सूत्र सीधा और साफ है। तुम वही दे सकते हो, जो तुम्हारे पास है। तुम
शरीर का भोजन दे सकते हो। बुद्धपुरुष वही दे सकते हैं, जो
उनके पास है। वे आत्मा का भोजन दे सकते हैं। तुम जो देते हो, वह तो न कुछ है। बुद्धपुरुष जो देते हैं, वह सब कुछ
है। जो समझदार हैं, वे यह सौदा कर ही लेंगे। यह सौदा बड़ा
सस्ता है। बुद्ध को, महावीर को लोग भोजन देते, तो भोजन के बाद वे दो वचन उपदेश के कहते थे। तुमने कुछ दिया, उससे बहुत ज्यादा तुम्हें देते थे। तुमने जो दिया, उसका
क्या मूल्य है? कितना मूल्य है? उन्होंने
जो दिया, वह अमूल्य है। वे दो पंक्तिया कभी किसी के जीवन के
अंधेरे मार्ग पर रोशनी बन जातीं। वे दो पंक्तियां कभी किसी के सूखे मरुस्थल जैसे
हृदय में फूल बनकर खिल जातीं। वे दो पंक्तिटग़ं जहां गीतों का पैदा होना बंद हो गया
था, वहां गीतों को जन्म देने लगतीं। उन थोड़े— थोड़े उपदेशों ने लोगों का आमूल जीवन बदल डाला है।
फिर भोजन प्रतीकात्मक है। भोजन प्रेम का सबूत है।
इसे समझना चाहिए। जब पहली दफा बच्चा पैदा होता है तो वह मां से
प्रेम और भोजन साथ—साथ पाता है। उसी स्तन से प्रेम पाता है, उसी स्तन
से भोजन पाता है। इसलिए भोजन और प्रेम का एक गहरा नाता है, गहरा
एसोसिएशन है। तभी तो जब तुम्हें किसी से प्रेम होता है, तुम
उसे घर भोजन के लिए बुला लाते हो। जब कोई स्त्री तुम्हें प्रेम करेगी तो तुम्हारे
लिए भोजन बनाने को आतुर हो उठेगी। वह सूचक है। वह खबर देता है। वह प्रेम का प्रतीक
है।
बुद्ध को तुम अपने घर भोजन के लिए बुला लाए, वह तुम्हारे प्रेम का
प्रतीक है। तुम्हारे पास जो है, वह तुम भेंट कर रहे हो—वह न कुछ है, उसका कोई मूल्य नहीं, लेकिन तुम्हारे प्रेम का बड़ा मूल्य है। और जहां भी प्रेम हो, वहां पुरस्कार मिलता ही है। जहां भी प्रेम दिया जाए, वहा प्रेम हजारगुना होकर लौटता ही है। वह जीवन का शाश्वत नियम है। तुम जो
दोगे, हजारगुना होकर तुम्हें मिलेगा। गाली दोगे, तो हजार गालियां लौट आएंगी। प्रेम' दोगे तो
प्रेमंहजारगुना होकर लौट आएगा। और यह जीवन का शाश्वत नियम कहीं और काम करे या न
करे, बुद्धपुरुषों के सान्निध्य में तो काम करेगा ही। तुमने
भोजन दिया, तुमने बुद्ध को घर बुलाया तुम तो चकित होओगे,
बुद्ध का जिस भोजन के कारण अंत हुआ, उनके जीवन
का अंत हुआ, उस दिन भी वे उपदेश करना नहीं भूले।
आखिरी भोजन जो उन्होंने किया, वह विषाक्त था। जिसने बुलाया था, वह बहुत गरीब आदमी था। इतना गरीब आदमी था कि बाजार से हरी सब्जियां भी
खरीद नहीं सकता था। तो बिहार में गरीब आदमी कुकुरमुत्ते सुखाकर रख लेते हैं,
उनको फिर गीला करके सब्जी बना लेते हैं। कुकुरमुत्ता ऐसे ही ऊग आता
है, कहीं भी ऊग आता है। लकड़ी पर, गंदगी
पर, कहीं भी ऊग आता है। इसलिए उसका नाम कुकुरमुत्ता है,
जहां—जहां कुत्ते पेशाब करते हैं, वहीं ऊग आता है। कुकुरमुत्ते इकट्ठे कर लेते हैं गरीब और उनको सुखाकर रख
लेते हैं, फिर सालभर उनसे भोजन का काम चला लेते हैं। कभी—कभी कुकुरमुत्ते विषाक्त होते हैं, अगर विषाक्त भूमि
में, या किसी विष के करीब पैदा हो गए।
इस गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दिया। उसके पास कुछ भी न था।
कुकुरमुत्ते की ही सब्जी बनायी थी। बुद्ध ने चखी तो वह कड्वी थी। बात तो साफ हो
गयी कि वह विषाक्त है। लेकिन वह सामने ही पंखा झल रहा है और उसकी आंखों से आनंद के
अश्रु बह रहे हैं और उसके पास कुछ और है भी नहीं, और उसे यह कहना कि तेरा भोजन विषाक्त है,
उसके हृदय को बुरी तरह तोड़ देना होगा। इसलिए बुद्ध चुपचाप, बिना कुछ कहे वह विषाक्त भोजन कर लिए। भोजन के करते ही विष फैलने लगा,
लेकिन उस दिन, उस आखिरी दिन भी वे उपदेश देना
नहीं भूले। और पता है, उन्होंने उपदेश क्या दिया?
