायक बिंदु का, इसका परिणाम होगा। नौकरी मिल सकती है। और नौकरी मिल जाएगी, तो आपका एक भाव दृढ़ हो जाएगा कि प्रार्थना से मिली। अब आप और मजबूत हो जाएंगे। अब दुबारा किसी दूसरी जगह प्रार्थना करके जाएंगे, तो आपके पैरों की ताकत अलग होगी। आप हवा में उड़ेंगे। यह आत्मविश्वास काम करता है।


प्रार्थना आत्मविश्वास देती है। आत्मविश्वास आपकी शक्तियों को विधायक बना देता है। अविश्वास अपने पर, नकारात्मक बना देता है।


तो यह मैंने नहीं कहा कि प्रार्थना करेंगे, तो कोई मांग पूरी नहीं होगी। पूरी हो जाएगी, यही खतरा है। पूरी न होती, तो शायद आप। कभी न कभी प्रार्थना में मांग बंद कर देते। वह पूरी हो जाती है, तो मांग आदमी जारी रखता है।


धन्यभागी हैं वे, जिनकी प्रार्थनाएं कभी पूरी नहीं होतीं। क्योंकि तब उनको समझ में आ जाएगा कि प्रार्थना में मांग व्यर्थ है। तो शायद किसी दिन वे उस सार्थक प्रार्थना को कर सकें, जिसमें मांग नहीं होती, सिर्फ भाव होता है।


ठीक से समझ लें, प्रार्थना मांग नहीं, दान है। अगर आप परमात्मा को अपने को देने गए हैं, तो प्रार्थना है; अगर उससे कुछ लेने गए हैं, तो प्रार्थना नहीं है।


गीता दर्शन 

ओशो

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