रोज मुझसे लोग मिलते हैं और कहते हैं, 'कैसे कोई क्रोध से मुक्त
हो? कैसे कोई काम से, वासना से मुक्त
हो? कैसे कोई मुक्त हो इससे, कैसे कोई
मुक्त हो उससे?' और जब मैं कहता हूं 'इसे
जीओ', तो उन्हें धक्का लगता है। वे मेरे पास आए थे उन बातों
का दमन करने की किसी विधि की खोज में। और यदि वे भारत में किसी दूसरे गुरु के पास
गए होते तो उन्हें अपना दमन करने के लिए कोई न कोई विधि मिल गई होती। लेकिन दमन
कभी मुक्ति नहीं बन सकता, क्योंकि दमन का अर्थ है अनुभव से
बचना। दमन का अर्थ है अनुभव की तमाम जड़ों को ही कांट देना। दमन कभी भी मुक्ति नहीं
बन सकता। दमन सब से बड़ा बंधन है जो. तुम कहीं पा सकते हो। तुम जीते हो एक पिंजरे
में। अभी एक दिन एक नए संन्यासी ने मुझसे कहा, 'मैं पिंजरे
में बंद जानवर जैसा अनुभव करता हूं।’ इसकी पूरी संभावना है
कि उसका मतलब यही शा कि वह चाहता था कि मैं उसकी मदद करूं ताकि जानवर मर जाए,
क्योंकि हम 'जानवर' तभी
कहते हैं जब हम निंदा करते हैं। वह शब्द ही निंदित है। लेकिन जब मैंने संन्यासी से
कहा, 'ही, मैं तुम्हारी मदद करूंगा।
मैं तोड़ दूंगा पिंजरा और पूरी तरह स्वतंत्र कर दूंगा जानवर को,' तो उसे थोड़ा धक्का लगा; क्योंकि जब तुम कहते हो
जानवर, तो तुमने उसकी निंदा, उसका मूल्यांकन
कर ही दिया होता है। यह कोई महज तथ्य नहीं है। पशु या पशुता शब्द में ही तुमने वह
सब कुछ कह दिया जो तुम कहना चाहते थे। तुम उसे स्वीकार नहीं करते। तुम उसे जीना
नहीं चाहते।
इसीलिए तुमने पिंजरा बना लिया है। वह पिंजरा है: चरित्र। सारे चरित्र पिंजरे
हैं, कारागृह हैं, तुम्हारे चारों ओर
बंधी जंजीरें हैं। और चरित्र वाला आदमी कैदी आदमी है। वास्तविक रूप से जागा हुआ
व्यक्ति चरित्र वाला व्यक्ति नहीं होता है। वह जीवंत होता है। वह पूरी तरह जागा
हुआ होता है, लेकिन उसका कोई चरित्र नहीं होता, क्योंकि उसके आस—पास कोई पिंजरा नहीं होता। वह
सहजस्फूर्त भाव से जीता है। वह जागा हुआ जीता है इसलिए कोई गलती नहीं हो सकती,
लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कोई पिंजरा नहीं होता आस पास।
पिंजरा सजगता का झूठा विकल्प है। यदि तुम सोए—सोए जीना चाहते हो तो
तुम्हें चरित्र की जरूरत है, ताकि चरित्र तुम्हें मार्ग—निर्देश दे सके। तब तुम्हें सजग रहने की जरूरत नहीं होती। जैसे, तुम कोई चीज चुराने ही वाले हो—कि चरित्र एकदम रोक
देता है तुम्हें वह कहता है, 'नहीं! यह गलत है! यह पाप है!