उन्होंने अपने भिक्षुओं को इकट्ठा कर लिया, गाव के लोगों को इकट्ठा कर
लिया और कहा, सुनो, दुनिया में दो
व्यक्ति महाधन्यशाली हैं—वह मा, जो
पहली बार बुद्ध को भोजन कराती, और वह व्यक्ति, जो बुद्ध को अंतिम बार भोजन कराता है। यह बहुत धन्यशाली व्यक्ति है जो
सामने बैठा है। इसने इतना पुण्य अर्जन किया है, तुम कल्पना न
कर सकोगे।
और जब भिक्षुओं को पता चला बाद में, जब वैद्य आया और उसने बताया
कि यह तो विषाक्त भोजन था, बचना मुश्किल है। तो आनंद ने
बुद्ध को कहा कि आपने यह किस तरह की बात कही कि यह अत्यंत धन्यभागी है? इसने जहर दे दिया! भला अनजाने दिया हो, मगर इसकी
मूढ़ता का परिणाम भारी है।
बुद्ध ने कहा,
इसीलिए मैंने कहा, अन्यथा मेरे मर जाने के बाद
तुम पागल हो जाते और उसे मार डालते। उसकी पूजा करना, क्योंकि
अंतिम जिससे भोजन ग्रहण किया बुद्ध ने, वह उतना ही धन्यभागी
है जितना जिससे प्रथम किया। ये दो भोजन—पहला और अंतिम। तुम
उसकी पूजा करना, आनंद। उसने तो प्रेम से दिया है। प्रेम से
दिया गया जहर भी अमृत है। और अप्रेम से दिया गया अमृत भी जहर है। प्रेम से मौत भी
आ जाए तो महाजीवन के द्वार खुलते हैं, और अप्रेम से जीवन भी
बढ़ता चला जाए तो राख ही राख हाथ लगती है। तुम उसका प्रेम देखो, जो हुआ है वह बात तो गौण है।
और फिर कौन यहां सदा जीने को आया है! किसी दिन तो मरता। मरना तो
निश्चित था। मरना तो होने ही वाला था। इस आदमी का कोई कसूर नहीं, यह तो निमित्त मात्र है।
फिर मैं देखो का भी हो गया, बुद्ध ने कहा। अच्छा ही है कि अब
विदा हो जाऊं, अब इस देह को और खींचना कठिन भी होता जाता है।
अंतिम दिन भी,
मरने के पहले भी, भोजन जो दिया गया था,
उसके धन्यवाद में उन्होंने उपदेश दिया था।
सूत्र सीधा—साफ है। तुम इतने प्रेम से बुलाकर भोजन दिए हो बुद्ध को, वे तुम्हारे भीतर अगर अपना सारा प्रेम उंडेल दें तो कुछ आश्चर्य नहीं। और
उनका प्रेम एक ही अर्थ रखता है कि सोया जाग जाए, कि अंधेरे
में दीया जले, कि जहा अनंत—अनंत जन्मों
की दुर्गंध है, वहा थोड़ी सी सुवास आत्मा की फैल जाए। उपदेश
का यही अर्थ होता है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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