शिव प्रसाद अग्रवाल,
पहली तो बात,
यह कलियुग नहीं है। कलियुग पहले था, यह सतयुग
है। मेरी समय की अपनी धारणा है।
तुम्हारी परंपरागत धारणा है कि पहले सतयुग हुआ। सतयुग था, तब समय के चार पैर थे। फिर
त्रेता आया, एक टांग टूट गई। चार पैर की जगह तीन ही पैर बचे,
तिपाई हो गई। किसी तरह तीन पैरों पर भी टिका रह सकता है। समय टिका
रहा। त्रेता भी इतना बुरा नहीं था; सतयुग जैसा तो नहीं था,
कुछ भ्रष्ट हुआ, एक टांग टूट गई, लंगड़ाया थोड़ा, मगर तिपाई फिर भी टिकी रही।
फिर द्वापर आया। दो ही पैर रह गए। फिर जरा मुश्किल मामला हो
गया। फिर जरा कठिनाई हो गई। फिर सत्य यूं चलने लगा जैसे साइकिल चलती है। दुई-चक्र।
मारे जाओ पैडल तो चलती है, जरा ही पैडल रोका कि धड़ाम से गिरे। मतलब गिरना हर हालत में कहीं भी हो जाता
है, देर नहीं लगती। जरा ही रुके कि गिरे। जरा ही चूके कि
गिरे। द्वापर आया।
फिर द्वापर भी गया। अब कलियुग चल रहा है--तुम्हारे हिसाब से, परंपरागत हिसाब से। कलियुग
का मतलब होता है, एक ही टांग बची। यह बड़ा कठिन काम, सर्कस वगैरह में होता है। यह एक ही चक्के की साइकिल चलाने वाले लोग।
मेरा एक संन्यासी है। वह सारी दुनिया की यात्रा कर रहा है, एक ही साइकिल का चक्का
लेकर। अभी कुछ दिन पहले यहां था। जापान से लेकर भारत तक की यात्रा करके एक ही
चक्के पर आया। यह है पक्का कलियुगी--महात्मा कलियुगानंद!
और अब आगे कुछ बचा ही नहीं। अब एक टांग की टूटने की और जरूरत
है। और एक टांग कभी भी टूट जाएगी। एक टांग से कितने उछलोगे-कूदोगे? आज टूटी, कल टूटी। एक टांग का क्या भरोसा? अब तो लंगड़ी दौड़ चल
रही है। कभी भी गिर जाएगा।
यह तुम्हारी समय की धारणा है। इस समय की धारणा के पीछे
मनोविज्ञान है। हम सबको खयाल है कि बचपन प्यारा था, सुंदर था। फिर जवानी आई; वह
उतनी प्यारी नहीं जैसा बचपन था। बचपन तो स्वर्ग था। फिर बुढ़ापा आता है, और फिर मौत। जन्म से शुरू होती है बात और मौत पर खत्म होती है। यह हमारे
सामान्य जीवन का अनुभव है। इसी अनुभव को हमने पूरे समय पर व्याप्त कर दिया है। तो
पहले जन्म--सतयुग; बचपन भोला-भाला; सब
सच्चे लोग; कहीं कोई बेईमानी नहीं; घरों
में ताला नहीं लगाना पड़ता; कोई चोरी ही नहीं करता। यह बचपन
की धारणा है हमारी। फिर जवानी आई, थोड़ा तिरछापन आया। तीन
टांगें रह गईं। थोड़ी धोखाधड़ी प्रविष्ट हुई, थोड़ी बेईमानी,
थोड़ा पाखंड, थोड़ी प्रतियोगिता। वह भोलापन न
रहा जो बचपन का था। फिर बुढ़ापा आया। बुढ़ापे में आदमी और भी चालबाज हो जाता है,
और बेईमान हो जाता है। क्योंकि जीवन भर का अनुभव। सब तरह के दंद-फंद
कर चुका। सब तरह के दंद-फंद झेल चुका। और फिर तो मौत ही बचती है।
इस तरह हमने चार हिस्सों में समय को बांट दिया, आदमी के हिसाब से। मगर यह
धारणा उचित नहीं है। यह सामान्य आदमी के जीवन को देख कर तो ठीक है, लेकिन अगर बुद्धों का जीवन देखो तो बात बदल जाएगी। बुद्ध का तो जो
सर्वाधिक स्वर्ण-शिखर है, वह मृत्यु का क्षण है, क्योंकि उसी क्षण महापरिनिर्वाण होता है। हम जिसे मृत्यु की तरह जानते हैं,
बुद्धपुरुषों ने उसे महामिलन जाना है। वह परमात्म सत्ता से मिल जाना
है। वह बूंद का सागर में खो जाना है। वह सीमित का असीमित में मिल जाना है। वह मिलन
है, महामिलन है। वह सुहागरात की घड़ी आई। वही प्रणय का क्षण
है, प्रेम का क्षण है--अपनी पराकाष्ठा पर।
बुद्धों के जीवन में विकास होता है। बुद्धुओं के जीवन में ह्रास
होता है। मैं नहीं मानता कि मेरा बचपन ज्यादा सुंदर था। मैं तो रोज-रोज ज्यादा
सौंदर्य को, ज्यादा
आनंद को, ज्यादा रस को उपलब्ध होता रहा हूं। घटा कुछ भी नहीं
है, बढ़ा है। बढ़ता ही जा रहा है। मेरी मृत्यु का क्षण परम
आनंद का क्षण होगा। वही असली जन्म होगा। यह पहला जन्म जो था यह तो देह में बंध
जाना था। यह तो कारागृह में पड़ जाना था। वह जो जन्म होगा मृत्यु के क्षण में,
वह महाजन्म होगा। वह देह से मुक्त होना, कारागृह
से मुक्त होना; और महान विराट में एक हो जाना, उसके साथ तत्सम हो जाना। वह दुर्भाग्य नहीं है। लेकिन बोध बढ़े तो।
मेरे हिसाब से आदमी विकासमान है, ह्रासमान नहीं। और विज्ञान मुझसे राजी है।
तुम्हारी धारणा, जो तुम्हारे पुराण तुम्हें दे गए हैं,
विज्ञान के हिसाब से गलत है। विज्ञान विकासवादी है। विज्ञान मानता
है: आदमी विकसित हो रहा है। तुम सोचते हो: स्वर्णयुग पहले थे, और अब कलियुग। विज्ञान कहता है: कलियुग पहले था, स्वर्णयुग
अब; और-और स्वर्णयुग आएंगे। और मैं मानता हूं कि इस तरह की
धारणा जीवन के विकास में सहयोगी है।
आपुई गई हिराय
ओशो
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