तुम सडोगे नरक में! क्या तुम भूल गए सारी बाइबिल? क्या तुम
भूल गए सभी दंड जिन्हें भुगतना पड़ता है आदमी को?' यह 'है चरित्र। यह रोक देता है तुम्हें। तुम चोरी करना चाहते हो, चरित्र एक रुकावट बन जाता है।
सजग व्यक्ति भी चोरी नहीं करेगा, लेकिन यह उसका चरित्र नहीं है; और यही है चमत्कार और सौंदर्य। उसके पास कोई चरित्र नहीं है और फिर भी वह
चोरी नहीं करेगा?ँ क्योंकि उसके पास बोध है। ऐसा नहीं है कि
वह भयभीत है पाप से—पाप जैसा कुछ है ही नहीं। ज्यादा से
ज्यादा कह सकते हो कि गलतियां हैं। पाप जैसा तो कुछ है ही नहीं। वह दंड से भयभीत
नहीं है, क्योंकि दंड कहीं भविष्य में नहीं मिलता। ऐसा नहीं
है कि पापों के लिए दंड मिलता है। असल में पाप ही दंड है।
ऐसा नहीं है कि तुम आज क्रोधित होते हो और दंड तुम्हें कल
मिलेगा या अगले जन्म में मिलेगा—कोरी बकवास है यह सब। तुम अपना हाथ आग में अभी डालते हो, तो क्या सोचते हो कि वह अगले जन्म में जलेगा? जब तुम
अपना हाथ आग में डालते हो, तो वह अभी जलता है; वह तत्क्षण जलता है। हाथ का वहा रखा जाना और उसका जल जाना साथ—साथ घटता है। एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता। जीवन का भविष्य में कोई
विश्वास नहीं, क्योंकि जीवन केवल वर्तमान में है। ऐसा नहीं
है कि पापों की सजा भविष्य में मिलेगी, पाप ही सजा हैं। सजा
अंतर्निहित है : तुम चोरी करते हो और तुम्हें सजा मिल जाती है। उस चोरी करने में
ही तुम सजा पाते हो—क्योंकि तुम ज्यादा बंद हो जाते हो : तुम
ज्यादा भयभीत हो जाओगे, तुम संसार का सामना न कर पाओगे।
निरंतर तुम एक अपराध— भाव अनुभव करोगे, कि तुमने कुछ गलत किया है, किसी भी घड़ी तुम पकड़े जा
सकते हो। तुम पकड़े ही गए हो! हो सकता है कभी किसी ने तुम्हें पकड़ा न हो और किसी
न्यायालय ने तुम्हें कभी सजा न दी हो—और कहीं कोई पारलौकिक
न्यायालय नहीं है—लेकिन फिर भी तुम पकड़े गए हो। तुम स्वयं के
द्वारा ही पकड़े गए हो। इसे कैसे भूल पाओगे तुम? कैसे तुम
क्षमा करोगे स्वयं को? कैसे तुम उस बात को अनकिया कर दोगे
जिसे कि तुमने किया है? वह तुम्हारे चारों ओर छाई रहेगी। यह
बात छाया की भांति तुम्हारा पीछा करेगी। किसी प्रेत की भांति यह तुम्हारे पीछे पड़ी
रहेगी। यह स्वयं ही एक सजा है।
तो चरित्र तुम्हें गलत बातें करने से रोकता है, लेकिन वह तुम्हें उनके बारे
में सोचने से नहीं रोक सकता। लेकिन चोरी करना या उसके बारे में सोचना एक ही बात
है। सचमुच हत्या कर देना और उसके बारे में सोचना एक ही बात है। क्योंकि जहां तक
तुम्हारी चेतना का प्रश्न है तुमने वह बात कर ही दी है —यदि
तुमने उसके बारे में सोचा है। वह कृत्य न बनी क्योंकि चरित्र ने तुम्हें रोक लिया,
यदि चरित्र वहा न होता तो वह बात कृत्य बन गई होती।
तो असल में चरित्र ज्यादा से ज्यादा यही करता है : वह रोक लगा
देता है विचार पर; वह उसे कृत्य मैं नहीं बदलने देता। यह समाज के लिए ठीक है, लेकिन तुम्हारे लिए जरा भी ठीक नहीं है। यह समाज की सुरक्षा करता है;
तुम्हारा चरित्र समाज की सुरक्षा करता है। तुम्हारा चरित्र दूसरों
की सुरक्षा करता है, बस इतना ही। इसीलिए प्रत्येक समाज जोर
देता है चरित्र पर, नैतिकता पर, ऐसी ही
चीजों पर; लेकिन वह तुम्हारी सुरक्षा नहीं करता।
तुम्हारी सुरक्षा केवल होश में हो सकती है। और यह होश कैसे पाया
जाता है? दूसरा
कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके किं जीवन को उसकी समग्रता में जीया जाए।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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