Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Tuesday, January 2, 2018

अनुकरण नहीं, आदर्श नहीं



अकबर के दरबार में तानसेन बहुत दिन रहा था। एक दिन अकबर ने तानसेन को रात में विदा करते वक्त कहा, तेरे गीत सुन कर, तेरे संगीत में डूब कर अनेक बार मुझे ऐसा लगता है, तू बेजोड़ है, शायद ही पृथ्वी पर कभी किसी ने ऐसा बजाया हो जैसा तू बजाता है। लेकिन आज तुझे सुनते वक्त मुझे एक खयाल आ गया, तूने भी शायद किसी से सीखा होगा? तेरा भी कोई गुरु होगा? हो सकता है तेरा गुरु तुझसे भी अदभुत बजाता हो? तेरा गुरु जीवित हो, तो मैं उसे सुनना चाहता हूं। 
 
तानसेन ने कहा, गुरु मेरे जीवित हैं, लेकिन उन्हें सुनना तो, वे तो जब बजाते हैं तभी आपको पहुंच कर सुनना पड़ेगा। इसलिए बड़ा मुश्किल है मामला। 
 
अकबर ने कहा, कितना ही मुश्किल हो, तुमने जो कहा उससे मेरी आकांक्षा और भी बढ़ गई। मैं उन्हें सुनना ही चाहूंगा। कोई व्यवस्था करो। 


तानसेन ने पता लगाया तो पता चला--उसके गुरु थे, हरिदास, वे एक फकीर थे और यमुना के किनारे रहते थे--उसने पता चलाया, चौबीस घंटे आदमी वहां लगा कर रखे कि वे कब बजाते हैं, किन घड़ियों में, तो पता चला, रात चार बजे वे रोज सितार बजाते हैं। 
 
अकबर और तानसेन चोरी से जाकर अंधेरी रात में झोपड़े के बाहर छिप गए। दुनिया के किसी सम्राट ने शायद किसी कलाकार को इतना आदर न दिया होगा कि चोरी से उसे सुनने गए। रात अंधेरे में झोपड़े के बाहर छुप रहे। चार बजे वीणा बजनी शुरू हुई। अकबर के आंसू, थामता है नहीं थमते, जब तक वीणा बजती रही वह रोता ही रहा। जैसे किसी और ही लोक में पहुंच गया। वापस लौटने लगा तो जैसे किसी तंद्रा में, जैसे किसी स्वप्न में। महल तक तानसेन से कुछ बोला नहीं। महल में विदा करते वक्त तानसेन से कहा, तानसेन, मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं। लेकिन देखता हूं, तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कुछ भी नहीं हो। इतना फर्क कैसे? तुम ऐसी दिव्य दशा में, तुम ऐसे दिव्य संगीत को उपलब्ध नहीं हो पाते, क्या है कारण? कौनसी बाधा बन रही है?

 
तानसेन सिर झुका कर खड़ा हो गया और कहा, बाधा को मैं भलीभांति जानता हूं। सबसे बड़ी बाधा यही है कि मैं किसी लक्ष्य को लेकर बजाता हूं। बजाता हूं, ध्यान लगा रहता है क्या मिलेगा बजाने के बाद पुरस्कार? क्या होगा? पुरस्कार मेरा लक्ष्य है, उसको ध्यान में रख कर बजाता हूं। इसलिए कितनी ही मेहनत करता हूं मुक्त नहीं हो पाता मेरा बजाना, पुरस्कार से बंधा रहता है। मेरे गुरु किसी आकांक्षा से नहीं बजाते। बजाने के आगे कुछ भी नहीं, जो कुछ है बजाने के पीछे है। मैं बजाता हूं ताकि मुझे कुछ मिल सके। वे बजाते हैं क्योंकि उन्हें कुछ मिल गया है। कोई आनंद उपलब्ध हुआ है, वह आनंद के कारण बजता है। वह आनंद बजने में फैलता है और प्रकट होता है। वह आनंद अभिव्यक्त होता है बजने में। बजने के आगे कोई भी लक्ष्य नहीं है। बजने के पीछे जरूर प्राण हैं, लेकिन आगे कोई लक्ष्य नहीं है। मेरे बजने के पीछे कोई प्राण नहीं हैं, बजने के आगे लक्ष्य है। 
 
ऐसे ही दो तरह के जीवन होते हैं। जो आदर्श को आगे बांध कर जीवित होने की कोशिश करता है उसका जीवन वैसे ही है जैसे कोई गाय के सामने घास रख ले और चलने लगे, तो गाय उस घास की लालच में पीछे-पीछे चलती चली जाती है। चलती तो जरूर है, लेकिन यह चलता बिलकुल बंधन का चलना है। घास की आकांक्षा में बंधी-बंधी चलती है। इससे मुक्ति कभी नहीं आती। हम भी लक्ष्य बना कर जीवन को चलते हैं इसलिए बंध जाते हैं कभी मुक्त नहीं होते। अगर मुक्त होना है तो जीवन में आगे लक्ष्य रखने की जरूरत नहीं, पीछे जो छिपा है उसे प्रकट करने की जरूरत है। तब उसकी अभिव्यक्ति से जीवन निकलता है। तब उस आनंद से जो संगीत पैदा होता है वह संगीत ही मुक्ति और मोक्ष बन जाती है। 

इसलिए मैंने कहा, अनुकरण नहीं, आदर्श नहीं।


अंतर की खोज 

ओशो

No comments:

Post a Comment

Popular Posts