जीवन में एक ही आनंद है,
वह परमात्मा से मिलने का आनंद है। और भी जो आनंद कभी आनंद जैसे
मालूम पड़ते हैं, जाने-अनजाने परमात्मा से मिलने के कारण ही
होते हैं। सुबह सूरज उगता है; प्राची पर लाली फैल जाती है;
पक्षी गीत गाते हैं, हवाओं में सुवास होती है,
शीतलता होती है--तुम उठे, रातभर के सोए,
ताजे और तुमने उगते सूरज को देखा और तुमने कहा कितना सुंदर! और यह
पल, क्षण शुभ हो गया। मगर यह सूरज का सौंदर्य उसी का सौंदर्य
है। यह उसी की तस्वीर का एक हिस्सा है। यह उसका ही एक अंग है। हिमालय के उत्तुंग
शिखर देखे, कुंवारी बर्फ से जमे, जिन
पर कोई कभी नहीं चला, उन पर चमकती सूरज की किरणें देखीं,
फैली चांदी देखी, सोना देखा पहाड़ों पर--उस
अपूर्व दृश्य को देख कर तुम ठगे-ठगे अवाक रह गए। विचार क्षणभर को रुक गए। ऐसा तो
कभी देखा नहीं था। इस अपूर्व ने तुम्हें अवाक कर दिया, आश्चर्य-विमुग्ध
कर दिया। तुमने कहा : बड़ा सुंदर, बड़ा प्रीतिकर! परमात्मा को
फिर देखा। पहाड़ पर उसकी छाया देखी।
कभी सागर के किनारे सागर की उठती लहरों को देखकर, उस तुमुल नाद को देखकर,
उस विराट को फैले हुए देखकर, तुम्हारा छोटा-सा
मन गुपचुप हो गया। कहा, बड़ा सुंदर है! बड़ा सुख पाया। फिर
परमात्मा की एक झलक मिली।
कभी किसी की आंखों में झांककर, कभी किसी का हाथ हाथ में लेकर, प्रेम का थोड़ा-सा झरना बहा और तुमने कहा, बड़ा सुंदर
व्यक्ति है, कि बड़ा प्यारा व्यक्ति है, कि मनचीता मिल गया! फिर परमात्मा मिला। फिर उसका एक हिस्सा मिला।
और ये सब छोटे-छोटे खंड हैं। इन छोटे-छोटे खंडों को ज्यादा देर
नहीं अनुभव किया जा सकता। ये झलकें हैं। जैसे चांद झलकता हो झील में, सुंदर है; झलक भी असली चांद की है, मगर झलक है।
जैसे तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो और चेहरा बना है दर्पण में, तुम कहते हो सुंदर है;
मगर जो चेहरा दर्पण में बन रहा है, वह सच की
ही नकल है, मगर सच नहीं है। झलक तो सच की ही है, मगर झलक स्वयं नहीं है। क्षणभंगुर है--आया, गया।
रोज-रोज ऐसे बहुत-से क्षण तुम्हारे जीवन में आते हैं, जब परमात्मा की झलक कहीं से
आती है, सुध आती है। ये छोटे-छोटे सुख, क्षणभंगुर सुख भी उसी के ही हैं। लेकिन ये आएंगे और जाएंगे। धीरे-धीरे जब
तुम यह समझोगे कि सारा सुख उसका है, सारा आनंद उसका है,
तब तुम खंड-खंड न खोजोगे; तब तुम अखंड में खोजोगे।
तब तुम ऐसे टुकड़े से राजी न होओगे; तुम कहोगे अब तो पूरा
चाहिए।
और पूरा मिलता है। पूरा मिला है। मैं तो रामरतन धन पाया! पूरा
मिला है। पूरा मिल जाता है। मगर मिलता उन्हीं को है जो पूरा खोने को तैयार हैं।
पूरे को पाने के लिए पूरे चुकाना पड़ता है।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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