तुमने एक खूबी की बात देखी: हवा आती, अंधड़ आता, छोटे-मोटे दीए बुझ जाते हैं; जंगल में लगी आग
और भी धू-धू करके जल उठती है। छोटे दीए बुझ जाते हैं; हवा
का झोंका आया, कि गए! लेकिन बड़ी आग और बड़ी हो जाती है!
तुम्हारे भीतर ऊर्जा हो, तो परमात्मा की ऊर्जा भी
तुम्हारी ऊर्जा में संयुक्त हो जाती है। तुम्हारे जीवन में यूं आग लग जाती है,
जैसे जंगल में आग लगी हो। छोटा-मोटा दीया हो, तो जरा सा हवा का झोंका और उसे बुझा जाता है। इसे स्मरण रखना। क्षुद्र
ऊर्जा से नहीं चलेगा; विराट ऊर्जा चाहिए। आकाश की यात्रा
पर निकले हो, ईंधन तो चाहिए ही चाहिए। पंखों में बल
चाहिए।
इसलिए छांदोग्य ठीक कहता है: "बलं वाव
विज्ञानाद् भूयः। विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।'
क्या करोगे जान कर गणित, भूगोल, इतिहास? क्या करोगे जान कर भौतिकी, रसायन? इससे ज्यादा श्रेष्ठ है अपनी
जीवन-ऊर्जा को संगृहीत करना; जीवन-ऊर्जा को ऐसे संगृहीत
करना कि तुम एक सरोवर हो जाओ, लबालब भरे हुए। तुममें कोई
छिद्र न हो; जिससे ऊर्जा बहे न। तुम्हारा घड़ा जब पूरा भरा
हो, ऐश्वर्य से भरा हो, तो ईश्वर
को जानने की क्षमता है।
मेरी बात लोगों को अखरती है, क्योंकि लोग समझते नहीं।
लेकिन मैं तुमसे फिर दोहरा कर कहना चाहता हूं कि ईश्वर को जानना इस जगत में सबसे
बड़ा विलास है। यह धन का विलास कुछ भी नहीं। यह पद का विलास कुछ भी नहीं। ईश्वर को
जानना सबसे बड़ा विलास है, क्योंकि वह परम ऐश्वर्य की
अनुभूति है। और उस परम ऐश्वर्य की अनुभूति के लिए पहले तुम्हें ऊर्जा को बचाना
होगा, संगृहीत करना होगा।
और तुम व्यर्थ गंवा रहे हो! तुम्हारी
निन्यानबे प्रतिशत ऊर्जा कचरेघर में जा रही है। फूल उगें तो कैसे उगें? ज्योति जगे तो कैसे जगे?
नृत्य हो तो कहां से हो? थके-मांदे तुम
क्या नाचोगे? टूटे-फूटे तुम क्या नाचोगे? और जब नाच नहीं पाते, तो बहाने खोजते हो। कहते
हो, आंगन टेढ़ा! नाच न आवे आंगन टेढ़ा! अब आंगन के टेढ़े
होने से कुछ नाचने में बाधा पड़ सकती है? अरे, जिसको नाचना है, आंगन टेढ़ा हो कि सीधा हो,
नाचेगा। अगर नाच है, तो आंगन को ही सीधा
होना पड़ेगा। नाचने वाले की ऊर्जा आंगन को सीधा कर देगी। आंगन का तिरछा होना कहीं
नाचने वाले को रोक सकता है? लेकिन क्या-क्या बहाने हम
खोजते हैं!
ऊर्जा की कमी है; पूछते फिरते हैं कि जीवन
में दुख क्यों है? दुख का कारण सिर्फ इतना है कि सुख होता
है ऊर्जा के अतिरेक से; महाअतिरेक से आनंद होता है। और
तुम्हारे जीवन में बूंद-बूंद कर सब चुका जा रहा है। और खयाल रखना, बूंद-बूंद गिरता है, लेकिन गागर ही नहीं,
सागर भी खाली हो जाता है। बूंद-बूंद गिरता रहे, तुमसे अलग होता रहे; बूंद-बूंद टपकती रहे,
तो गागर तो खाली होगी ही, सागर भी खाली
हो जाता है।
और तुम किस-किस तरह से अपनी ऊर्जा को व्यर्थ
कर रहे हो! तुम्हारे पास जितनी इंद्रियां हैं, उन सबसे तुम दो तरह के काम ले सकते हो। एक
तो ऊर्जा को भीतर ले जाने का; और दूसरा ऊर्जा को बाहर
फेंकने का। यही अंतर्मुखी और बहिर्मुखी का भेद है। बहिर्मुखी मूढ़ है।
दरवाजा तो एक ही होता है। उसी दरवाजे पर एक
तरफ लिखा होता है: प्रवेश, एन्टें्रस; उसी दरवाजे पर दूसरी तरफ लिखा होता
है: एक्झिट। उसी से तुम भीतर आते, उसी से बाहर जाते। कोई
दो दरवाजों की जरूरत नहीं होती। एक ही दरवाजा काफी होता है। तुम्हारी आंख से
तुम्हारे देखने की ऊर्जा बाहर भी जाती है और भीतर भी आती है। जो समझदार है,
वह आंख से ऊर्जा को इकट्ठा करता है। और जो नासमझ है, वह गंवाता है। जो नासमझ है, आंख उसके लिए छेद
हो जाती है। और जो समझदार है, आंख उसके लिए संग्राहक हो
जाती है।
अनहद में बिसराम
ओशो
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